धर्मस्वामी विवेकानंद

मेरा जीवन तथा ध्येय – स्वामी विवेकानंद

यह स्वामी विवेकानंद के उन बेहद कम व्याख्यानों में से एक है, जहाँ उन्होंने अपने निजी जीवन के बारे में बात की है। 27 जनवरी 1900 ई. में पासाडेना, कैलिफोर्निया के शेक्सपियर क्लब में दिया गया यह भाषण स्वामी जी के जीवन-प्रवाह को समझने की दृष्टि से अनमोल है।

पुस्तक के आकार में यह अंग्रेज़ी में “My Life & Mission” और हिंदी में “मेरा जीवन तथा ध्येय” के नाम से प्रकाशित हुआ है।

Swami Vivekananda’s “My Life & Mission” in Hindi

देवियो और सज्जनो! आज प्रातःकाल का विषय वेदान्त दर्शन था, किन्तु रोचक होते हुए भी यह विषय बहुत विशाल और कुछ रूखा-सा है।

अभी अभी तुम्हारे अध्यक्ष महोदय एवं अन्य देवियों और सज्जनों ने मुझसे अनुरोध किया है कि मैं अपने कार्य के बारे में उनसे कुछ निवेदन करूँ। यह तुम लोगों में से कुछ को भले ही रुचिकर जान पड़े, किन्तु मेरे लिए वैसा नहीं है। सच पूछो तो मैं स्वयं समझ नहीं पाता कि उसका वर्णन किस प्रकार करूँ, क्योंकि अपने जीवन में इस विषय पर बोलने का यह मेरा पहला ही अवसर है।

अपने स्वल्प ढंग से, जो कुछ भी मैं करता रहा हूँ, उसको समझाने के लिए मैं तुमको कल्पना द्वारा भारत ले चलूँगा। विषय के सभी ब्योरों और सूक्ष्म विवरणों में जाने का समय नहीं है, और न एक विदेशी जाति की सभी जटिलताओं को इस अल्प समय में समझ पाना तुम्हारे लिए सम्भव है। इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि मैं कम से कम भारत की एक लघु रूपरेखा तुम्हारे सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा।

भारत खँडहरों में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के सदृश है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगत और भग्नावशिष्ट राष्ट्र है। पर थोड़ा और रुको, रुककर देखो, जान पड़ेगा कि इनके परे कुछ और भी है। सत्य यह है कि वह तत्त्व, वह आदर्श, मनुष्य जिसकी बाह्य व्यंजना मात्र है, जब तक कुण्ठित अथवा नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो जाता, तब तक मनुष्य भी निर्जीव नहीं होता, तब तक उसके लिए आशा भी अस्त नहीं होती। यदि तुम्हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्या उससे तुम्हारा अस्तित्व भी शेष हो जाएगा? तुम नवीन कोट बनवा लोगे – कोट तुम्हारा अनिवार्य अंग नहीं, सारांश यह कि यदि किसी धनी व्यक्ति की चोरी हो जाए, तो उसकी जीवनी शक्ति का अन्त नहीं हो जाता, उसे मृत्यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्य तो जीता ही रहेगा।

इस सिद्धान्त के आधार पर खड़े होकर आओ, हम अवलोकन करें और देखें – अब भारत राजनीतिक शक्ति नहीं, आज वह दासता में बँधी हुई एक जाति है। अपने ही प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज नहीं, उनका कोई स्थान नहीं – वे हैं केवल तीस करोड़ गुलाम – और कुछ नहीं! भारतवासी की औसत आय डेढ़ रुपया प्रतिमास है।

अधिकांश जनसमुदाय की जीवनचर्या उपवासों की कहानी है, और जरासी आय कम होने पर लाखों कालकवलित हो जाते हैं। छोटेसे अकाल का अर्थ है मृत्यु। इसलिए, जब मेरी दृष्टि उस ओर जाती है, तो मुझे दिखाई पड़ता है नाश, असाध्य नाश।

पर हमें यह भी विदित है कि हिन्दु जाति ने भी कभी धन को श्रेय नहीं माना। धन उन्हें खूब प्राप्त हुआ – दूसरे राष्ट्रों से कहीं अधिक धन उन्हें मिला, पर हिन्दू जाति ने धन को कभी श्रेय नहीं माना। युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसका श्रेय नहीं बनी, कभी उसने अपनी शक्ति का उपयोग अपने देश के बाहर किसी पर विजय प्राप्त करने में नहीं किया। वह अपनी सीमाओं से सन्तुष्ट रहा, इसलिए उसने कभी किसी से युद्ध नहीं किया, उसने कभी साम्राज्यवादी गौरव को महत्त्व नहीं दिया। धन और शक्ति इस जाति के आदर्श कभी न बन सके।

तो फिर? उसका मार्ग उचित था अथवा अनुचित – यह प्रश्न प्रस्तुत नहीं है, वरन् बात यह है कि यही एक ऐसा राष्ट्र है, यही मानववंशों में एक ऐसी जाति है, जिसने श्रद्धापूर्वक सदैव यही विश्वास किया कि यह जीवन वास्तविक नहीं, सत्य तो ईश्वर है, और इसलिए दुःख और सुख में उसी को पकड़े रहें। अपने अधःपतन के बीच भी उसने धर्म को प्रथम स्थान दिया है। हिन्दू का खाना धार्मिक, उसका पीना धार्मिक, उसकी नींद धार्मिक, उसकी चालढाल धार्मिक, उसके विवाहादि धार्मिक, यहाँ तक कि उसकी चोरी करने की प्रेरणा भी धार्मिक होती है।

क्या तुमने अन्यत्र भी ऐसा देश देखा है? यदि वहाँ एक डाकुओं के गिरोह की ज़रूरत होगी, तो उसका नेता एक धार्मिक तत्त्व गढ़कर उसका प्रचार करेगा, उसकी कुछ खोखली-सी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि रचेगा और फिर उद्घोष करेगा कि परमात्मा तक पहुँचने का यही सबसे सुस्पष्ट और शीघ्रगामी मार्ग है। तभी लोग उसके अनुचर बनेंगे – अन्यथा नहीं। इसका एक ही कारण है और वह यह है कि इस जाति की सजीवता, इस देश का ध्येय धर्म है, और चूँकि धर्म पर अभी आघात नहीं हुआ, अतः यह जाति जीवित है।

रोम की ओर देखो। रोम का ध्येय था साम्राज्यलिप्सा – शक्तिविस्तार। और ज्योंही उस पर आघात हुआ नहीं कि रोम छिन्न-भिन्न हो गया, विलीन हो गया। यूनान की प्रेरणा थी बुद्धि। ज्योंही उस पर आघात हुआ नहीं कि यूनान की इतिश्री हो गयी। और वर्तमान युग में स्पेन इत्यादि वर्तमान देशों का भी यही हाल हुआ है। हर एक राष्ट्र का विश्व के लिये एक ध्येय होता है, और जब तक वह ध्येय आक्रान्त नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है – चाहे जो संकट क्यों न आए। पर ज्योंही वह ध्येय नष्ट हुआ कि राष्ट्र भी ढह जाता हैं।

भारत की वह सजीवता अभी भी आक्रान्त नहीं हुई है। उसने उसका त्याग नहीं किया है। वह आज भी बलशाली है – अन्धविश्वासों के बावजूद भी। वहाँ भयानक अन्धविश्वास हैं, उनमें से कुछ अत्यन्त जघन्य एवं घृणास्पद हैं – चिन्ता न करो उनकी। पर राष्ट्रीय जीवनधारा – जाति का ध्येय – अभी भी जीवित है।

