धर्मस्वामी विवेकानंद

पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद

“पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर” को “भारत में विवेकानंद” पुस्तक से लिया गया है। इस पुस्तक को “कोलम्बो से अल्मोड़ा तक” नाम से भी प्रकाशित किया गया है। स्वामी जी ने इस व्याख्यान में बताया है कि धर्म ही भारतीय जीवन का मूल है। यह हमारा दायित्व है कि हम समस्त संसार तक इसका प्रकाश पहुँचा दें। पढ़ें पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर हिंदी में–

स्वामी विवेकानंद जी के पाम्बन पहुँचने पर रामनाद के राजा ने उनसे भेंट की तथा बड़े स्नेह एवं भक्ति से उनके हार्दिक स्वागत का प्रबन्ध किया। जिस घाट पर स्वामीजी की नाव आकर लगी थी, वहाँ औपचारिक स्वागत के लिए बड़ी तैयारियाँ की गयी थीं तथा सुरुचि के साथ सज्जित मण्डप के नीचे उनके स्वागत का आयोजन किया गया था।

उस अवसर पर पाम्बन की जनता की ओर से स्वामीजी की सेवा में निम्नलिखित मानपत्र पढ़ा गया:

स्वामी विवेकानंद को पांबन में दिया गया मानपत्र

परमपूज्य स्वामीजी,

आज हम अत्यन्त कृतज्ञतापूर्वक तथा परम श्रद्धा के साथ आपका स्वागत करते हुए अत्यन्त उल्लसित हैं। हम आपके प्रति कृतज्ञ इसलिए हैं कि आपने अपने कितने ही आवश्यक कार्यों के बीच कुछ समय निकालकर हमारे यहाँ आना कृपापूर्वक इतनी तत्परता के साथ स्वीकार किया। आपके प्रति हमारी परम श्रद्धा है – क्योंकि आपमें अनेकानेक महान् सद्गुण हैं, तथा आपने एक महान् कार्य का दायित्व ग्रहण किया है जिसको आप इतनी योग्यता, दक्षता, उत्साह एवं लगन के साथ सम्पादित कर रहे हैं।

हमें वास्तव में यह देखकर बड़ा हर्ष होता है कि आपने पाश्चात्य लोगों के उर्वर मस्तिष्क में हिन्दू दर्शन के सिद्धान्तों के बीजारोपण के जो प्रयत्न किये हैं वे इतने अधिक सफल हुए हैं कि हमें अभी से अपने चारों ओर उनके अंकुरित होने, लहलहाने तथा फूलने-फलने के चिह्न स्पष्ट रूप से प्रतीत होने लगे हैं। हमारी आपसे अब इतनी ही प्रार्थना है कि आप अपने आर्यावर्त के इस निवासकाल में पाश्चात्य देशों की अपेक्षा तनिक अधिक यत्न करते हुए अपने देशवासी बन्धुओं के मानस को थोड़ा जागृत कर उन्हें विषादमय चिरनिद्रा से उठा दें तथा उन्हें उस सत्य का फिर स्मरण करा दें जिसे वे बहुत काल से भूले बैठे हैं।

स्वामीजी, आप हमारे आध्यात्मिक नेता हैं। हमारे हृदय आपके प्रति प्रगाढ़ स्नेह, अपूर्व श्रद्धा तथा उच्च श्लाघा से ऐसे परिपूर्ण है कि हमारे पास उन भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द भी नहीं हैं। हम दयालु ईश्वर से एक स्वर से यही हार्दिक प्रार्थना करते है कि वह आपको चिरजीवी करे जिससे कि आप हम लोगों का भला कर सकें तथा वह आपको ऐसी शक्ति दे जिसके द्वारा आप हम लोगों की सोयी हुई विश्वबन्धुत्व-भावना को फिर से जागृत कर सकें।

