धर्म

नारदजी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप से श्रीराम चरित्र सुनाना – वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड (पहला सर्ग)

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तपस्वी वाल्मीकि जी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारदजी से पूछा—॥ १ ॥

‘[मुने!] इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार माननेवाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है?॥ २ ॥


‘सदाचारसे युक्त, समस्त प्राणियोंका हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है?॥ ३ ॥

‘मनपर अधिकार रखनेवाला, क्रोधको जीतने वाला, कान्तिमान् और किसी की भी निन्दा नहीं करनेवाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित होनेपर किससे देवता भी डरते हैं?॥ ४ ॥

‘महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूँ, इसके लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुषको जानने में समर्थ हैं’॥ ५ ॥

महर्षि वाल्मीकिके इस वचनको सुनकर तीनों लोकोंका ज्ञान रखने वाले नारदजी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नता पूर्वक बोले—॥ ६ ॥

‘मुने! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणोंका वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूँ, आप सुनें॥ ७ ॥

‘इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगोंमें राम-नाम से विख्यात हैं, वे ही मनको वशमें रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं॥ ८ ॥

‘वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रु संहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शङ्ख के समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) है॥

‘उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गले के नीचेकी हड्डी (हँसली) मांससे छिपी हुर्इ है। वे शत्रुओं का दमन 

करने वाले हैं। भुजाएँ घुटने तक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है॥ १० ॥

‘उनका शरीर [अधिक ऊँचा या नाटा न होकर] मध्यम और सुडौल है, देहका रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्ष:स्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं॥ ११ ॥

धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजाके हित-साधनमें लगे रहनेवाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मनको एकाग्र रखने वाले हैं॥ १२ ॥

‘प्रजापतिके समान पालक, श्रीसम्पन्न, वैरिविध्वंसक और जीवों तथा धर्मके रक्षक हैं॥ १३ ॥

‘स्वधर्म और स्वजनोंके पालक, वेद-वेदांगोंके तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेदमें प्रवीण हैं॥ १४ ॥

‘वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरण शक्ति से युक्त और प्रतिभा सम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदय वाले वे श्रीरामचन्द्रजी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं॥ १५ ॥

‘जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार सदा रामसे साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखनेवाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है॥ १६ ॥

‘सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त वे श्रीरामचन्द्र जी अपनी माता कौसल्या के आनन्द बढ़ानेवाले हैं, गम्भीरतामें समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं॥ १७ ॥

‘वे विष्णुभगवान के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमाके समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालागि्न के 

समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं॥ १८ १/२ ॥

‘इस प्रकार उत्तम गुणोंसे युक्त और सत्यपराक्रमवाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्रको, जो प्रजाके हितमें संलग्न रहनेवाले थे, प्रजावर्गका हित करनेकी इच्छासे राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराजपदपर अभिषिक्त करना चाहा॥ १९-२० १/२ ॥

‘तदनन्तर रामके राज्याभिषेक की तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयीने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजासे यह वर माँगा कि रामका निर्वासन (वनवास) और भरतका राज्याभिषेक हो॥ २१-२२ ॥

‘राजा दशरथने सत्य वचनके कारण धर्म-बन्धनमें बँधकर प्यारे पुत्र रामको वनवास दे दिया॥ २३ ॥

कैकेयी का प्रिय करने के लिये पिताकी आज्ञाके अनुसार उनकी प्रतिज्ञाका पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले॥ २४ ॥

‘तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ानेवाले विनयशील लक्ष्मणजी ने भी, जो अपने बड़े भाई रामको बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्वका परिचय देते हुए स्नेहवश वनको जाने वाले बन्धुवर रामका अनुसरण किया॥ २५ १/२ ॥

‘और जनकके कुलमें उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमायाकी भाँति सुन्दरी, समस्त शुभलक्षणोंसे विभूषित, स्त्रियोंमें उत्तम, रामके प्राणोंके समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पतिका हित चाहनेवाली थी, रामचन्द्रजीके पीछे चली; जैसे चन्द्रमाके पीछे रोहिणी चलती है। उस समय पिता दशरथ [ने अपना सारथि भेजकर] 

और पुरवासी मनुष्योंने [स्वयं साथ जाकर] दूरतक उनका अनुसरण किया॥ २६—२८ ॥

‘फिर श्रृंगवेरपुरमें गंगा-तटपर अपने प्रिय निषादराज गुहके पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजीने सारथिको [अयोध्याके लिये] विदा कर दिया॥ २९ ॥

