नवग्रह स्तोत्र पाठ – Navgrah Stotra
नवग्रह स्तोत्र पाठ (Navgrah Stotra) करें जिससे सभी ग्रहों की शांति स्वतः ही हो जाती है। हिंदू धर्म में ग्रह देवता हैं। खगोल शास्त्र की दृष्टि से वे नौ खगोलीय पिंड हैं जो पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं। नवग्रह स्तोत्र पाठ के अतिरिक्त भी शान्ति के अलग-अलग तरीके हैं जिनका उपयोग लोग ग्रहों के उपाय के रूप में अपने जीवन को संतुलित करने के लिए करते हैं। फिर भी यह स्तोत्र सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसका पाठ तीव्र गति से फल उत्पन्न करता है। नवग्रह स्तोत्र पढ़ने से सभी ग्रहों का अलग-अलग उपाय करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यह स्तोत्र अकेला ही सभी ग्रहों को प्रसन्न कर उनके शुभ फल पैदा करने में सक्षम है। करें नवग्रह स्तोत्र पाठ–
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रवि
जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥१॥
चंद्र
दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम्।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम्॥२॥
मंगल
धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥३॥
बुध
प्रियङ्गुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥ ४॥
गुरु
देवानांच ऋषिणांच गुरुंकांचन सन्निभं।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिं॥ ५॥
शुक्र
हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥
शनि
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥
राहू
अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥
केतु
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥
फलश्रुति
इति व्यासमुखोद्गीतं यः पठेत्सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्नशान्तिर्भविष्यति॥१०॥
नरनारीनृपाणां च भवेद्दुःस्वप्ननाशनम्।
ऐश्वर्यमतुलं तेषामारोग्यं पुष्टिवर्धनम्॥
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ग्रह
ग्रहनक्षत्रजाः पीडास्तस्कराग्निसमुद्भवाः।
ताः सर्वाः प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रूते न संशयः॥
॥ इति श्रीव्यासविरचितं नवग्रहस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
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विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर नवग्रह स्तोत्र पाठ (Navgrah Stotra) को हम रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें नवग्रह स्तोत्र पाठ रोमन में–
Read Navgrah Stotra
ravi
japākusumasaṃkāśaṃ kāśyapeyaṃ mahādyutim।
tamo’riṃ sarvapāpaghnaṃ praṇato’smi divākaram॥1॥
caṃdra
dadhiśaṅkhatuṣārābhaṃ kṣīrodārṇavasaṃbhavam।
namāmi śaśinaṃ somaṃ śambhormukuṭabhūṣaṇam॥2॥
maṃgala
dharaṇīgarbhasaṃbhūtaṃ vidyutkāntisamaprabham।
kumāraṃ śaktihastaṃ taṃ maṅgalaṃ praṇamāmyaham॥3॥
budha
priyaṅgukalikāśyāmaṃ rūpeṇāpratimaṃ budham।
saumyaṃ saumyaguṇopetaṃ taṃ budhaṃ praṇamāmyaham॥4॥
guru
devānāṃca ṛṣiṇāṃca guruṃkāṃcana sannibhaṃ।
buddhibhūtaṃ trilokeśaṃ taṃ namāmi bṛhaspatiṃ॥5॥
śukra
himakundamṛṇālābhaṃ daityānāṃ paramaṃ gurum।
sarvaśāstrapravaktāraṃ bhārgavaṃ praṇamāmyaham॥6॥
śani
nīlāṃjanasamābhāsaṃ raviputraṃ yamāgrajam।
chāyāmārtaṇḍasaṃbhūtaṃ taṃ namāmi śanaiścaram॥7॥
rāhu
ardhakāyaṃ mahāvīryaṃ candrādityavimardanam।
siṃhikāgarbhasaṃbhūtaṃ taṃ rāhuṃ praṇamāmyaham॥8॥
ketu
palāśapuṣpasaṃkāśaṃ tārakāgrahamastakam।
raudraṃ raudrātmakaṃ ghoraṃ taṃ ketuṃ praṇamāmyaham॥9॥
phalaśruti
iti vyāsamukhodgītaṃ yaḥ paṭhetsusamāhitaḥ।
divā vā yadi vā rātrau vighnaśāntirbhaviṣyati॥10॥
naranārīnṛpāṇāṃ ca bhavedduḥsvapnanāśanam।
aiśvaryamatulaṃ teṣāmārogyaṃ puṣṭivardhanam॥
graha
grahanakṣatrajāḥ pīḍāstaskarāgnisamudbhavāḥ।
tāḥ sarvāḥ praśamaṃ yānti vyāso brūte na saṃśayaḥ॥
॥ iti śrīvyāsaviracitaṃ navagrahastotraṃ sampūrṇam॥
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