इस स्वागतभाषण के साथ राजासाहब ने अपनी ओर से व्यक्तिगत संक्षिप्त स्वागतभाषण भी दिया जो बड़ा ही हृदयस्पर्शी था। इसके अनन्तर स्वामीजी ने निम्नाशय का पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर दिया :

स्वामी विवेकानन्द द्वारा पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर

हमारा पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े बड़े महात्माओं तथा ऋषियों का जन्म हुआ है, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं, केवल यहीं, आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श का द्वार खुला हुआ है।

मैंने पाश्चात्य देशों में भ्रमण किया है और मैं भिन्न भिन्न देशों में बहुतसी जातियों से मिला-जुला हूँ; और मुझे यह लगा है कि प्रत्येक राष्ट्र और प्रत्येक जाति का एक न एक विशिष्ट आदर्श अवश्य होता है – राष्ट्र के समस्त जीवन में संचार करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण आदर्श; कह सकते हैं कि वह आदर्श राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ होती है। परन्तु भारत का मेरुदण्ड राजनीति नहीं है, सैन्यशक्ति भी नहीं है, व्यावसायिक आधिपत्य भी नहीं है और न यान्त्रिक शक्ति ही है, वरन् है धर्म। केवल धर्म ही हमारा सर्वस्व है और उसी को हमें रखना भी है। आध्यात्मिकता ही सदैव से भारत की निधि रही है। इसमें कोई शक नहीं कि शारीरिक शक्ति द्वारा अनेक महान् कार्य सम्पन्न होते हैं और इसी प्रकार मस्तिष्क की अभिव्यक्ति भी अद्भुत चीज है, जिससे विज्ञान के सहारे तरह तरह के यन्त्रों तथा मशीनों का निर्माण होता है, फिर भी जितना जबरदस्त प्रभाव आत्मा का विश्व पर पड़ता है उतना किसी का नहीं।

भारत का मेरुदण्ड राजनीति नहीं है, सैन्यशक्ति भी नहीं है, व्यावसायिक आधिपत्य भी नहीं है और न यान्त्रिक शक्ति ही है, वरन् है धर्म।

स्वामी विवेकानंद, पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर (भारत में विवेकानंद)

भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतवर्ष सदैव से अत्यधिक क्रियाशील रहा है। आज हमें बहुतसे लोग जिन्हें और अधिक जानकारी होनी चाहिए, यह सिखा रहे हैं कि हिन्दू जाति सदैव से भीरु तथा निष्क्रिय रही है और यह बात विदेशियों में एक प्रकार से कहावत के रूप में प्रचलित हो गयी है। मैं इस विचार को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता कि भारतवर्ष कभी निष्क्रिय रहा है। सत्य तो यह है कि जितनी कर्मण्यता हमारे इस पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में रही है उतनी शायद ही कहीं रही हो और इस कर्मण्यता का सब से बड़ा प्रमाण यह है कि हमारी यह चिर प्राचीन एवं महान् हिन्दू जाति आज भी ज्यों की त्यों जीवित है – और इतना ही नहीं बल्कि अपने उज्ज्वलतम जीवन के प्रत्येक युग में वह मानो अविनाशी और अक्षय नवयौवन प्राप्त करती है। यह कर्मण्यता हमारे यहाँ धर्म में प्रकट होती है। परन्तु मानवप्रकृति में यह एक विचित्रता है कि वह दूसरों का विचार अपनी ही क्रियाशीलता के प्रतिमानों के आधार पर करता है। उदाहरणार्थ, एक मोची को लो। उसे केवल जूता बनाने का ही ज्ञान होता है और इसलिए वह यह सोचता है कि इस जीवन में जूता बनाने के अतिरिक्त और दूसरा कोई काम ही नहीं है। इसी प्रकार एक ईंट ढालनेवाले को ईंटे बनाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझता तथा अपने जीवन में दिन-प्रतिदिन वह यही सिद्ध करता रहता है। इस सब का एक दूसरा कारण है जिससे इसकी व्याख्या की जा सकती है। जब प्रकाश का स्पन्दन बहुत तेज होता है और उसे हम नहीं देख पाते हैं, क्योंकि हमारे नेत्रों की बनावट कुछ ऐसी होती है कि हम अपनी साधारण दृष्टिशक्ति के परे नहीं जा सकते हैं। परन्तु योगी अपनी आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि से साधारण अज्ञ लोगों के भौतिक आवरण को भेदकर देखने में समर्थ होते हैं।