भारतीय राष्ट्र कभी बलशाली, दूसरों को पराजित करनेवाला राष्ट्र नहीं बनेगा – कभी नहीं। वह कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकेगा; ऐसी शक्ति बनना उसका व्यवसाय ही नहीं – राष्ट्रों की संगीत-संगति में भारत इस प्रकार का स्वर कभी दे ही नहीं सकेगा। पर आखिर भारत का स्वर होगा क्या? वह स्वर होगा ईश्वर, केवल ईश्वर का। भारत उससे कठोर मृत्यु की तरह चिपटा हुआ है। इसलिए वहाँ अभी आशा है।

अतः इस विश्लेषण के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि ये तमाम विभिषिकाएँ, ये सारे दैन्यदारिद्र्य और दुःख विशेष महत्त्व के नहीं – भारतपुरुष अभी भी जीवित है, और इसलिए आशा है।

वहाँ सारे देश में तुमको धार्मिक क्रियाशीलता का बाहुल्य दिखाई पड़ेगा। मुझे ऐसा एक भी वर्ष स्मरण नहीं, जब कि भारत में अनेक नवीन सम्प्रदाय उत्पन्न न हुए हों। जितनी ही उद्दाम धारा होगी, उतने ही उसमें भँवर और चक्र उत्पन्न होंगे – यह स्वाभाविक है। इन सम्प्रदायों को क्षय का सूचक नहीं समझा जा सकता, वे जीवन के चिन्ह हैं। होने दो इन सम्प्रदायों की संख्या में वृद्धि – इतनी वृद्धि कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ही एक सम्प्रदाय हो जाए, हर एक व्यक्ति। इस विषय को लेकर कलह करने की आवश्यकता ही क्या है?

अब तुम अपने देश को ही लो। (किसी आलोचना की दृष्टि से नहीं)। यहाँ के सामाजिक कानून, यहाँ की राजनीतिक संस्थाएँ, यहाँ की हर एक चीज का निर्माण इसी दृष्टि से हुआ है कि मानव की लौकिक यात्रा सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाए। जब तक वह जीवित है, तब तक खूब सुखपूर्वक जीवन-यापन करे। अपने राजमार्गों की ओर देखो, कितने स्वच्छ हैं वे सब! तुम्हारे सौन्दर्यशाली नगर! और इसके अतिरिक्त वे तमाम साधन, जिनसे धन को निरन्तर द्विगुणित किया जाता है। जीवन के सुखोपभोग करने के कितने ही रास्ते! पर यदि तुम्हारे देश में कोई व्यक्ति इस वृक्ष के नीचे बैठ जाए और कहने लगे कि मैं तो यहीं पर आसन मारकर ध्यान लगाऊँगा, काम नहीं करूँगा, तो उसे कारागृह जाना होगा। देखा तुमने? उसके लिए जीवन में कोई अवसर नहीं। मनुष्य तभी इस समाज में रह सकता है, जब कि वह समाज की पाँत में एकरस होकर काम किया करे। प्रस्तुत जीवन में आनन्दोपभोग की इस घुड़दौड़ में हर एक आदमी को शामिल होना पड़ता है, अन्यथा वह मर जाता है।

अब हम जरा भारत की ओर चलें। वहाँ यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं उस पर्वत की चोटी पर जाकर बैठना और अपने शेष जीवन भर अपनी नाक की नोंक को देखते रहना चाहता हूँ, तो हर आदमी यही कहता है, ‘जाओ, शुभमस्तु!’ उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। किसी ने उसे कपड़ा ला दिया और वह सन्तुष्ट हो गया। पर यदि कोई व्यक्ति आकर कहे कि ‘देखो, मैं इस ज़िंदगी के कुछ ऐशो-आराम लूटना चाहता हूँ’, तो शायद उसके लिए सब द्वार बन्द ही मिलेंगे।

मेरा कहना है कि दोनों देशों की धारणाएँ भ्रमात्मक हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि कोई व्यक्ति यहाँ आसन लगाकर त्राटक बाँधे तब तक क्यों न बैठा रहे, जब तक कि उसकी इच्छा हो। क्यों वह भी वही करता रहे, जो अधिकांश जनसमुदाय किया करता है? मुझे तो कोई उचित कारण नहीं दिखाई देता।

उसी प्रकार मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत में क्यों मानव इस जीवन की सामग्रियाँ न पाए, क्यों धनोपार्जन न करे! लेकिन, तुम जानते हो, वहाँ से करोड़ों को इसके विरुद्ध दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए आतंकित कर विवश किया जाता है। वहाँ के ऋषियों की यह निरंकुशता है! यह निरंकुशता है महात्माओं की, यह निरंकुशता है अध्यात्मवादियों की, यह निरंकुशता है बुद्धिवादियों की, यह निरंकुशता है ज्ञानियों की। और ज्ञानियों की निरंकुशता, याद रखो, अज्ञानियों की निरंकुशता से कहीं अधिक प्रबल होती है। जब पण्डित और ज्ञानवान अपने मतों को औंरों पर लादना प्रारम्भ कर देते हैं, तो वे बाधाओं और बन्धनों को रचने के ऐसे लाखों उपाय सोच लेते हैं, जिनको तोड़ने की शक्ति अज्ञानियों में नहीं होती।

मैं अब यह कहना चाहता हूँ कि इसे एकदम रोक दिया जाए। लाखों-करोड़ों का होम करके एक बड़ा आध्यात्मिक दिग्गज पैदा किया जाने का कोई अर्थ नहीं है। यदि हम ऐसा समाज निर्माण करें, जिसमें एक ऐसा आध्यात्मिक दिग्गज भी हो और सारे अन्य लोग भी सुखी हों, तो वह ठीक है। पर अगर करोड़ों को पीसकर एक ऐसा दिग्गज बनाया गया, तो यह अन्याय है। अधिक उचित तो यह होगा कि सारे संसार के परित्राण के लिए एक व्यक्ति कष्ट झेले।

किसी राष्ट्र में यदि तुमको कुछ कार्य करना है, तो उसी राष्ट्र की विधियों को अपनाना होगा। हर आदमी को उसी की भाषा में बतलाना होगा। अगर तुमको अमेरिका या इंग्लैण्ड में धर्म का उपदेश देना है, तो तुमको राजनीतिक विधियों के माध्यम से काम करना होगा – संस्थाएँ बनानी होंगी, समितियाँ गढ़नी होंगी, वोट देने की व्यवस्था करनी होगी, बैलेट के डिब्बे बनाने होंगे, सभापति चुनना होगा इत्यादि – क्योंकि पाश्चात्य जातियों की यही विधि और यही भाषा है। पर यहाँ भारत में यदि तुमको राजनीति की ही बात कहनी है, तो धर्म की भाषा को माध्यम बनाना होगा। तुमको इस प्रकार कुछ कहना होगा – ‘जो आदमी प्रतिदिन सबेरे अपना घर साफ करता है, उसे इतना पुण्य प्राप्त होता है, उसे मरने पर स्वर्ग मिलता है, वह भगवान में लीन हो जाता है।’ जब तक तुम इस प्रकार उनसे न कहो, वे तुम्हारी बात समझेंगे ही नहीं। यह प्रश्न केवल भाषा का है। बात जो की जाती है, वह तो एक ही है। हर जाति के साथ यही बात है। परन्तु प्रत्येक जाति के हृदय को स्पर्श करने के लिए तुमको उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा। और यह ठीक भी है। हमें इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए।

