मद्रास-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद
“मद्रास-अभिनन्दन का उत्तर” नामक यह व्याख्यान “भारत में विवेकानंद” नामक पुस्तक से लिया गया है। भारी भीड़ के कारण स्वामी जी का यह व्याख्यान पूरा न हो सका। इसमें वे समझा रहे हैं कि धर्म ही भारतीय जीवन का आधार है। मद्रास-अभिनन्दन का उत्तर पढ़ें–
स्वामी विवेकानंद जब मद्रास पहुँचे तो वहाँ मद्रास स्वागत-समिति द्वारा उन्हें एक मानपत्र भेंट किया गया। वह इस प्रकार था:
मद्रास में स्वामी विवेकानंद को दिया गया मानपत्र
परमपूज्य स्वामीजी,
आज हम सब आपके पाश्चात्य देशों में धार्मिक प्रचार से लौटने के अवसर पर आपके मद्रासनिवासी सहधर्मियों की ओर से आपका हार्दिक स्वागत करते हैं। आज आपकी सेवा में जो हम यह मानपत्र अर्पित कर रहे हैं उसका अर्थ यह नहीं है कि यह एक प्रकार का लोकाचार अथवा औपचारिक व्यरहार है, वरन् इसके द्वारा हम आपकी सेवा में अपने आन्तरिक एवं हार्दिक प्रेम की भेंट देते हैं तथा आपने ईश्वर की कृपा से भारतवर्ष के उच्च धार्मिक आदर्शों का प्रचार कर सत्य के प्रतिपादन का जो महान् कार्य किया है, उसके निमित्त अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
जब शिकागो शहर में धर्म-महासभा का आयोजन किया गया, उस समय स्वाभाविकतः हमारे देश के कुछ भाइयों के मन में इस बात की उत्सुकता उत्पन्न हुई कि हमारे श्रेष्ठ तथा प्राचीन धर्म का भी प्रतिनिधित्व वहाँ योग्यतापूर्वक किया जाए तथा उसका उचित रूप से अमेरिकन राष्ट्र में और फिर उसके द्वारा अन्य समस्त पाश्चात्य देशों में प्रचार हो। उस अवसर पर हमारा यह सौभाग्य था कि हमारी आप से भेंट हुई और पुनः हमें उस बात का अनुभव हुआ, जो बहुधा विभिन्न राष्ट्रों के इतिहास में सत्य सिद्ध हुआ है। अर्थात् समय आने पर ऐसा व्यक्ति स्वयं आविर्भूत हो जाता है, जो सत्य के प्रचार में सहायक होता है। और जब आपने उस धर्म-महासभा में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि रूप में जाने का बीड़ा उठाया तो हममें से अधिकांश लोगों के मन में यह निश्चित भावना उत्पन्न हुई कि उस चिरस्मरणीय धर्म-महासभा में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व बड़ी योग्यतापूर्वक होगा, क्योंकि आपकी अनेकानेक शक्तियों को हम लोग थोड़ा-बहुत जान चुके थे। हिन्दू धर्म के सनातन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आपने जिस स्पष्टता, शुद्धता तथा प्रामाणिकता से किया, उससे केवल धर्म-महासभा पर ही एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ा, वरन् उसके द्वारा अन्य पाश्चात्य देशों के स्त्री-पुरुषों को भी यह अनुभव हो गया कि भारतवर्ष के इस आध्यात्मिक स्रोत में कितना ही अमरत्व तथा प्रेम का सुखद पान किया जा सकता है, और उसके फलस्वरूप मानवजाति का इतना सुन्दर, पूर्ण व्यापक तथा शुद्ध विकास हो सकता है, जितना कि इस विश्व में पहले कभी नहीं हुआ। हम इस बात के लिए आपके विशेष कृतज्ञ हैं कि आपने संसार के महान् धर्मों के प्रतिनिधियों का ध्यान हिन्दू धर्म के उस विशेष सिद्धान्त की ओर आकर्षित किया, जिसको ‘विभिन्न धर्मों में बन्धुत्व तथा सामंजस्य’ कहा जा सकता है। आज यह सम्भव नहीं रहा है कि कोई वास्तविक शिक्षित तथा सच्चा व्यक्ति इस