मेरा प्रिय मित्र – हिंदी में निबंध
“मेरा प्रिय मित्र” निबंध सभी विद्यार्थियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस विषय पर यहाँ दिए गए निबन्ध को पढ़ने से न केवल निबंध की रूपरेखा स्पष्ट होगी, बल्कि व्यावहारिक तौर पर मित्रता में क्या-क्या सम्मिलित होता है, उसका भी ज्ञान प्राप्त होगा। पढ़ें “मेरा प्रिय मित्र” निबंध हिंदी में–
मित्र समष्टि जीवन का उत्कृष्ट तत्त्व है। जीवन पथ का सहायक है। अहर्निश सुख और समृद्धि का चिंतक है। उत्सव, व्यसन और राजद्वार का साथी है। सहोदर के समान प्रीतिपात्र है। पिता के समान विश्वास योग्य है। “अहितातृप्रतिषेधश्च, हिते चानुप्रवर्तनम्” अर्थात् अहित से रोकने और हित में लगाने वाला है। ऐसा मेरा प्रिय मित्र है अंकित चौहान।
मित्र और प्रिय मित्र में अन्तर है। साथ खेलने-कूदने, हँसने-लड़ने वाले सब मित्र ही तो हैं। सीट-साथी सुरेश अग्रवाल, हॉकी-साथी सौरभ श्रीवास्तव, गली निवासी सहपाठी वरदान यादव, स्कूल की राजनीति का साथी चंद्रकात मौर्य, रघुवर प्रसाद, सभा मंच का साथी शिवप्रसाद गोयल, सब सखा, सुहृद ही तो हैं, किन्तु गोस्वामी तुलसीदास के उपदेशामृत के अनुसार “जे न मित्र दुःख होहिं दुखारि”, “गुन प्रगटे अवगुनहिं दुरावा”, “देत लेत मन संक न धरई” तथा “विपत्ति काल कर सत गुन नेहा” के सभी गुण अंकित चौहान में ही हैं। इसलिए वह मेरा प्रिय मित्र है।
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मैत्रीभाव और सत्यवादिता
वह मेरा सहपाठी और समवयस्क है। मैत्री-भाव उसकी विशेषता है। महाभारत ग्रंथ के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी के कथनानुसार वह कृतज्ञ, धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, क्षुद्रतारहित, धीर, जितेन्द्रिय, मर्यादा में स्थित और मित्रता को न त्यागने वाला है।
अंक गणित में वह गोल अंडा था, एलजबरा उसके लिए ऑल-झगड़ा था। ज्योमैट्री की रेखाएँ उसके लिए चक्रव्यूह थीं। चक्रव्यहू में फँसा अंकित गणित के घंटे में अकल्पित भय से कम्मित हो जाता था। एक दिन गणित अध्यापक द्वारा अंकित को अति कष्टकर दण्ड देते देख मेरा हृदय पसीज गया, ‘करुणावृत्तिराद्रान्तरात्मा’ विगलित हो गई।
अवकाश के अनन्तर घर की ओर जाते हुए शिक्षक की मार उसके हृदय को पीड़ित कर रही थी। मैंने मार्ग में उसको पकड़ा, समझाया और अपने घर आने का निमंत्रण दिया। वह मेरे घर आया। मित्रता का हाथ बढ़ाया। गणित की शून्यता को अंकों में बदलने के गुर समझाने का विश्वास दिलाया।
घर में पढ़ाई के बाद दोनों मित्रों की शाम एक साथ बीतने लगी। कबड्डी हमारा प्रिय खेल था। इसलिए कबड्डी के मैदान तक जाने और वापिस लौटने में गपशप, अनहोनी, होनी, दुःख-सुख की चर्चा होने लगी। गपशप हृदय की गाँठों को खोलती है, मुक्त-प्रेम को उदित करता है। हमारा संग शनैः-शनैः दृढ़ मित्र भाव में परिणत होने लगा।
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प्रिय मित्र की पहचान
अंकित से मित्र भाव बढ़ाते समय अचानक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पंक्ति स्मरण हो आई, “मित्र बनाने से पूर्व उसके आचरण और प्रकृति का अनुसंधान करना चाहिए।” इसका एक ही उपाय था–
दो शरीर एक प्राण बन एक दूसरे की अन्तरात्मा को पहचानना। गपशप में, हास-परिहास में, मंत्रवत् मुग्ध भाव में आदमी के मुख से अनायास ऐसे शब्द निकल पड़ते हैं जो उसकी सही पहचान के परिचायक होते हैं। इसी माध्यम से मैंने और अंकित ने एक दूसरे के स्वभाव को पढ़ा और आचरण को समझा।
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आत्मीयता और घनिष्ठता
एक रविवार को दोपहर उसके घर गया। देखा, अंकित चारपाई पर बैठा दवाई की ‘डोज़’ ले रहा है। मुँह सूजा हुआ है। पूछने पर उसने बताया कि बस स्टॉप पर मेरी बड़ी बहन के सामने किसी मनचले युवक ने सिनेमा गीत की पंक्ति गाकर उसे छेड़ने का प्रयास किया। अंकित उधर से गुजर रहा था। बहिन जी ने आवाज देकर अंकित को बुलाया और युवक की शरारत बताई। युवक और अंकित में कहा-सुनी हुई, मारपीट हुई। उसी का यह परिणाम है। इस घटना का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। मित्रता आत्मीयता में बदल गई। वह मेरा प्रिय मित्र बन गया।
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पारिवारिक मित्रता
एक दिन कबड्डी खेलकर जब वापिस आ रहे थे, तो उसने बताया की उसकी बहिन का रिश्ता टूट गया है। इस कारण सारा परिवार दुःखी है, माताजी ने रो-रोकर आँखें सुजा ली हैं। रिश्ता टूटने का कारण क्या है–यह बात वह स्पष्ट नहीं बता पाया था या उसने बताना नहीं चाहा।
रात को मैंने अपने माता-पिता से इस दुःखद घटना की चर्चा की। उन्हें शायद यह बात पहले से ही पता थी। उन्होंने बताया कि इसमें तुम्हारे मित्र-परिवार का दोष है। फिर भी हम बिगड़ी बात बनाने की कोशिश करेंगे। पिताजी के अनथक प्रयास से टूटा हुआ रिश्ता जुड़ गया और विवाह धूमधाम से हो गया। अंकित के पिता घमण्डी-प्रकृति के थे। घमण्ड में कहीं लड़के के रिश्तेदार को कह बैठे थे, “लड़के का बाबा मिंटगुमरी में छलली (मक्कई) बेचता था। आज लड़का आई.सी.एस. ऑफिसर हो गया, तो क्या बात हुई। खानदान तो छलली बचने वालों का कहलाएगा।”
अंकित तो मेरा प्रिय मित्र है ही, लेकिन उस घटना ने अंकित की मित्रता को पारिवारिक मित्रता में बदल दिया। पारिवारिक-मित्रता ने दुःख-सुख में भागीदारी का क्षेत्र व्यापक किया और हम संसार के जगड्वाल में, बीहड़ मायावी गोरख-धन्धों में, स्वार्थमय जगत् में एक-दूसरे की मंगल-कामना में अग्रसर हुए। महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है–
मिल जाता है जिस प्राणी को सत्य प्रेममय मित्र कहीं,
निराधार भवसिंधु बीज वह कर्णधार को पाता है।
प्रेम नाव खेकर जो उसको सचमुच पार लगाता है॥
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