जिस सम्प्रदाय का मैं हूँ, उसे संन्यासी की संज्ञा दी जाती है। इस शब्द का अर्थ है – ‘विरक्त’ – जिसने संसार छोड़ दिया हो, यह सम्प्रदाय बहुत बहुत प्राचीन है। गौतम बुद्ध जो ईसा मसीह के 560 वर्ष पूर्व आविर्भूत हुए वे भी इसी सम्प्रदाय में थे। वे इसके सुधारक मात्र थे। इतना प्राचीन है यह! संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद में भी इसका उल्लेख है। प्राचीन भारत का यह नियम था कि प्रत्येक पुरुष और स्त्री अपने जीवन की सन्ध्या के निकट सामाजिक जीवन को त्यागकर केवल अपने मोक्ष और परमात्मा के चिन्तन में संलग्न रहे। यह सब उस महान् घटना का स्वागत करने की तैयारी है, जिसे मृत्यु कहते हैं। इसलिए उस प्राचीन युग में वृद्धजन संन्यासी हो जाया करते थे। बाद में युवकों ने भी संसार त्यागना आरम्भ किया। युवकों में शक्तिबाहुल्य रहता है, इसलिए वे एक वृक्ष के नीचे बैठकर सदासर्वदा अपनी मृत्यु के चिन्तन में ही ध्यान लगाए न रह सके, वे यहाँ-वहाँ जाकर उपदेश देने और नये नये सम्प्रदायों का निर्माण करने लगे। इसी प्रकार युवा बुद्ध ने वह महान सुधार आरम्भ किया। यदि वे जराजर्जरित होते, तो बस नासाग्र पर दृष्टि रखते और शान्तिपूर्वक मर जाते।

यह सम्प्रदाय कोई धर्मसंघ – चर्च – नहीं है और न इसके अनुयायी पुरोहित होते हैं। पुरोहितों और संन्यासियों में मौलिक भेद है। भारत के अन्य व्यवसायों की भाँति पुरोहिती भी सामाजिक जीवन का एक पैतृक व्यवसाय है। पुरोहित का पुत्र उसी प्रकार पुरोहित बन जाता है, जिस प्रकार बढ़ई का पुत्र बढ़ई अथवा लोहार का बेटा लोहार। पुरोहित को विवाहसूत्र में भी बँधना पड़ता है। हिन्दू का मत है कि पत्नी के बिना पुरुष अधूरा है। अविवाहित पुरुष को धार्मिक कृत्य करने का अधिकार नहीं।

संन्यासियों के पास सम्पत्ति नहीं होती। वे विवाह नहीं करते। उनके ऊपर कोई समाजव्यवस्था नहीं। एकमात्र बन्धन जो उन पर रहता है, वह है गुरु और शिष्य का आपसी सम्बन्ध – और कुछ नहीं। और यह भारत की अपनी निजी विशेषता है। गुरु कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो बस कहीं से आकर मुझे शिक्षा दे देता है और उसके बदले में मैं उसे कुछ धन दे देता हूँ और बात खत्म हो जाती है। भारत में यह गुरु-शिष्यसम्बन्ध वैसी ही प्रथा है, जैसे पुत्र का गोद लेना। गुरु पिता से भी बढ़कर है और मैं सचमुच गुरु का पुत्र हूँ – हर तरह से उनका पुत्र। पिता से भी बढ़कर मैं उनकी आज्ञा का अनुचर हूँ, उनसे बढ़कर वे मेरे सम्मान्य हैं – और वह इसलिए कि जहाँ मेरे पिता ने मुझे केवल यह शरीर मात्र दिया, मेरे गुरु ने मुझे मेरी मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया और इसलिए वे पिता से बढ़कर हैं। मेरा अपने गुरु के प्रति यह सम्मान जीवनव्यापी होता है। मेरा प्रेम चिरजीवी होता है। बस एकमात्र यही सम्बन्ध है, जो बच रहता है। मैं इसी प्रकार अपने शिष्यों को ग्रहण करता हूँ। कभी कभी तो गुरु एकदम नवयुवक होता है और शिष्य कहीं अधिक बूढ़ा। पर चिन्ता नहीं, बूढ़ा पुत्र बनता है और मुझे ‘पिता’ शब्द से सम्बोधित करता है और मुझे भी उसे पुत्र अथवा पुत्री कहकर पुकारना पड़ता है।

एक समय की बात है कि मुझे एक वृद्ध गुरु मिले। वे बिल्कुल विचित्र थे। उन महाशय को बौद्धिक पाण्डित्य में कुछ चाव न था, क्वचित् ही वे पुस्तकें देखते या उनका मनन करते। पर जब वे कम उम्र के ही थे, तभी से उनके मन में सत्य का सीधा साक्षात्कार कर लेने की बड़ी उग्र आकांक्षा समा गयी। पहले-पहल उन्होंने अपने ही धर्म पर प्रयोग किया। फिर उनके मन में आया कि नहीं, और भी धर्मों के सत्य को पाया जाए। इस उद्देश्य से वे एक के बाद एक धर्मों का अनुष्ठान करते चले। उस समय तक तो जो कुछ उनसे कहा जाता, वे ध्यानपूर्वक करते और तब तक उस सम्प्रदायविशेष में रहते, जब तक कि उस सम्प्रदाय के विशिष्ट आदर्श का साक्षात्कार न कर लेते। फिर कुछ वर्षों के बाद दूसरे सम्प्रदाय की साधना में लग जाते। जब वे सारे सम्प्रदायों का अनुभव कर चुके, तब वे इस निष्कर्ष तक पहुँचे कि ये सभी ठीक हैं। किसी में भी वे दोष न देख सके। हर सम्प्रदाय एक ऐसा मार्ग है, जिससे लोक एक निश्चित केन्द्र पर ही पहुँचते हैं। और तब उन्होंने घोषणा की, ‘यह कितने गौरव की बात है कि यहाँ इतने अधिक मार्ग हैं, क्योंकि यदि केवल एक ही मार्ग होता, तो शायद वह केवल एक ही व्यक्ति के अनुकूल होता। इतने अधिक मार्ग होने से हर एक व्यक्ति को ‘सत्य’ तक पहुँच सकने का अधिक से अधिक अवसर सुलभ है। यदि मैं एक भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता, तो मुझे दूसरी भाषा आजमानी चाहिए।’ और इस तरह उन्होंने प्रत्येक धर्म को आशीष दिया।

मैं जिन विचारों का सन्देश देना चाहता हूँ, वे सब उन्हीं के विचारों को प्रतिध्वनित करने की मेरी अपनी चेष्टा है। इसमें मेरा अपना निजी मौलिक विचार कोई भी नहीं; हाँ, जो कुछ असत्य अथवा बुरा है, वह अवश्य मेरा ही है। पर हर ऐसा शब्द, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहता हूँ और जो सत्य एवं शुभ है, केवल उन्ही की वाणी को झंकार देने का प्रयत्न मात्र है। प्रोफेसर मैक्समूलर द्वारा लिखित उनके जीवनचरित्र को तुम पढ़ो।1

बस, उन्हीं के चरणों में मुझे ये विचार प्राप्त हुए। मेरे साथ और भी अनेक नवयुवक थे। मैं केवल बालक ही था। मेरी उम्र रही होगी सोलह वर्ष की, कुछ और तो मुझसे भी छोटे थे और कुछ बड़े भी थे – लगभग एक दर्जन रहे होंगे हम सब। और हम सब ने बैठकर यह निश्चय किया कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है। और चल पड़े हम लोग – न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिए, बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिए। तात्पर्य यह कि हमें दिखलाना था हिन्दुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व – ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया, ‘हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगे – अभी और यहीं। हम रुकेंगे नहीं।