बात का ही दावा करे कि सत्य तथा पवित्रता पर किसी एक विशेष स्थान, सम्प्रदाय अथवा वाद का ही स्वामित्व है या वह यह कहे कि कोई विशेष धर्ममार्ग या दर्शन ही अन्त तक रहेगा और अन्य सब नष्ट हो जाएँगे। यहाँ पर हम आप ही के उन सुन्दर शब्दों को दुहराते हैं, जिनके द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता का केन्द्रीय सामंजस्यभाव स्पष्ट प्रकट होता है कि ‘संसार के विभिन्न धर्म एक प्रकार के यात्रास्वरूप हैं, जहाँ तरह तरह के स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुए हैं तथा जो भिन्न भिन्न दशाओं तथा परिस्थितियों में से होकर एक ही लक्ष्य की ओर जा रहे हैं।’
हम तो यह कहेंगे कि यदि आपने सिर्फ इस पुण्य एवं उच्च उद्देश्य को ही, जो आपको सौंपा गया था, अपने कर्तव्य रूप में निबाहा होता तो उतने से ही आपके हिन्दू भाई बड़ी प्रसन्नता तथा कृतज्ञतापूर्वक आपके उस अमूल्य कार्य के लिए महान आभार मानते। परन्तु आप केवल इतना ही न करके पाश्चात्य देशों में भी गये, तथा वहाँ जाकर आपने जनता को ज्ञान तथा शान्ति का सन्देश सुनाया जो भारतवर्ष के सनातन धर्म की प्राचीन शिक्षा है। वेदान्तधर्म के परम युक्तिसम्मत होने को प्रमाणित करने में आपने जो यत्न किया है उसके लिये आपको हार्दिक धन्यवाद देते समय हमें आपके उस महान् संकल्प का उल्लेख करते हुए बड़ा हर्ष होता है, जिसके आधार पर प्राचीन हिन्दू धर्म तथा हिन्दू दर्शन के प्रचार के लिए अनेकानेक केन्द्रों वाला एक सक्रिय मिशन स्थापित होगा। आप जिन प्राचीन आचार्यों के पवित्र मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, एवं जिस महान् गुरु ने आपके जीवन और उसके उद्देश्यों को उत्प्रेरित किया है, उन्हीं के योग्य अपने को सिद्ध करने के लिए आपने इस महान् कार्य में अपनी सारी शक्ति लगाने का संकल्प किया है। हम इस बात के प्रार्थी हैं कि ईश्वर हमें वह सुअवसर दे जिससे कि हम आपके साथ इस पुण्यकार्य में सहयोग दे सकें। साथ ही हम उस सर्वशक्तिमान् दयालु परमपिता परमेश्वर से करबद्ध होकर यह भी प्रार्थना करते हैं कि वह आपको चिरंजीवी करे, शक्तिशाली बनाए तथा आपके प्रयत्नों को वह गौरव तथा सफलता प्रदान करे जो सनातन सत्य के ललाट पर सदैव अंकित रहती है।
खेतड़ी के महाराज का मानपत्र
इसके बाद खेतड़ी के महाराजा का निम्नलिखित मानपत्र भी पढ़ा गया:
पूज्यपाद स्वामीजी,
इस अवसर पर जबकि आप मद्रास पधारे हैं, मैं यथाशक्ति शीघ्रातिशीघ्र आपकी सेवा में उपस्थित होकर विदेश से आपके कुशलपूर्वक वापस लौट आने पर अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करता हूँ तथा पाश्चात्य देशों में आपके निःस्वार्थ प्रयत्नों को जो सफलता प्राप्त हुई है, उस पर आपको हार्दिक बधाई देता हूँ। हम जानते है कि ये पाश्चात्य देश वे ही है, जिनके विद्वानों का यह दावा है कि ‘यदि किसी क्षेत्र में विज्ञान ने अपना अधिकार जमा लिया’, तो फिर धर्म की मजाल भी नहीं है कि वह वहाँ अपना पैर रख सके, यद्यपि सच बात तो यह है कि विज्ञान ने स्वयं अपने को कभी भी सत्य का विरोधी नहीं ठहराया। हमारा यह पवित्र आर्यवर्त देश इस बात में विशेष भाग्यशाली है कि शिकागो की धर्म-महासभा में प्रतिनिधि के रूप में जाने के लिए उसे आप जैसा एक महापुरुष मिल