धर्मस्वामी विवेकानंद

मठ में कठिन विधि-नियमों का प्रचलन

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०२ ईसवी

विषय – मठ में कठिन विधि-नियमों का प्रचलन – “आत्माराम कीडिबिया” व उसकी शक्ति की परीक्षा – स्वामीजी के महत्त्व के सम्बन्ध मेंशिष्य का स्वामी प्रेमानन्द के साथ वार्तालाप – पूर्व बंग में अद्वैतावाद का प्रचारकरने के लिए स्वामीजी का शिष्य को प्रोत्साहित करना और विवाहित होतेहुए भी धर्मलाभ का अभयदान – श्रीरामकृष्णदेव के संन्यासी शिष्यों के बारेमें स्वामीजी का विश्वास – नाग महाशय का सिद्धसंकल्पत्व।

स्वामीजी अभी मठ में ही ठहरे हैं। शास्त्रचर्चा के लिए मठ में प्रतिदिन प्रश्नोत्तर-क्लास चल रहा है। इस क्लास में स्वामी शुद्धानन्द, विरजानन्द व स्वरूपानन्द प्रधान जिज्ञासु हैं। इस प्रकार शास्त्रालोचना का निर्देश स्वामीजी “चर्चा” शब्द द्वारा किया करते थे और संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों को सदैव यह “चर्चा” करने के लिए उत्साहित करते थे। किसी दिन गीता, किसी दिन भागवत, तो किसी दिन उपनिषद् या ब्रह्मसूत्र-भाष्य की चर्चा हो रही है। स्वामीजी भी प्रायः प्रतिदिन वहाँ पर उपस्थित रहकर प्रश्नों की मीमांसा कर रहे हैं। स्वामीजी के आदेश पर एक ओर जैसी कठोर नियम के साथ ध्यान-धारणा चल रही है दूसरी ओर उसी प्रकार शास्त्रचर्चा के लिए प्रतिदिन उक्त क्लास चल रहा है। उनकी आज्ञा को मानते हुए सभी उनके चलाये हुए नियमों का अनुसरण करके चल रहे हैं। मठनिवासियों के भोजन, शयन, पाठ, ध्यान आदि सभी इस समय कटोर नियम द्वारा बद्ध हैं। कभी किसी दिन उस नियम का यदि कोई जरा भी उल्लंघन करता था, तो नियम की मर्यादा को तोड़ने के कारण उस दिन के लिए उसे मठ में भोजन नहीं दिया जाता। उस दिन उसे गाँव से भिक्षा माँगकर लानी पड़ती थी और भिक्षा में प्राप्त अन्न को मठभूमि में स्वयं ही पकाकर खाना पड़ता था। फिर संघनिर्माण के लिए स्वामीजी की दूरदृष्टि केवल मठ-निवासियों के लिए दैनिक नियम बनाकर ही नहीं रुक गयी, बल्कि भविष्य में मठ में जो रीति-नीति तथा कार्यप्रणाली जारी रहेगी उसकी भलीभाँति आलोचना करके उसके सम्बन्ध में विस्तार के साथ अनुशासनसमूहों को भी तैयार किया गया है। उसकी पाण्डुलिपि आज भी बेलुड़ मठ में यत्नपूर्वक रखी गयी है।

प्रतिदिन स्नान के बाद स्वामीजी मन्दिर में जाते हैं, श्रीरामकृष्ण का चरणामृत पान करते हैं, उनके श्रीपादुकाओं को मस्तक से स्पर्श करते हैं और श्रीरामकृष्ण की भस्मास्थिपूर्ण डिबिया के सामने साष्टांग प्रणाम करते हैं। इस डिबिया को वे बहुधा “आत्माराम की डिबिया” कहा करते थे। इसके कुछ दिन पूर्व उस “आत्माराम की डिबिया” को लेकर एक विशेष घटना घटी। एक दिन स्वामीजी उसे मस्तक द्वारा स्पर्श करके ठाकुर-घर से बाहर आ रहे थे – इसी समय एकाएक उनके मन में आया, वास्तव में क्या इसमें आत्माराम श्रीरामकृष्ण का वास है? परीक्षा करके देखूँगा, ऐसा सोचकर मन ही मन उन्होंने प्रार्थना की, “हे प्रभो, यदि तुम राजधानी में उपस्थित अमुक महाराजा को आज से तीन दिन के भीतर आकर्षित करके मठ में ला सको तो समझूँगा कि तुम वास्तव में यहाँ पर हो।” मन ही मन ऐसा कहकर वे ठाकुर-घर से बाहर निकल आये और उस विषय में किसी से कुछ भी न कहा। थोड़ी देर बाद वे उस बात को बिलकुल भूल गये। दूसरे दिन वे किसी काम से थोड़े समय के लिए कलकत्ता गये। तीसरे प्रहर मठ में लौटकर उन्होंने सुना कि सचमुच ही उस महाराजा ने मठ के निकटवर्ती ग्रैण्ड ट्रंक रोड पर से जाते जाते रास्ते में गाड़ी रोककर स्वामीजी की तलाश में मठ में आदमी भेजा था और यह जानकर कि वे मठ में उपस्थित नहीं है, मठदर्शन के लिए नहीं आये। यह समाचार सुनते ही स्वामीजी को अपने संकल्प की याद आ गयी और बड़े विस्मय से अपने गुरुभाइयों के पास उस घटना का वर्णन कर उन्होंने “आत्माराम की डिबिया” की विशेष यत्न के साथ पूजा करने का उन्हें आदेश दिया।