हमारे गुरु एक वृद्धजन थे, जो एक सिक्का भी कभी हाथ से नहीं छूते थे। बस जो कुछ थोड़ासा भोजन दिया जाता था, वे उसे ही ले लेते थे, और कुछ गज कपड़ा – अधिक कुछ नहीं। उन्हें और कुछ स्वीकार करने के लिए कोई प्रेरित ही न कर पाता था। इन तमाम अनोखे विचारों से युक्त होने पर भी वे बड़े अनुशासन-कठोर थे, क्योंकि इसी ने उन्हें मुक्त किया था। भारत का संन्यासी आज राजा का मित्र है, उसके साथ भोजन करता है, तो कल वह भिखारी के साथ है और पेड़ तले सो जाता है। उसे प्रत्येक व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करना है, उसे सदैव चलते ही रहना है। कहते हैं – ‘लुढ़कते पत्थर पर काई कहाँ?’ अपने जीवन के गत चौदह वर्षों में कभी मैं एक स्थान पर एक साथ तीन माह से अधिक रुका नहीं, सदा भ्रमण ही करता रहा। हम सब के सब यही करते हैं।

इन मुट्ठी भर युवकों ने इन विचारों को और उनसे निकलनेवाले सभी व्यावहारिक निष्कर्षों को अपनाया। सार्वभौमिक धर्म, दीनों से सहानुभूति और ऐसी ही बातों का – जो सिद्धान्ततः बड़ी अच्छी हैं, पर जिन्हें चरितार्थ करना आवश्यक था – बीड़ा इन्होंने उठाया।

तब वह दुःख का दिन आया, जब हमारे वृद्ध गुरुदेव ने महासमाधि ली। हमसे जितना बना, हमने उनकी सेवाशुश्रूषा की। हमारे कोई मित्र न थे। सुनता भी कौन, हम कुछ विचित्र सी विचारधारा के छोकरों की बात? कोई नहीं। कम से कम भारत में तो छोकरों की कोई कीमत नहीं। जरा सोचो – बारह लड़के लोगों को विशाल महान सिद्धान्त सुनाएँ और कहें कि वे इन विचारों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए कृतसंकल्प हैं! हाँ, सभी ने हँसी की; हँसी करते करते वे गम्भीर हो गये – हमारे पीछे पड़ गये – उत्पीड़न करने लगे। बालकों के माता-पिता हमें क्रोध से धिक्कारने लगे, और ज्यों ज्यों लोगों ने हमारी खिल्ली उड़ायी, त्यों त्यों हम और भी दृढ़ होते गये।

तब इसके बाद एक भयंकर समय आया, मेरे लिए और मेरे अन्य बालक मित्रों के लिए भी। पर मुझ पर तो और भी भीषण दुर्भाग्य छा गया था! एक ओर थे मेरी माता और भ्रातागण। मेरे पिताजी का देहावसान हो गया और हम लोग असहाय, निर्धन रह गये, इतने निर्धन कि हमेशा फ़ाक़ाकशी की नौबत आ गयी। कुटुम्ब की एकमात्र आशा मैं था, जो थोड़ा कमाकर कुछ सहायता पहुँचा सकता। मैं दो दुनियाओं की सन्धि पर खड़ा था। एक ओर था मेरी माता और भाइयों के भूखों मरने का दृश्य, और दूसरी ओर थे इन महान पुरुष के विचार, जिनसे – मेरा खयाल था – भारत का ही नहीं, सारे विश्व का कल्याण हो सकता है और इसलिए जिनका प्रचार करना, जिन्हें कार्यान्वित करना अनिवार्य था। इस तरह मेरे मन में महीनों यह संघर्ष चलता रहा। कभी तो मैं छह छह, सात सात दिन और रात निरन्तर प्रार्थना करता रहता। कैसी वेदना थी वह! मानों मैं जीवित ही नरक में था। कुटुम्ब के नैसर्गिक बन्धन और मोह मुझे अपनी ओर खींच रहे थे – मेरा बाल्य हृदय भला कैसे अपने इतने सगों का दर्द देखते रहता? फिर दूसरी ओर कोई सहानुभूति करनेवाला भी नहीं था! बालक की कल्पनाओं से सहानुभूति करता भी कौन, ऐसी कल्पनाएँ जिनसे औरों को तकलीफ़ ही होती? मुझसे भला किसकी सहानुभूति होती? – किसी की नहीं – सिवा एक के।

उस एक की सहानुभूति ने मुझे आशीष दिया, मुझमें आशा जगायी। वह स्त्री थी। हमारे गुरुदेव – ये महासंन्यासी – बाल्यावस्था में ही विवाहित हो गये थे। युवा होने पर जब उनकी धर्मप्रवणता अपनी चरम सीमा पर थी, तब वे आये एक दिन अपनी पत्नी को देखने। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने के उपरान्त युवावस्था तक उन्हें परस्पर मेल-मिलाप करने का अवसर क्वचित् ही मिला था। पर जब वे बड़े हो चुके, तो आये एक दिन अपनी पत्नी के पास, और बोले, “देखो, मैं तुम्हारा पति हूँ। इस देह पर तुम्हारा अधिकार है। यद्यपि मैंने तुमसे विवाह कर लिया है, पर मैं सांसारिक जीवन नहीं बिता सकता। मैं अब सब कुछ तुम्हारे फ़ैसले पर छोड़ता हूँ।” उन्होंने रोते हुए कहा, “प्रभु तुम्हारा मंगल करें। क्या तुम्हारी यह धारणा है कि मैं तुम्हें अधःपतित करनेवाली स्त्री हूँ? बन सकेगा तो मैं तुम्हारी सहायक ही होऊँगी। जाओ, अपने कार्य में अग्रसर होओ।”

ऐसी स्त्री थीं वे! पति अग्रसर होते गये और अन्त में संन्यासी बन गये, अपनी राह पर बढ़ते गये और यहाँ पत्नी अपने ही स्थान से उन्हें सहायता पहुँचाती रहीं – जहाँ तक बन सका, वहाँ तक। और बाद में जब वे पुरुष आध्यात्मिक दिग्गज बन गये, तब वे आयीं। सचमुच में वे ही उनकी प्रथम शिष्या हुईं और उन्होंने अपना शेष जीवन उनकी देह की सुरक्षा और सेवा करने में बिताया। उन्हें तो कभी यह पता भी नहीं चला कि वे जी रहे हैं, मर रहे हैं अथवा कुछ और बोलते बोलते कई बार तो ऐसे भावाविष्ट हो जाते कि जलते अंगारों पर बैठने पर भी उन्हें कोई खयाल न होता! हाँ, जलते अंगारों पर!! अपने शरीर की ऐसी सुध उन्हें भूल जाती।

तो, वे ही एक ऐसी देवी थीं, जिन्हें उन बालकों की विचारधारा से कुछ सहानुभूति थी। लेकिन उनके पास शक्ति ही क्या थी! वे तो हम लोगों से भी निर्धन थीं! पर चिन्ता नहीं – हम लोग तो धारा में कूद पड़े थे। मेरा विश्वास था कि इन विचारों से भारत अधिक ज्ञानोद्भासित होगा तथा भारत के सिवा और भी अनेक देशों और जातियों का उससे कल्याण हो सकेगा। तभी यह अनुभव हुआ कि इन विचारों का नाश होने देने के बदले तो कहीं यह श्रेयस्कर है कि कुछ मुट्ठी भर लोग स्वयं अपने को मिटाते रहें।! क्या बिगड़ जाएगा यदि एक माँ न रही, यदि दो भाई मर गये तो? यह तो बलिदान है, यह तो करना ही होगा। बिना बलिदान के कोई भी महत् कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। कलेजे को बाहर निकालना होगा और निकालकर पूजा की वेदी पर उसे लहूलुहान चढ़ा देना होगा। तभी कुछ महान की उपलब्धि होती है। और भी कोई दूसरा मार्ग है क्या? अभी तक तो किसी को मिला नहीं। मैं तुम सब लोगों से यही प्रश्न करता हूँ। कितना मूल्य चुकाना पड़ा है किसी सफल कार्य का? कैसी वेदना – कैसी पीड़ा! प्रत्येक सफल क्रिया के पीछे कैसी भयानक यातना की कहानी है! हर जीवन में ही! तुम तो उसे जानते हो – तुममें से प्रत्येक व्यक्ति।