सका और स्वामीजी, यह केवल आपकी ही विद्वत्ता, साहसिकता तथा अदम्य उत्साह का फल है कि पाश्चात्य देशवाले भी यह बात भली भाँति जान गये कि आज भी भारत के पास आध्यात्मिकता की कैसी असीम निधि है। आपके प्रयत्नों के फलस्वरूप आज यह बात पूर्ण रूप से सिद्ध हो गयी है कि संसार के अनेकानेक मतमतान्तरों के विरोधाभास का सामंजस्य वेदान्त के सार्वभौम प्रकाश में हो सकता है। और संसार के लोगों को यह बात भली भाँति समझ लेने तथा इस महान् सत्य को कार्यान्वित करने की आवश्यकता है कि विश्व के विकास में प्रकृति की सदैव योजना रही है ‘विविधता में एकता’। साथ ही विभिन्न धर्मों में समन्वय, बन्धुत्व तथा पारस्परिक सहानुभूति एवं सहायता द्वारा ही मनुष्यजाति का जीवनव्रत उद्यापित एवं उसका चरमोद्देश्य सिद्ध होना सम्भव है। आपके महान् तथा पवित्र तत्त्वावधान में तथा आपकी श्रेष्ठ शिक्षाओं के स्फूर्तिदायक प्रभाव के आधार पर हम वर्तमान पीढ़ी के लोगों को इस बात का सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि हम अपनी ही आँखों के सामने संसार के इतिहास में एक उस युग का प्रादुर्भाव देख सकेंगे, जिसमें धर्मान्धता, घृणा तथा संघर्ष का नाश होकर, मुझे आशा है कि शान्ति, सहानुभूति तथा प्रेम का साम्राज्य होगा। और मैं अपनी प्रजा के साथ ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि उसकी कृपा आप पर तथा आपके प्रयत्नों पर सदैव बनी रहे।
जब यह मानपत्र पढ़ा जा चुका तो स्वामीजी सभामण्डप से उठ गये और एक गाड़ी में चढ़ गये जो उन्हीं के लिए खड़ी थी। स्वामी विवेकानंद जी के स्वागत के लिए आयी हुई जनता की भीड़ इतनी जबरदस्त थी तथा उसमें ऐसा जोश समाया था कि उस अवसर पर तो स्वामीजी केवल निम्नलिखित संक्षेप में मद्रास-अभिनन्दन का उत्तर ही दे सके; अपना पूर्ण उत्तर उन्होंने किसी दूसरे अवसर के लिए स्थगित रखा।
स्वामी विवेकानंद द्वारा मद्रास-अभिनन्दन का उत्तर
बन्धुओं, मनुष्य की इच्छा एक होती है परन्तु ईश्वर की दूसरी। विचार यह था कि तुम्हारे मानपत्र का पाठ तथा मेरा उत्तर ठीक अंग्रेजी शैली पर हो; परन्तु यहीं ईश्वरेच्छा दूसरी प्रतीत होती है – मुझे इतने बड़े जनसमूह से ‘रथ’ में चढ़कर गीता के ढंग से बोलना पड़ रहा है। इसके लिए हम कृतज्ञ ही हैं। अच्छा ही है कि ऐसा हुआ! इससे भाषण में स्वभावतः ओज आ जाएगा तथा जो कुछ मैं तुम लोगों से कहूँगा उसमें शक्ति का संचार होगा। मैं कह नहीं सकता कि मेरी आवाज तुम सब तक पहुँच सकेगी या नहीं, परन्तु मैं यत्न करूँगा। इसके पहले शायद खुले मैदान में व्यापक जनसमूह के सामने भाषण देने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला था।
जिस अपूर्व स्नेह तथा उत्साहपूर्वक उल्लास से मेरा कोलम्बो से लेकर मद्रास पर्यन्त स्वागत किया गया है तथा जैसा लगता है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में किये जाने की सम्भावना है, वह मेरी सर्वाधिक स्वप्नमयी रंगीन आशाओं से भी अधिक है। परन्तु इससे मुझे हर्ष ही होता है। और वह इसलिए कि इसके द्वारा मुझे अपना वह कथन प्रत्येक बार सिद्ध होता दिखाई देता है जो मैं कई बार पहले भी व्यक्त कर चुका हूँ कि प्रत्येक राष्ट्र का एक ध्येय उसके लिए संजीवनीस्वरूप होता है, प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष निर्धारित मार्ग होता है, और भारतवर्ष का विशेषत्व है धर्म। संसार के अन्य देशों में धर्म तो केवल कई बातों में से एक है, असल में वहाँ तो वह एक छोटीसी चीज गिना जाता है। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड में धर्म राष्ट्रीय नीति का केवल एक अंश है, इंग्लिश चर्च शाही घराने की एक चीज है और इसीलिए उनकी चाहे उसमें श्रद्धा-भक्ति हो अथवा नहीं, वे उसके सहायक सदैव बने रहेंगे, क्योंकि वे तो यह समझते है कि वह उनका चर्च है। और प्रत्येक सभ्य पुरुष तथा महिला से यही आशा की जाती है कि वह उसी चर्च का एक सदस्य बनकर रहे, और वही मानो सभ्यता का चिह्न है। इसी प्रकार अन्य देशों में भी एक एक प्रबल राष्ट्रीय शक्ति होती है; यह शक्ति या तो जबरदस्त राजनीति के रूप में दिखाई देती है अथवा किसी बौद्धिक खोज के रूप में। इसी प्रकार कहीं या तो यह सैन्यवाद के रूप में दिखाई देती है अथवा वाणिज्यवाद के रूप में। कह सकते हैं कि उन्हीं क्षेत्रों में राष्ट्र का हृदय स्थित रहता है और इस प्रकार धर्म तो उस राष्ट्र की अन्य बहुतसी चीजों में से केवल एक ऊपरी सजावट की सी चीज रह जाती है।
पर भारतवर्ष में धर्म ही राष्ट्र के हृदय का मर्मस्थल है, इसी को राष्ट्र की रीढ़ कह लो अथवा वह नींव समझो जिसके ऊपर राष्ट्ररूपी इमारत खड़ी है। इस देश में राजनीति, बल, यहाँ तक कि बुद्धिविकास भी गौण समझे जाते हैं। भारत में धर्म को सर्वोपरि समझा जाता है। मैंने यह बात सैकड़ों बार सुनी है कि भारतीय जनता साधारण जानकारी की बातों से भी अभिज्ञ नहीं है और यह बात सचमुच ठीक भी है। जब मैं कोलम्बो में उतरा तो मुझे यह पता चला कि वहाँ किसी को भी इस बात का ज्ञान नहीं था कि यूरोप में कैसी राजनीतिक उथलपुथल मची हुई है, वहाँ क्या क्या परिवर्तन हो रहे हैं, मन्त्रिमण्डल की कैसी हार हो रही है, आदि आदि। एक भी व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं था कि समाजवाद, अराजकतावाद आदि शब्दों का अथवा यूरोप के राजनीतिक वातावरण में अमुक परिवर्तन का क्या अर्थ है। परन्तु दूसरी ओर यदि तुम लंका के ही लोगों को ले लो तो, वहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुष तथा बच्चे बच्चे को मालूम था कि उनके देश में एक भारतीय संन्यासी आया है जो शिकागो की धर्म-महासभा में भाग लेने के लिए भेजा गया था तथा जिसने वहाँ अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। इससे सिद्ध होता है कि उस देश के लोग, जहाँ तक ऐसी सूचना से सम्बन्ध है, जो उनके मतलब की है अथवा जिससे उनके दैनिक जीवन का ताल्लुक है, उससे वे जरूर अवगत है तथा उसे जानने की इच्छा रखते हैं। राजनीति तथा उस प्रकार की अन्य बातें भारतीय जीवन के अत्यावश्यक विषय कभी नहीं रहे हैं। परन्तु धर्म एवं आध्यात्मिकता ही एक ऐसा मुख्य आधार रहा हैं जिसके ऊपर भारतीय जीवन निर्भर रहा है तथा फला-फूला है और इतना ही नहीं, भविष्य में भी इसे इसी पर निर्भर रहना है।