आज शनिवार है। शिष्य तीसरे प्रहर मठ में आते ही इस घटना के बारे में जान गया है। स्वामीजी को प्रणाम करके बैठते ही उसे ज्ञात हुआ कि वे उसी समय घूमने निकलेंगे। स्वामी प्रेमानन्द को साथ चलने के लिए तैयार होने को कहा है। शिष्य की बहुत इच्छा है कि वह स्वामीजी के साथ जाय, परन्तु स्वामीजी की अनुमति पाये बिना जाना उचित नहीं है यह सोचकर वह बैठा रहा। स्वामीजी अलखल्ला तथा गेरुआ कनटोप पहनकर एक मोटा डण्डा हाथ में लेकर बाहर निकले। पीछे पीछे स्वामी प्रेमानन्द चले। जाने के पहले शिष्य की ओर ताककर बोले, “चल, चलेगा?” शिष्य कृतकृत्य होकर स्वामी प्रेमानन्द के पीछे पीछे चल दिया।

न जाने क्या सोचते सोचते स्वामीजी कुछ अनमने से होकर चलने लगे। धीरे धीरे ग्रैण्ड ट्रंक रोड पर आ पहुँचे। शिष्य ने स्वामीजी का उक्त प्रकार का भाव देखकर कुछ बातचीत आरम्भ करके उनकी चिन्ता को भंग करने का साहस किया; पर उसमें सफलता न पाकर वह प्रेमानन्द महाराज के साथ अनेक प्रकार से वार्तालाप करते करते उनसे पूछने लगा, “महाराज, स्वामीजी के महत्त्व के बारे में श्रीरामकृष्ण आप लोगों से क्या कहा करते थे, कृपया बतलाइये।” उस समय स्वामीजी थोड़ा आगे आगे चल रहे थे।

स्वामी प्रेमानन्द – बहुत कुछ कहा करते थे; तुझे एक दिन में क्या बताऊँ? कभी कहा करते थे, ‘नरेन अखण्ड के घर से आया है।’ कभी कहा करते थे, ‘नरेन मेरी ससुराल है।’ फिर कभी कहा करते थे, ‘ऐसा व्यक्ति जगत् में न कभी आया है और न आयगा।’ एक दिन बोले थे, ‘महामाया उनके पास जाते डरती है।’ वास्तव में वे उस समय किसी देवी-देवता के सामने सिर न झुकाते थे। श्रीरामकृष्ण ने एक दिन श्रीजगन्नाथदेव का प्रसाद सन्देश (एक प्रकार की मिठाई) के भीतर भरकर उन्हें खिला दिया था। बाद में श्रीरामकृष्ण की कृपा से सब देख सुनकर धीरे धीरे उन्होंने सब माना।

शिष्य – मेरे साथ रोज कितनी हंसी करते हैं, परन्तु इस समय ऐसे गम्भीर बने हैं कि बात करने में भी भय हो रहा है।

स्वामी प्रेमानन्द – असली बात तो यह है कि महापुरुषगण कब किस भाव में रहते हैं यह समझना हमारी मन-बुद्धि के परे है। श्रीरामकृष्ण के जीवित काल में देखा है, नरेन् को दूर से देखकर वे समाधिमग्न हो जाते थे। जिन लोगों की छुई हुई चीजों को खाने से वे दूसरों को मना करते थे उनकी छुई चीजें अगर नरेन खा लेता तो कुछ न कहते थे। कभी कहा करते, ‘माँ उसके अद्वैत ज्ञान को दबाकर रख, मेरा बहुत काम है।’

इन सब बातों को अब कौन समझेगा – और किससे कहूँ?