और बस इसी तरह हम लोग, हम बालकों का समूह चलता गया – बढ़ता गया। हमारे निकट के लोगों ने चारों ओर से हमें जो दिया, वह थी गाली और ठोकर। द्वार द्वार पर हमें भोजन की भिक्षा माँगनी पड़ी, कहीं हमें दुत्कार मिली तो कही घुड़की। किस्सा यह कि सब अनाप-शनाप ही हमें दिया गया। यहाँ एक टुकड़ा मिला, तो वहाँ दूसरा। आखिर हमें एक घर भी मिल गया – टूटा-फूटा, खँडहर, जिसमें रहते थे फुफकारते काले नाग। पर हमें उसे लेना ही पड़ा – सब से सस्ता जो था न! हम उसमें गये और जाकर वहाँ रहे।

इस तरह कुछ वर्ष काटे, सारे भारत का भ्रमण किया और यही कोशिश की कि हमारे विचार और आदर्श को एक निश्चित स्वरूप प्राप्त हो जाए। दस वर्ष बीत गये – प्रकाश की किरण न दिखी। और भी दस वर्ष बीते! हजारों बार निराशा आयी। पर इन सब के बीच हरदम आशा की एक किरण बनी रही, और वह था हम लोगों का उत्कट पारस्परिक सहयोग, हमारा आपसी प्रेम। आज मेरे साथ लगभग सौ साथी हैं – स्त्री और पुरुष। वे ऐसे हैं कि यदि मैं एक बार शैतान भी बन जाऊँ, तो भी वे ढाढ़स बँधाते हुए कहेंगे, ‘अरे अभी हम हैं! हम तुम्हें कभी न छोड़ेंगे!’ और सचमुच यह बड़ा सौभाग्य है। सुख में, दुःख में, अकाल में, दर्द में, कब्र में, स्वर्ग में, नरक में जो मेरा साथ न छोड़े, सचमुच वही मेरा मित्र है। ऐसी मैत्री क्या हँसीमजाक है? ऐसी मैत्री से तो मानव को मोक्ष तक मिल सकता है। यदि इस प्रकार हम प्रेम कर सकें, तो उससे मोक्ष प्राप्त होता है। यदि ऐसी भक्ति आ जाए, तो वही सारी ध्यान-धारणाओं का सार है। यदि इस दुनिया में तुममें वह भक्ति है, वह श्रद्धा है, वह शक्ति है, वह प्रेम है, तो तुमको किसी देवता का पूजन करने की जरूरत नहीं। और उन मुसीबत के दिनों में वही बात हम सब में थी, और उसी के बल पर हमने हिमालय से कन्याकुमारी तथा सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक भ्रमण किया।

हम युवकों का समूह भ्रमण करता रहा। शनैः शनैः लोगों का ध्यान हमारी ओर खिंचा; नब्बे प्रतिशत उसमें विरोधी थे, बहुत ही अल्पांश सहायक था। हम लोगों की एक सब से बड़ी कमी थी और वह यह कि हम सब युवा थे, निर्धन थे और युवकों की सारी अनम्रता हममें मौजूद थी। जिसको जीवन में खुद अपनी राह बनाकर चलना पड़ता है, वह थोड़ा अविनीत हो ही जाता है; उसे कोमल, नम्र और मिष्टभाषी बनने का अधिक अवकाश कहाँ? जीवन में तुमने सदैव यह देखा होगा। वह तो एक अनगढ़ हीरा है, उसमें चिकनी पालिश नहीं। वह मामूली सी डिबिया में रखा एक रत्न है।

और हम लोग ऐसे थे। ‘समझौता नहीं करेंगे’ – यही हमारा मूलमन्त्र था। ‘यह आदर्श है और इसे चरितार्थ करना ही होगा। यदि हमें राजा भी मिले, तो भी हम उससे अपनी बात कहे बिना नहीं रहेंगे, भले ही हमें प्राणदण्ड क्यों न दिया जाए! और यदि कृषक मिला, तो उससे भी यही कहेंगे।’ अतः हमारा विरोध होना स्वाभाविक था।

पर ध्यान रखो, जीवन का यही अनुभव है। यदि सचमुच तुम परहित के लिए कटिबद्ध हो, तो सारा ब्रह्माण्ड भले ही तुम्हारा विरोध करे, तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होगा। यदि तुम निःस्वार्थ और हृदय के सच्चे हो, तो तुम्हारे अन्तर में निहित परमात्मा की शक्ति के समक्ष, ये सारी विघ्न-बाधाएँ नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँगी। हम युवक बस ऐसे ही थे। प्रकृति की गोद से पवित्रता और ताजगी लिये हुए शिशुओं के समान थे। हमारे गुरुदेव ने कहा, “मैं प्रभु की वेदी पर उन्हीं फूलों को चढ़ाना चाहता हूँ, जिनकी सुगन्ध अभी तक किसी ने नहीं ली, जिन्हें अपनी अँगुलियों से किसी ने स्पर्श नहीं किया।” उन महात्मा के ये शब्द हमें जीवन देते रहे। उन्होंने कलकत्ते की गलियों से समेटे हुए हम बालकों के जीवन की सारी भावी रूपरेखा देख ली थी। जब वे कहते, “देखना इस लड़के को, उस लड़के को – आगे चलकर क्या होगा वह”, तब लोक उन पर हँसते थे। पर उनकी आस्था और विश्वास अडिग था। वे कहते, “यह तो मुझसे माँ (जगन्माता) ने कहा है। मैं निर्बल हूँ सही, पर जब वह ऐसा कहती है – उससे भूल हो नहीं सकती – तो अवश्य ऐसा ही होगा।”

इस तरह चलता रहा। दस साल बीत गये, पर प्रकाश न मिला। इधर स्वास्थ्य दिन पर दिन क्षीण होता चला। शरीर पर इनका असर हुए बिना नहीं रह सकता : कभी रात के नौ बजे एक बार खा लिया, तो कभी सबेरे आठ बजे ही एक बार खाकर रह गये, दूसरी बार दो रोज के बाद खाया तो तीसरी बार तीन रोज के बाद – और हर बार नितान्त रूखा-सूखा, शुष्क, नीरस भोजन! अधिकांश समय पैदल ही चलते, बर्फीली चोटियों पर चढ़ते, कभी कभी तो दस दस मील पहाड़ पर चढ़ते ही जाते – केवल इसलिए कि एक बार का भोजन मिल जाए। बतलाओ भला, भिखारी को कौन अपना अच्छा भोजन देता है? फिर सूखी रोटी ही भारत में उनका भोजन है और कई बार तो वे सूखी रोटियाँ बीस बीस, तीस तीस दिन के लिए इकट्ठी करके रख ली जाती हैं और जब वे ईंट की तरह कड़ी हो जाती हैं, तब उनसे षड्रस व्यंजन का उपभोग सम्पन्न होता है! एक बार का भोजन पाने के लिए मुझे द्वार द्वार भीख माँगते फिरना पड़ता था। और फिर रोटी ऐसी कड़ी कि खाते खाते मुँह से लहू बहने लगता था। सच कहूँ, वैसी रोटी से तुम अपने दाँत तोड़ सकते हो। मैं तो रोटी को एक पात्र में रख लेता और उसमें नदी का पानी उँड़ेल देता था। इस तरह महीनों गुजारने पड़े, निश्चय ही इन सब का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ रहा था।