‘निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीताके साथ राम—ये चारों एक वनसे दूसरे वनमें गये। मार्गमें बहुत जलोंवाली अनेकों नदियोंको पार करके [भरद्वाजके आश्रमपर पहुँचे और गुहको वहीं छोड़] भरद्वाज मुनिकी आज्ञासे चित्रकूटपर्वतपर गये। वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वोंके समान वनमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे॥ ३०-३१ १/२ ॥

‘रामके चित्रकूट चले जानेपर पुत्रशोकसे पीडित राजा दशरथ उस समय पुत्रके लिये [उसका नाम ले-लेकर] विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए॥ ३२ १/२ ॥

‘उनके स्वर्गगमनके पश्चात् वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणोंद्वारा राज्यसंचालनके लिये नियुक्त किये जानेपर भी महाबलशाली वीर भरतने राज्यकी कामना न करके पूज्य रामको प्रसन्न करनेके लिये वनको ही प्रस्थान किया॥ ३३-३४ ॥

‘वहाँ पहुँचकर सद्भावनायुक्त भरतजीने अपने बड़े भार्इ सत्यपराक्रमी महात्मा रामसे याचना की और यों कहा—धर्मज्ञ! आप ही राजा हों’॥ ३५ १/२ ॥

‘परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली रामने भी पिताके आदेशका पालन करते हुए राज्यकी अभिलाषा न की और उन भरताग्रजने राज्यके लिये न्यास (चिह्न) रूपमें अपनी खड़ाऊँ भरतको देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया॥ ३६-३७ १/२ ॥

‘अपनी अपूर्ण इच्छाको लेकर ही भरतने रामके चरणोंका स्पर्श किया और रामके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राममें राज्य करने लगे॥ ३८ १/२ ॥

‘भरतके लौट जानेपर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् रामने वहाँपर पुन: नागरिक जनोंका आना-जाना देखकर [उनसे बचनेके लिये] एकाग्रभावसे दण्डकारण्यमें प्रवेश किया॥ ३९-४० ॥

‘उस महान् वनमें पहुँचनेपर कमललोचन रामने विराध नामक राक्षसको मारकर शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्यके भ्राताका दर्शन किया॥ ४१ १/२ ॥

‘फिर अगस्त्य मुनिके कहनेसे उन्होंने ऐन्द्र धनुष, एक खंग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये॥ ४२ १/२ ॥

‘एक दिन वनमें वनचरोंके साथ रहनेवाले श्रीरामके पास असुर तथा राक्षसोंके वधके लिये निवेदन करनेको वहाँके सभी ऋषि आये॥ ४३ १/२ ॥

‘उस समय वनमें श्रीरामने दण्डकारण्यवासी अगि्नके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको राक्षसोंके मारनेका वचन दिया और संग्राममें उनके वधकी प्रतिज्ञा की॥

‘वहाँ ही रहते हुए श्रीरामने इच्छानुसार रूप बनानेवाली जनस्थाननिवासिनी शूर्पणखा नामकी राक्षसीको [लक्ष्मणके द्वारा उसकी नाक कटाकर] कुरूप कर दिया॥ ४६ ॥

‘तब शूर्पणखाके कहनेसे चढ़ार्इ करनेवाले सभी राक्षसोंको और खर, दूषण, त्रिशिरा तथा उनके पृष्ठपोषक असुरोंको रामने युद्धमें मार डाला॥ ४७ १/२ ॥

‘उस वनमें निवास करते हुए उन्होंने जनस्थानवासी चौदह हजार राक्षसोंका वध किया॥ ४८ १/२ ॥

‘तदनन्तर अपने कुटुम्बका वध सुनकर रावण नामका राक्षस क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा और उसने मारीच राक्षससे सहायता माँगी॥ ४९ १/२ ॥

‘यद्यपि मारीचने यह कहकर कि ‘रावण! उस बलवान् रामके साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है’ रावणको अनेकों बार मना किया; परंतु कालकी प्रेरणासे रावणने मारीचके वाक्योंको टाल दिया और उसके साथ ही रामके आश्रमपर गया॥ ५०-५१ १/२ ॥