संसार के राष्ट्रों के सम्मुख सदैव दो ही बड़ी समस्याएँ रही हैं। इनमें से भारत ने सदैव एक का पक्ष ग्रहण किया है तथा अन्य समस्त राष्ट्रों ने दूसरे का पक्ष। वह समस्या यह है कि भविष्य में कौन टिक सकेगा? क्या कारण है कि एक राष्ट्र जीवित रहता है तथा दूसरा नष्ट हो जाता है? जीवनसंग्राम में घृणा टिक सकती है अथवा प्रेम, भोग-विलास चिरस्थायी है अथवा त्याग, भौतिकता टिक सकती है या आध्यात्मिकता। हमारी विचारधारा उसी प्रकार की है जैसी हमारे पूर्वजों की अति प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में थी। जिस अन्धकारमय प्राचीन काल तक पौराणिक परम्पराएँ भी पहुँच नहीं सकती, उसी समय हमारे यशस्वी पूर्वजों ने अपनी समस्या के पक्ष का ग्रहण कर लिया और संसार को चुनौती दे दी। हमारी समस्या को हल करने का रास्ता है वैराग्य, त्याग, निर्भीकता तथा प्रेम। बस ये ही सब टिकने योग्य है। जो राष्ट्र इन्द्रियों की आसक्ति का त्याग कर देता है, वही टिक सकता है। और इसका प्रमाण यह है कि आज हमें इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में बरसाती कीड़े-मकोड़ों की तरह नये राष्ट्रों का उत्थान तथा पतन हो रहा है – वे लगभग शून्य से पैदा होते हैं, कुछ दिनों तक खुराफात मचाते हैं और फिर समाप्त हो जाते हैं। परन्तु यह महान् भारत जिसको अनेकानेक ऐसे दुर्भाग्यों, खतरों तथा उथलपुथल की कठिनतम समस्याओं से उलझना पड़ा है, जैसा कि संसार के किसी अन्य राष्ट्र को करना नहीं पड़ा, आज भी कायम है, टिका हुआ है, और इसका कारण है सिर्फ वैराग्य तथा त्याग; क्योंकि यह स्पष्ट ही है कि बिना त्याग के धर्म रह ही नहीं सकता। इसके विपरीत यूरोप एक दूसरी ही समस्या को सुलझाने में लगा हुआ है। उसकी समस्या यह है कि एक आदमी अधिक से अधिक कितनी सम्पत्ति इकट्ठा कर सकता है; वह कितनी शक्ति जुटा सकता है, भले ही वह ईमानदारी से हो या बेईमानी से, नेकनामी से हो या बदनामी से। क्रूर, निर्दय, हृदयहीन, प्रतिद्वन्द्विता, यही यूरोप का नियम रहा है। पर हमारा नियम रहा है वर्णविभाग, प्रतिस्पर्धा का नाश, प्रतिस्पर्धा के बल को रोकना, इसके अत्याचारों को रौंद डालना तथा इस रहस्यमय जीवन में मानव का पथ शुद्ध एवं सरल बना देना।
स्वामीजी का भाषण इस प्रकार चल ही रहा था; पर इसी बीच जनता की ऐसी भीड़ उमड़ी कि उनका भाषण सुनना कठिन हो गया। इसलिए स्वामीजी ने इतना ही कहकर संक्षेप में अपना भाषण समाप्त कर दिया :
मित्रों, मैं तुम्हारा जोश देखकर बहुत प्रसन्न हूँ, यह परम प्रशंसनीय है। यह मत सोचना कि मैं तुम्हारे इस भाव को देखकर नाराज हूँ, बल्कि मैं तो खुश हूँ, बहुत खुश हूँ – बस ऐसा ही अदम्य उत्साह चाहिए, ऐसा ही जोश हो। सिर्फ इतना ही है कि इसे चिरस्थायी रखना – इसे बनाए रखना। इस आग को बुझ मत जाने देना। हमें भारत में बहुत बड़े बड़े कार्य करने हैं। इसके लिए मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। ठीक है, ऐसा ही जोश चाहिए। अच्छा, अब इस सभा को जारी रखना असम्भव प्रतीत होता है। तुम्हारे सदय व्यवहार तथा जोशीले स्वागत के लिए मैं तुम्हें अनेक धन्यवाद देता हूँ। किसी दूसरे मौके पर शान्ति में हम-तुम फिर कुछ और बातचीत तथा विचारविनिमय करेंगे – मित्रो, अभी के लिए नमस्ते।
चूँकि तुम लोगों की भीड़ चारों ओर है और चारों ओर घूमकर व्याख्यान देना असम्भव है, इसलिए इस समय तुम लोग केवल मुझे देखकर ही सन्तुष्ट हो जाओ। अपना विस्तृत व्याख्यान मैं फिर किसी दूसरे अवसर पर दूँगा। तुम्हारे उत्साहपूर्ण स्वागत के लिए पुनः धन्यवाद।