फिर मैंने सोचा कि भारत को तो अब देख लिया – चलो अब किसी और देश को आज़माया जाए। उसी समय तुम्हारी धर्ममहासभा होनेवाली थी और वहाँ भारत से किसी को भेजना था। मैं तो एक खानाबदोश सा था, पर मैंने कहा, “यदि मुझे भेजा जाए, तो मैं जाऊँगा। मेरा कुछ बिगड़ता तो है नहीं, और अगर बिगड़े भी, तो मुझे परवाह नहीं।” पैसा जुटा सकना बड़ा कठिन था। पर बड़ी खटपट के बाद रुपया इकट्ठा हुआ और वह भी मेरे किराये मात्र का। और बस, मैं यहाँ आ गया – दो-एक महीने पहले ही। क्या करता – न किसी से जान, न पहचान! बस सड़कों पर यहाँ-वहाँ भटकने लगा।

अन्त में धर्ममहासभा का उद्घाटन हुआ और मुझे बड़े सदय मित्र मिले, जिन्होंने मेरी खूब सहायता की। मैंने थोड़ा परिश्रम किया, धन जमा किया और दो पत्र निकाले। इसके बाद मैं इंग्लैण्ड गया और वहाँ भी काम किया। साथ ही साथ अमेरिका में भी भारत के हित का कार्य साधता रहा।

भारतविषयक मेरी योजना का जो विकास और केन्द्रीकरण हुआ है, वह इस प्रकार है : मैं कह चुका हूँ कि संन्यासी लोग वहाँ किस प्रकार जीवनयापन करते हैं, किस प्रकार द्वार द्वार भीख माँगने जाते हैं और बिना किसी शुल्क के धर्म को उन तक पहुँचाते हैं। बहुत हुआ तो बदले में एक रोटी का टुकड़ा ले लिया। यही कारण है कि भारत का अदने से अदना व्यक्ति भी धर्म की ऐसी उच्च प्रेरणाएँ अपने साथ रखता है। यह सब इन्हीं संन्यासियों के कार्य का फल है। तुम उनसे प्रश्न करो, “अंग्रेज लोग कौन है?” – उन्हें पता नहीं। शायद उत्तर मिल जाए, “वे उन राक्षसों की सन्तान हैं, जिनका वर्णन उन ग्रन्थों में है। है न यही?” “तुम्हारा शासक कौन है?” – “हमें पता नहीं।” “शासन क्या है?” – “हमें पता नहीं।” पर तत्त्वज्ञान वे जानते हैं। जो उनकी असली कमजोरी है, वह है इस पार्थिव जीवनसम्बन्धी व्यावहारिक बौद्धिक शिक्षा का अभाव। ये कोटि कोटि मानव इस संसार से परे के जीवन के लिए सदा प्रस्तुत रहते हैं – और यही क्या उनके लिए पर्याप्त नहीं? नहीं, कदापि नहीं। उन्हें कहीं अच्छे रोटी के टुकड़े की जरूरत है, उनकी देह को कहीं अच्छे कपड़े के टुकड़े की आवश्यकता है। विकट समस्या यही है कि यह अच्छा रोटी का टुकड़ा और अच्छा कपड़ा इन गये-बीते कोटि-कोटि मानवों को प्राप्त हो कहाँ से?

पहले मैं तुमसे कह दूँ कि उन लोगों के लिए बड़ी आशा है, क्योंकि वे संसार में सब से अधिक नम्र व्यक्ति हैं। पर कायर अथवा भीरु नहीं। जब उन्हें लड़ना होता है, तो दैत्यों की भाँति लड़ते हैं। अंग्रेजों के सर्वोत्तम सैनिक भारत के किसानों से ही भर्ती किये गये हैं। मृत्यु का उनके सामने कोई महत्त्व नहीं। उनका मत है – “बीसों बार तो मेरी मौत हो चुकी और सैकड़ों बार अभी मौत होनी है। इससे क्या?” पीछे हटना उन्हें नहीं आता। भावुकता के वे कायल नहीं, पर योद्धा वे उच्चतम कोटि के हैं।

स्वभाव से खेती उन्हें प्यारी है। तुम उन्हें लूट लो, उनको कत्ल कर दो, उन पर कर लगा दो, तुम उनके साथ कुछ भी करो, पर जब तक तुम उन्हें अपने धर्मपालन की स्वतन्त्रता देते हो, तब तक वे बड़े नम्र बने रहेंगे – बड़े ही शान्त और चुप। वे कभी औरों के धर्म से नहीं भिड़ते। ‘हमारे देवताओं की पूजा करने की हमें स्वतन्त्रता दो, फिर चाहे हमसे और सब कुछ छीन लो’ – यही उनका रुख है। अंग्रेजों ने जब उस मर्मस्थल को छुआ, तो प्रारम्भ हो गया उपद्रव! सन 57 की गदर का यही सच्चा कारण था – वे धार्मिक दमन सह न सके। मुस्लिम सरकारे बस इसलिए उड़ा दी गयी कि उन्होंने भारत के धर्म को छूने की चेष्टा की।

यह अगर छोड़ दो, तो वे बड़े शान्तिप्रिय, अवाचाल, नम्र और सर्वोपरि, दुर्व्यसनों से दूर होते हैं। उनमें मादक-पेय का अभाव उन्हें किसी भी देश की साधारण जनता से बहुत ऊँचा उठा देता है। भारत के दरिद्रों के जीवन की उत्तमता की तुलना तुम अपने देश की झोपड़ियों के जीवन से नहीं कर सकते। झोपड़ी का अर्थ निस्सन्देह दरिद्रता है, पर भारत में दरिद्रता के मानी पाप, गन्दगी, व्यभिचार और दुर्व्यसन तो कभी नहीं होते। अन्य देशों में व्यवस्था ही ऐसी है कि केवल व्यभिचारी और आलसी लोग ही दरिद्र बने रहें। यहाँ दरिद्रता का कारण ही नहीं, जब तक कि मनुष्य निपट मूढ़ अथवा मक्कार न हो, ऐसा मूढ़ जिसे नागरिक जीवन के ऐश्वर्य का मोह हो। ऐसे लोग गाँव में कभी नहीं जाएँगे। उनका कहना है, ‘हम तो जीवन के मनोरंजनों, रँगरेलियों के बीच रहते हैं, भोजन हमें दिया ही जाना चाहिए।’ पर हमारे देश की बात ऐसी नहीं। वहाँ के दरिद्र सबेरे से दिन डूबे तक पसीना बहाते हैं और अन्त में कोई अन्य व्यक्ति आकर उनके हाथ से उनकी रोटी छीन ले जाता है – उनके बच्चे भूखे तड़पते रहते हैं। भारत में करोड़ों टन गेहूँ पैदा किया जाता है, पर शायद ही एक दाना गरीब के मुँह में जाता हो! वे तो ऐसे निकृष्ट अन्न पर पलते हैं, जिसे तुम अपनी चिड़ियों को भी न खिलाओ।

सचमुच ऐसा कोई कारण नहीं कि इतने अच्छे, इतने पवित्र लोगों को ऐसी मुसीबते झेलनी पड़ें – ये बेचारे गरीब! हम बहुत सुनते हैं इन कोटि कोटि दीनदुखियों की दुखभरी कहानियाँ, वहाँ की पतिता स्त्रियों के दर्द भरे किस्से। पर कोई तो आए उनका दुःख दूर करने, उनका दर्द बँटाने! बस मुँह से कहते भर हैं, ‘तुम्हारा दुःख, तुम्हारा दर्द तभी दूर हो सकता है, जब तुम वह न रहो जो कि आज हो। हिन्दुओं को मदद देना व्यर्थ है।’ ऐसा कहनेवाले जातियों के इतिहास को नहीं जानते। भारत उस दिन बचेगा ही कहाँ, जिस दिन उसकी प्राणदायिनी शक्तियों का अन्त हो जाएगा – जिस दिन वहाँ के निवासी अपना धर्म बदल देंगे, जिस दिन वे अपनी संस्थाओं का रूपान्तर कर देंगे! उस दिन तो वह जाति ही विलीन हो जाएगी, तब तुम सहायता करोगे किसकी?