‘मायावी मारीचके द्वारा उसने दोनों राजकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा दिया और स्वयं रामकी पत्नी सीताका अपहरण कर लिया, [जाते समय मार्गमें विघ्न डालनेके कारण] उसने जटायु नामक गृध्रका वध किया॥ ५२ १/२ ॥

‘तत्पश्चात् जटायुको आहत देखकर और (उसीके मुखसे) सीताका हरण सुनकर रामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं॥ ५३ १/२ ॥

‘फिर उसी शोकमें पड़े हुए उन्होंने जटायु गृध्रका अगि्नसंस्कार किया और वनमें सीताको ढूँढ़ते हुए कबन्ध नामक राक्षसको देखा, जो शरीरसे विकृत तथा भयंकर दीखनेवाला था। महाबाहु रामने उसे मारकर उसका भी दाह किया, अत: वह स्वर्गको चला गया॥

‘जाते समय उसने रामसे धर्मचारिणी शबरीका पता बतलाया और कहा—‘रघुनन्दन! आप धर्मपरायणा संन्यासिनी शबरीके आश्रमपर जाइये’॥ ५६ १/२ ॥

‘शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम शबरीके यहाँ गये, उसने इनका भलीभाँति पूजन किया॥ ५७ १/२ ॥

‘फिर वे पम्पासरके तटपर हनुमान् नामक वानरसे मिले और उन्हींके कहनेसे सुग्रीवसे भी मेल किया॥

‘तदनन्तर महाबलवान् रामने आदिसे ही लेकर जो कुछ हुआ था वह और विशेषत: सीताका वृत्तान्त सुग्रीवसे कह सुनाया॥ ५९ १/२ ॥

‘वानर सुग्रीवने रामकी सारी बातें सुनकर उनके साथ प्रेमपूर्वक अगि्नको साक्षी बनाकर मित्रता की॥

‘उसके बाद वानरराज सुग्रीवने स्नेहवश वालीके साथ वैर होनेकी सारी बातें रामसे दु:खी होकर बतलायीं॥

‘उस समय रामने वालीको मारनेकी प्रतिज्ञा की, तब वानर सुग्रीवने वहाँ वालीके बलका वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीवको रामके बलके विषयमें बराबर शंका बनी रहती थी॥ ६२-६३ ॥

‘रामकी प्रतीतिके लिये उन्होंने दुन्दुभि दैत्यका महान् पर्वतके समान विशाल शरीर दिखलाया॥ ६४ ॥

‘महाबली महाबाहु श्रीरामने तनिक मुसकराकर उस अस्थिसमूहको देखा और पैरके अँगूठेसे उसे दस योजन दूर फेंरुक दिया॥ ६५ ॥

‘फिर एक ही महान् बाणसे उन्होंने अपना विश्वास दिलाते हुए सात तालवृक्षोंको और पर्वत तथा रसातलको बींध डाला॥ ६६ ॥

‘तदनन्तर रामके इस कार्यसे महाकपि सुग्रीव मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें रामपर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुहामें गये॥ ६७ ॥

‘वहाँ पर सुवर्ण के समान पिंगलवर्णवाले वीरवर सुग्रीवने गर्जना की, उस महानादको सुनकर वानरराज वाली अपनी पत्नी ताराको आश्वासन देकर तत्काल घरसे बाहर निकला और सुग्रीवसे भिड़ गया। वहाँ रामने वालीको एक ही बाणसे मार गिराया॥ ६८-६९ ॥

सुग्रीव के कथनानुसार उस संग्राममें वाली को मारकर उसके राज्यपर रामने सुग्रीव को ही बिठा दिया॥

‘तब उन वानरराज ने भी सभी वानरों को बुलाकर जानकीका पता लगानेके लिये उन्हें चारों दिशाओं में भेजा॥

‘तत्पश्चात् सम्पाति नामक गृध्रके कहनेसे बलवान् हनुमान्जी सौ योजन विस्तारवाले क्षार समुद्रको कूदकर लाँघ गये॥ ७२ ॥

‘वहाँ रावणपालित लङ्कापुरीमें पहुँचकर उन्होंने अशोक वाटिका में सीता को चिन्तामग्न देखा॥ ७३ ॥

‘तब उन विदेहनन्दिनीको अपनी पहचान देकर रामका संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिकाका द्वार तोड़ डाला॥ ७४ ॥

‘फिर पाँच सेनापतियों और सात मन्त्रिकुमारोंकी हत्या कर वीर अक्षकुमार का भी कचूमर निकाला, इसके बाद वे [जान-बूझकर] पकड़े गये॥ ७५ ॥