शिष्य – महाराज, वास्तव में कभी कभी ऐसा मालूम होता है कि वे मनुष्य नहीं है, परन्तु फिर बातचीत, युक्ति-विचार करते समय मनुष्य जैसे लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी आवरण द्वारा उस समय वे अपने स्वरूप को समझने नहीं देते।

स्वामी प्रेमानन्द – श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘वह (नरेन) जब जान जायगा कि वह स्वयं कौन है, तो फिर इस शरीर में नहीं रहेगा, चला जायगा।’ इसीलिए कामकाज में नरेन का मन लगा रहने पर हम निश्चिन्त रहते हैं। उसे अधिक ध्यान-धारणा करते देखकर हमें भय लगता है।

अब स्वामीजी मठ की ओर लौटने लगे। उस समय स्वामी प्रेमानन्द और शिष्य को पास पास देखकर उन्होंने पूछा, “क्यों रे, तुम दोनों की आपस में क्या बातचीत हो रही थी?” शिष्य ने कहा, “यही सब श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में नाना प्रकार की बातें हो रही थीं।” उत्तर सुनकर स्वामीजी फिर अनमने होकर चलते चलते मठ में लौट आये और मठ के आम के पेड़ के नीचे जो कैम्प खटिया उठने बैठने के लिए बिछी हुई थी, उस पर आकर बैठ गये। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद हाथ-मुँह धोकर वे ऊपर के बरामदे में गये और टहलते टहलते शिष्य से कहने लगे, “तू अपने प्रदेश में वेदान्त का प्रचार क्यों नहीं करने लग जाता? वहाँ पर तान्त्रिक मत का बड़ा जोर है। अद्वैतवाद के सिंहनाद से पूर्व बंगाल प्रदेश को हिला दे तो देखूँ। तब जानूँगा कि तू वेदान्त वादी है। उस प्रदेश में पहलेपहल एक वेदान्त की संस्कृत पाठशाला खोल दे – उसमें उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र आदि सब पढ़ा। लड़कों को ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे और शास्त्रार्थ करके तान्त्रिक पण्डितों को हरा दे! सुना है, तुम्हारे प्रदेश में लोग केवल न्यायशास्त्र की किटिरमिटिर पढ़ते हैं। उसमें है क्या? व्याप्तिज्ञान और अनुमान – इसी पर तो नैयायिक पण्डितों का महीनों तक शास्त्रार्थ चलता है! उससे आत्मज्ञान-प्राप्ति में क्या कोई विशेष सहायता मिलती है, बोल! वेदान्त द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मतत्त्व का पठनपाठन हुए बिना क्या देश के उद्धार का और कोई उपाय है रे? तू अपने ही देश में या नाग महाशय के मकान पर ही सही एक चतुष्पाठी (पाठशाला) खोल दे। उसमें इन सब सत्शास्त्रों का पठनपाठन होगा और श्रीरामकृष्ण के जीवन-चरित्र की चर्चा होगी। ऐसा करने पर तेरे अपने कल्याण के साथ ही साथ कितने दूसरे लोगों का भी कल्याण होगा। तेरी कीर्ति भी होगी।”

शिष्य – महाराज, मैं नाम यश की आकांक्षा नहीं रखता। फिर भी आप जैसा कह रहे हैं, कभी कभी मेरी भी ऐसी इच्छा अवश्य होती है। परन्तु विवाह करके घर-गृहस्थी में ऐसा जकड़ गया हूँ कि कहीं मन की बात मन ही में न रह जाय।

स्वामीजी – विवाह किया है तो क्या हुआ? माँ-बाप, भाई-बहिन को अन्नवस्त्र देकर जैसे पाल रहा है, वैसे ही स्त्री का पालन कर, बस। धर्मोपदेश देकर उसे भी अपने पथ में खींच ले। महामाया की विभूति मानकर सम्मान की दृष्टि से देखा कर। धर्म के पालन में ‘सहधर्मिणी’ माना कर और दूसरे समय जैसे अन्य दस व्यक्ति देखते हैं, वैसे ही तू भी देखा कर। इस प्रकार सोचते सोचते देखेगा कि मन की चंचलता एकदम मिट जायगी। भय क्या है?