एक बात और भी हम सब को सीख लेनी है – और वह यह कि हम सचमुच में किसी को सहायता नहीं दे सकते। हम एक दूसरे के लिए भला क्या कर सकते हैं? तुम अपने जीवन में बढ़ते जाते हो और मैं अपने जीवन में। अधिक से अधिक यह सम्भव है कि मैं तुमको थोड़ासा सहारा देकर आगे बढ़ा दूँ, जिससे अन्ततोगत्वा तुम भी अपनी मंजिल पर पहुँच जाओ – इस पूरी जानकारी के साथ कि सारी दुनिया का गन्तव्य एक ही है, राहें अलग अलग। यह वृद्धि क्रमिक होती है। ऐसी कोई राष्ट्रीय सभ्यता नहीं, जिसे पूर्ण कहा जा सके, सभ्यता को थोड़ासा सहारा दे दो, और वह अपने गन्तव्य तक पहुँच जाएगी। उसे बदलने का प्रयास न करो। छीन लो किसी देश से उसकी संस्थाएँ, उसके रीति-रिवाज, उसके चाल-चलन, फिर बच ही क्या रहेगा भला? इन्हीं तन्तुओं से तो राष्ट्र बँधा रहता है।

पर तभी विदेशी पण्डित महोदय आते हैं और कहते हैं, “देखो, इन हजारों वर्षों की संस्थाओं और रीतियों को तुम तिलांजलि दो और हमारे इस नये मूढ़ता के टीनपाट (tin pot) को गले लगाओ और मौज करो।” यह सब मूर्खता है!

हमें आपस में मदद तो करनी होगी, पर एक कदम इसके भी आगे जाना होगा। मदद करने में सब से अधिक जरूरी यह है कि हम स्वार्थ के परे हो जाएँ। ‘मैं तुम्हें तभी सहायता दूँगा, जब तुम मेरे कहने के अनुसार बर्ताव करोगे, अन्यथा नहीं।’ क्या यह सहायता है?

और इसलिए यदि हिन्दू तुम्हें आध्यात्मिक सहायता पहुँचाना चाहता है, तो वह पूर्ण निरपेक्ष, सम्पूर्ण निःस्वार्थ बनकर ही अग्रसर होगा। मैंने दिया और बस, बात वहीं खत्म हो गयी – मुझसे दूर चली गयी। मेरा दिमाग, मेरी शक्ति, मेरा सर्वस्व, जो कुछ भी देना था, मैंने दे दिया – इसलिए दे दिया कि देना था, और बस। मैंने देखा है, जो दुनिया के आधे लोगों को लूटकर अपना घर भरते हैं, वे ‘बुतपरस्त के धर्मपरिवर्तन’ के लिए बीस हजार डॉलरों का दान देते हैं! किसलिए? बुतपरस्त के सुधार के लिए अथवा अपनी ही आत्मा के उत्कर्ष के लिए? जरा सोचो तो सही!

और पापों के प्रतिशोध का देवता अपना काम कर रहा है। हम अपनी ही आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं। पर हमारे हृदय में वह परम सत्य – परमात्मा विद्यमान है। वह कभी नहीं भूलता। उसे हम धोखा नहीं दे सकते। उसकी आँखों में धूल नहीं डाली जा सकती। जहाँ कहीं सच्ची दानशीलता की प्रेरणा मौजूद है, उसका असर तो होगा ही – चाहे वह हजार वर्षों के बाद ही क्यों न हो। भले ही रुकावट डालो, पर वह जाग उठेगा, और उल्कापात की तरह जोर से उमड़ पड़ेगा। हर ऐसी प्रेरणा, जिसका उद्देश्य स्वार्थपूर्ण है, स्वार्थ-प्रेरित है, अपने लक्ष्य पर कभी न पहुँच सकेगी – भले ही तुम सारे अखबारों को उसकी चमकीली तारीफों से रँग डालो, भले ही विराट् जनसमूहों को तुम उसका जयजयकार करने के लिए खड़ा कर दो।

मैं इस पर गर्व नहीं कर रहा हूँ। पर देखो, मैं कह रहा था उन बालकों की कहानी। आज भारत में ऐसा गाँव नहीं, ऐसा पुरुष नहीं, ऐसी नारी नहीं, जिसे उनके कार्य का पता न हो, जिसका आशीर्वाद उन पर न बरसता हो। देश में ऐसा अकाल नहीं, जिसकी दाढ़ में घुसकर ये बालक रक्षा का काम न करें, अधिक से अधिक लोगों को न बचाएँ। और वही लोगों के हृदय को बेधता है। दुनिया उसे जान जाती है। इसीलिए जब कभी सम्भव हो, सहायता करो, पर अपने उद्देश्य का ध्यान रखो। अगर वह स्वार्थ है, तो न औरों को उससे लाभ होगा, न तुमको ही। यदि वह स्वार्थशून्य है, तो जिसको दी जा रही है, उसके लिए कल्याणप्रद होगी, और तुम्हारे ऊपर भी अमोघ आशीर्वादों की वर्षा करेगी। यह बात उतनी ही निश्चित है, जितना कि तुम्हारा जीवित होना। प्रभु को धोखा नहीं दिया जा सकता; कर्म के नियम को धोखे में नहीं डाला जा सकता।

अतः मेरी योजना है, भारत के इस जनसमूह तक पहुँचने की। मान लो, इन तमाम गरीबों के लिए तुमने पाठशालाएँ खोल भी दी, तो भी उनको शिक्षित करना सम्भव न होगा। कैसे होगा? चार बरस का बालक तुम्हारी पाठशाला में जाने की अपेक्षा अपने हल-बखर की ओर जाना अधिक पसन्द करेगा। वह तुम्हारी पाठशाला न जा सकेगा। यह असम्भव है। आत्मरक्षा निसर्ग की पहली जन्मजात-प्रवृत्ति है। पर यदि पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं जाता, तो मुहम्मद पहाड़ के पास पहुँच सकता है। मैं कहता हूँ कि शिक्षा स्वयं दरवाज़े दरवाज़े क्यों न जाए? यदि खेतिहर का लड़का शिक्षा तक नहीं पहुँच पाता, तो उससे हल के पास, या कारखाने में अथवा जहाँ भी हो, वहीं क्यों न भेंट की जाए? जाओ उसी के साथ – उसकी परछाई के समान। ये जो हजारों और लाखों की संख्या में संन्यासी हैं, जो जनता को आध्यात्मिक भूमिका पर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, वे क्यों न बौद्धिक भूमिका पर भी शिक्षा प्रदान करें? क्यों न वे जनता से कुछ इतिहास तथा अन्यान्य विषय की बातें करें? हमारे कान ही हमारे सब से प्रभावशाली शिक्षक हैं। हमारे जीवन के सर्वोत्तम सिद्धान्त वे ही हैं, जो हमने कानों से अपनी माताओं से सुने थे। पुस्तकें तो बाद में आयी। पुस्तकीय ज्ञान की भला क्या बिसात? कानों के जरिये ही हमें सर्जनात्मक सिद्धान्तों की उपलब्धि होती है। फिर, ज्यों ज्यों उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगेगी, वे तुम्हारी पुस्तकों के भी पास आने लगेंगे। पर पहले उसी तरह चलने दो – मेरा यही विचार है।

मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मैं इन संन्यासी सम्प्रदायों में बहुत अधिक विश्वासी नहीं। उनमें महान गुण हैं, और उनमें दोष भी महान हैं। संन्यासियों और गृहस्थों के बीच पूर्ण सन्तुलन अपेक्षित है। लेकिन भारत की सारी शक्ति संन्यासी सम्प्रदायों ने हथिया ली है। हम उच्चतम शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। संन्यासी राजकुमार से भी बढ़कर है। भारत का ऐसा कोई सम्राट नहीं, जो गैरिक वस्त्रधारी संन्यासी के समक्ष आसन ग्रहण करे – वह अपना आसन छोड़कर खड़ा ही रहता है। इतनी अधिक शक्ति, फिर वह कितने ही अच्छे लोगों के हाथ में क्यों न हो, अच्छी नहीं – यद्यपि मैं मानता हूँ कि लोगों की सुरक्षा इन संन्यासी सम्प्रदायों के द्वारा पर्याप्त मात्रा में हुई है। ये संन्यासी पुरोहित-प्रपंच और ज्ञान के बीच में खड़े हुए हैं। सुधार और ज्ञान के ये केन्द्र हैं। इनका वही स्थान है, जो यहूदियों में पैगम्बरों का था। पैगम्बर सदा पुरोहितों के विरुद्ध प्रचार करते रहे, अन्धविश्वासों को निकाल भगाने की प्रेरणा देते रहे। बस, यही हाल भारत में हुआ। जो भी हो, पर इतनी शक्ति वहाँ ठीक नहीं, इससे भी अच्छी रीतियों का अनुसन्धान किया जाना चाहिए। पर कार्य उसी मार्ग से किया जा सकता है, जिसमें बाथाएँ सब से कम हों। भारत की सारी राष्ट्रीय आत्मा संन्यास पर ही केन्द्रित है। तुम भारत में जाओ और गृहस्थ के रूप में कोई धर्मसन्देश कहो। हिन्दू मुँह फेरकर चले जाएँगे। पर यदि तुमने संसार त्याग दिया है, तब तो वे कहेंगे, “हाँ, यह ठीक है। उन्होंने संसार तज दिया है। वे सच्चे हैं; वे वही करना चाहते हैं, जो कहते हैं।” मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि यह एक प्रचण्ड शक्ति का सूचक है। और हमें जो करना है, वह यह कि हम इसका रूपान्तर कर दें – उसे दूसरा आकार दे दें। परिव्राजक संन्यासियों के हाथों में सन्निहित यह अपरिमित शक्ति रूपान्तरित हो जानी चाहिए, जिससे जनसमूह उद्बुद्ध हो, उन्नत हो।

इस तरह काग़ज़ों पर तो हमने अच्छी योजना तैयार कर ली, पर साथ ही मैंने उसे आदर्शवाद के क्षेत्र से ग्रहण किया था। तब तक मेरी योजना शिथिल और आदर्श के रूप में थी। पर समय की गति के साथ वह स्थिर और सुस्पष्ट होती गयी। उसको सक्रिय बनाते समय मुझे उसके दोष आदि दिखाई पड़ने लगे।

भौतिक भूमिका पर उसे क्रियान्वित करते हुए मैंने क्या खोज की? पहले, हमें ऐसे केन्द्रों की जरूरत है, जहाँ संन्यासियों को ऐसी शिक्षा की रीतियों से अवगत कराने की व्यवस्था हो सके। उदाहरणार्थ, मैं अपने एक मनुष्य को कैमरा लेकर बाहर भेज देता हूँ – पर इसके पहले उसके बारे में सिखा देना भी तो आवश्यक है। तुम देखोगे कि भारत का हर आदमी बिल्कुल निरक्षर है, इसलिए शिक्षा देने के लिए विशाल केन्द्रों की जरूरत है। और इन सब का तात्पर्य क्या हुआ? – धन! आदर्श की भूमिका पर से तुम दैनिक कार्यप्रणाली पर उतर आते हो। मैंने तुम्हारे देश में चार वर्ष श्रम किया और इंग्लैण्ड में दो वर्ष और मैं कृतज्ञ हूँ कि कुछ मित्रों ने मुझे सहारा देकर बचा लिया। आज की मण्डली में उनमें से एक उपस्थित हैं। कुछ अमेरिकी और अंग्रेजी मित्र मेरे साथ भारत भी गये और हमारा कार्य बड़े ही प्रारम्भिक रूप में आरम्भ हुआ। कुछ अंग्रेज आये और सम्प्रदाय में सम्मिलित हुए। एक बेचारे ने तो बड़ा परिश्रम किया और भारत में उसका देहान्त हो गया। वहाँ अभी एक अंग्रेज सज्जन और देवी हैं, जिन्होंने अवकाश ग्रहण किया है। उनके पास कुछ साधन हैं। उन्होंने हिमालय में एक केन्द्र का सूत्रपात किया है और वे बालकों को शिक्षा देते हैं। मैंने उनके जिम्मे अपना एक पत्र – ‘प्रबुद्ध भारत’ – दे दिया है, जिसकी एक प्रति मेज पर रखी हुई है। वहाँ पर वे लोग जनता को शिक्षा देते तथा उनके बीच कार्य करते हैं। मेरा एक केन्द्र कलकत्ते में है। स्वभावतः राजधानी से ही सारे आन्दोलन प्रारम्भ होते हैं, क्योंकि राजधानी ही तो राष्ट्र का हृदय है। सारा रक्त पहले हृदय में ही आता है और वहाँ से सब जगह वितरित होता है। अतः सारा धन, सारी विचारधाराएँ, सारी शिक्षा, सारी आध्यात्मिकता पहले राजधानी में ही पहुँचेगी और फिर वहाँ से सर्वत्र प्रसारित होगी।

मुझे यह बताते हर्ष होता है कि हमने प्रगल्भ रूप में प्रारम्भ कर दिया है। ठीक इसी तरह मैं नारियों के लिए भी आयोजना करना चाहता हूँ। मेरा सिद्धान्त है कि प्रत्येक अपनी सहायता आप करता है। मेरी सहायता तो दूर की सहायता है। भारतीय स्त्रियाँ हैं, अंग्रेज स्त्रियाँ हैं और मुझे आशा है, अमेरिकी स्त्रियाँ भी इस कार्य को हाथ में लेने के लिए आगे आएँगी। उनके आरम्भ करते ही मैं अपना हाथ अलग कर लूँगा। नारी पर पुरुष क्यों शासन करें? तथैव, पुरुष पर नारी क्यों शासन करे? प्रत्येक स्वतन्त्र है। यदि कोई बन्धन है, तो वह है प्रेम का। नारियाँ स्वयं अपने भाग्य का विधान कर लेंगी – पुरुष जो कुछ उनके लिए कर सकते हैं, उससे कहीं उत्तम रूप से। यह समस्या नारी के प्रति अनौचित्य, वह केवल इसलिए कि पुरुषों ने स्त्रियों के भाग्यविधान का दायित्व ले लिया। और मैं ऐसी गलती के साथ प्रारम्भ नहीं करना चाहता, क्योंकि यही गलती फिर समय के साथ बड़ी होती जाएगी – इतनी बड़ी कि अन्ततोगत्वा उसके अनुपात को सँभाल सकना असम्भव हो जाएगा। अतः यदि स्त्रियाँ कभी भी उससे मुक्त न हो सकेंगी – वह एक रस्म ही बन जाएगी। पर मुझे एक बार अवसर मिला है। मैंने तुमको अपने गुरुदेव की धर्मपत्नी की बात बतायी है। हमारी उन पर अटूट श्रद्धा है। वे कभी हम पर शासन नहीं करतीं। अतः यह मार्ग पूर्णतः सुरक्षित है।

कार्य के इस अंश को अभी सम्पन्न होना है।

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