‘ब्रह्माजीके वरदानसे अपनेको ब्रह्मपाशसे छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान्जीने अपनेको बाँधनेवाले उन राक्षसोंका अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया॥ ७६ ॥

‘तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीताके [स्थानके] अतिरिक्त समस्त लङ्काको जलाकर वे महाकपि हनुमान्जी रामको प्रिय संदेश सुनानेके लिये लंकासे लौट आये॥ ७७ ॥

‘अपरिमित बुद्धिशाली हनुमान्जी ने वहाँ जा महात्मा रामकी प्रदक्षिणा करके यों सत्य निवेदन किया—‘मैंने सीताजी का दर्शन किया है’॥ ७८ ॥

‘इसके अनन्तर सुग्रीवके साथ भगवान् राम ने महासागरके तटपर जाकर सूर्यके समान तेजस्वी बाणोंसे समुद्र को क्षुब्ध किया॥ ७९ ॥

‘तब नदीपति समुद्रने अपनेको प्रकट कर दिया, फिर समुद्रके ही कहनेसे रामने नलसे पुल निर्माण कराया॥

‘उसी पुलसे लङ्कापुरीमें जाकर रावणको मारा, फिर सीताके मिलनेपर रामको बड़ी लज्जा हुर्इ॥ ८१ ॥

‘तब भरी सभामें सीताके प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बातको न सह सकनेके कारण साध्वी सीता अगि्नमें प्रवेश कर गयीं॥ ८२ ॥

‘इसके बाद अगि्नके कहनेसे उन्होंने सीताको निष्कलङ्क माना। महात्मा रामचन्द्रजीके इस महान् कर्मसे देवता और ऋषियों सहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया॥ ८३ १/२ ॥

‘फिर सभी देवताओंसे पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषणको लङ्काके राज्यपर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होनेके कारण उनके आनन्दका ठिकाना न रहा॥ ८४-८५ ॥

‘यह सब हो जानेपर राम देवताओंसे वर पाकर और मरे हुए वानरोंको जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्याके लिये प्रस्थित हुए॥ ८६ ॥

‘भरद्वाज मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सबको आराम देनेवाले सत्यपराक्रमी रामने भरतके पास हनुमान्को भेजा॥ ८७ ॥

‘फिर सुग्रीवके साथ कथा-वार्ता कहते हुए पुष्पकारूढ़ हो वे नन्दिग्रामको गये॥ ८८ ॥

‘निष्पाप रामचन्द्रजीने नन्दिग्राममें अपनी जटा कटाकर भाइयोंके साथ, सीताको पानेके अनन्तर, पुन: अपना राज्य प्राप्त किया है॥ ८९ ॥

‘अब रामके राज्यमें लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक तथा रोग-व्याधिसे मुक्त रहेंगे, उन्हें दुर्भिक्षका भय न होगा॥ ९० ॥

‘कोर्इ कहीं भी अपने पुत्रकी मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी॥ ९१ ॥

‘आग लगनेका किंचित् भी भय न होगा, कोर्इ प्राणी जलमें नहीं डूबेंगे, वात और ज्वरका भय थोड़ा भी नहीं रहेगा॥ ९२ ॥

‘क्षुधा तथा चोरीका डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और राष्ट्र धन-धान्यसम्पन्न होंगे। सत्ययुगकी भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे॥ ९३ १/२ ॥

राम बहुत-से सुवर्णोंकी दक्षिणावाले सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उनमें विधिपूर्वक विद्वानोंको दस हजार करोड़ (एक खरब) गौ और ब्राह्मणोंको अपरिमित धन देंगे तथा सौगुने राजवंशोंकी स्थापना करेंगे। संसारमें चारों वर्णोंको वे अपने-अपने धर्ममें नियुक्त रखेंगे॥

‘फिर ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य करनेके अनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने परमधामको पधारेंगे॥ ९७ ॥

‘वेदोंके समान पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय इस रामचरितको जो पढ़ेगा, वह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा॥

‘आयु बढ़ानेवाली इस रामायण-कथाको पढ़नेवाला मनुष्य मृत्युके अनन्तर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजनवर्गके साथ ही स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होगा॥ ९९ ॥

‘इसे ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान् हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वीका राज्य प्राप्त करे, वैश्यको व्यापारमें लाभ हो और शूद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे’॥ १०० ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ॥ १॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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