स्वामीजी की अभयवाणी सुनकर शिष्य को कुछ विश्वास हुआ। भोजन के बाद स्वामीजी अपने बिस्तर पर जा बैठे। अन्य सब लोगों का अभी प्रसाद पाने का समय नहीं हुआ; इसलिए शिष्य को स्वामीजी की चरणसेवा करने का अवसर मिल गया।

स्वामीजी भी उसे मठ के सब निवासियों के प्रति श्रद्धावान बनने का आदेश देने के सिलसिले में कहने लगे, “ये जो सब श्रीरामकृष्ण की सन्तानों को देख रहा है वे सब अद्भुत त्यागी हैं, इनकी सेवा करके लोगों की चित्तशुद्धि होगी – आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष होगा। ‘परिप्रश्नेन सेवया’ – गीता का कथन सुना है न? इनकी सेवा किया कर। तभी सब कुछ हो जायगा। तुझ पर इनका कितना प्रेम है, जानता है?”

शिष्य – परन्तु महाराज, इन लोगों को समझना बहुत ही कठिन मालूम होता है। एक एक व्यक्ति का एक एक भाव।

स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण कुशल बागवान थे न! इसीलिए तरह तरह के फूलों से संघरूपी गुलदस्ते तैयार कर गये हैं। जहाँ का जो कुछ अच्छा है, सब इसमें आ गया है – समय पर और भी कितने आयेंगे। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘जिसने एक दिन के लिए भी निष्कपट चित्त से ईश्वर को पुकारा है, उसे यहाँ पर आना पड़ेगा।’ जो लोग यहाँ पर हैं, वे एक एक महान् सिंह हैं। ये मेरे पास दबकर रहते हैं, इसीलिए कहीं इन्हें मामूली आदमी न समझ लेना। ये ही लोग जब निकलेंगे तो इन्हें देखकर लोगों को चैतन्य प्राप्त होगा। इन्हें अनन्त भावमय श्रीरामकृष्ण के शरीर का अंश जानना। मैं इन्हें उसी भाव से देखता हूँ। वह जो राखाल है, उसके सदृश धर्मभाव मेरा भी नहीं है। श्रीरामकृष्ण उसे मानस-पुत्र मानकर गोदी में लेते थे, खिलाते थे – एक साथ सोते थे। वह हमारे मठ की शोभा है – हमारा बादशाह है। बाबूराम, हरि, सारदा, गंगाधर, शरत्, शशी, सुबोध आदि की तरह ईश्वर-पद-विश्वासी लोग पृथ्वी भर में ढूँढ़ने पर भी शायद न पा सकेगा। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति धर्म-शक्ति का मानो एक एक केन्द्र है। समय आने पर उन सब की शक्ति का विकास होगा।

शिष्य विस्मित होकर सुनने लगा; स्वामीजी ने फिर कहा, “परन्तु तुम्हारे प्रदेश से नाग महाशय के अतिरिक्त और कोई न आया। और दो एक जनों ने श्रीरामकृष्ण को देखा था, पर वे उन्हें समझ न सके।” नाग महाशय की बात याद करके स्वामीजी थोड़ी देर के लिए स्थिर रह गये। स्वामीजी ने सुना था, एक समय नाग महाशय के घर में गंगाजी का फव्वारा निकल पड़ा था। उस बात का स्मरण कर वे शिष्य से बोले, “अरे, वह घटना क्या थी, बोल तो?”

शिष्य – महाराज, मैंने भी उस घटना के बारे में सुना है – पर आंखों नहीं देखी। सुना है, एक बार महावारुणी योग में अपने पिताजी को साथ लेकर नाग महाशय कलकत्ता आने के लिये तैयार हुए, परन्तु भीड़ में गाडी न पाकर तीन चार दिन नारायणगंज में ही रहकर घर लौट आये। लाचार हो नाग महाशय ने कलकत्ता जाने का इरादा छोड़ दिया और अपने पिताजी से कहा, ‘यदि मन शुद्ध हो तो माँ गंगा यहीं पर आ जायँगी। इसके बाद महावारुणी योग के समय पर मकान के आँगन की जमीन फोड़कर एक जल का फव्वारा फूट निकला था – ऐसा सुना है। जिन्होंने देखा था, उनमें से अनेक व्यक्ति अभी तक जीवित हैं। मुझे उनका संग प्राप्त होने के बहुत दिन पहले यह घटना हुई थी।

स्वामीजी – इसमें फिर आश्चर्य की क्या बात है? वे सिद्धसंकल्प महापुरुष थे; उनके लिए वैसा होने में मैं कुछ भी आश्चर्य नहीं मानता।

यह कहते कहते स्वामीजी ने करवट बदल ली और उन्हें नींद आने लगी।

यह देखकर शिष्य प्रसाद पाने के लिए उठकर चला गया।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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