आज तो समस्त संसार आध्यात्मिक खाद्य के लिए भारतभूमि की ओर ताक रहा है, और भारत को ही यह प्रत्येक राष्ट्र को देना होगा। केवल भारत में ही मनुष्यजाति का सर्वोच्च आदर्श प्राप्य है और आज कितने ही पाश्चत्य पण्डित हमारे इस आदर्श को, जो हमारे संस्कृत साहित्य तथा दर्शनशास्त्रों में निहित हैं, समझने की चेष्टा कर रहे हैं। सदियों से यही आदर्श भारत की एक विशेषता रही है।

जब से इतिहास का आरम्भ हुआ है, कोई भी प्रचारक भारत के बाहर हिन्दू सिद्धान्तों और मतों का प्रचार करने के लिए नहीं गया, परन्तु अब हममें एक आश्चर्यजनक परिवर्तन आ रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, “जब जब धर्म की हानि होती है तथा अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब साधुओं के परित्राण, दुष्कर्मों के नाश तथा धर्मसंस्थापन के लिए मैं जन्म लेता हूँ।”1 धार्मिक अन्वेषणों द्वारा हमें इस सत्य का पता चलता है कि उत्तम आचरणशास्त्र से युक्त कोई भी ऐसा देश नहीं है, जिसने उसका कुछ न कुछ अंश हमसे न लिया हो, तथा कोई भी ऐसा धर्म नहीं है, जिसमें आत्मा के अगीतामरत्व का ज्ञान विद्यमान है, और उसने भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वह हमसे ही ग्रहण नहीं किया है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जितनी डाकाजनी, जितना अत्याचार तथा दुर्बल के प्रति जितनी निर्दयता हुई है उतनी संसार के इतिहास में शायद कभी भी नहीं हुई। प्रत्येक व्यक्ति को यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि जब तक हम अपनी वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक हमारी किसी प्रकार मुक्ति सम्भव नहीं, जो मनुष्य प्रकृति का दास है, वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। यह महान् सत्य आज संसार की सब जातियाँ धीरे धीरे समझने लगीं हैं, तथा उसका आदर करने लगी हैं। जब शिष्य इस सत्य की धारणा के योग्य बन जाता है तभी उस पर गुरु की कृपा होती है। ईश्वर अपने बच्चों की फिर असीम कृपापूर्वक सहायता करता है और उसकी यह कृपा सभी धर्ममतों में सदा प्रवाहित रहती है। हमारे प्रभु सब धर्मों के ईश्वर हैं। यह उदार भाव केवल भारतवर्ष में ही विद्यमान है और मैं इस बात को चुनौती देकर कहता हूँ कि ऐसा उदार भाव संसार के अन्यान्य धर्मशास्त्रों में कोई दिखाए तो सही।

ईश्वर के विधान से आज हम हिन्दू बहुत कठिन तथा दायित्वपूर्ण स्थिति में हैं। आज कितनी ही पाश्चात्य जातियाँ हमारे पास आध्यात्मिक सहायता के लिए आ रही हैं। आज भारत की सन्तान के ऊपर यह महान् नैतिक दायित्व है कि वे मानवीय अस्तित्व की समस्या के विषय में संसार के पथप्रदर्शन के लिए अपने को पूरी तरह तैयार कर लें। एक बात यहाँ पर ध्यान में रखने योग्य है – जहाँ अन्य देशों के अच्छे और बड़े बड़े आदमी भी स्वयं इस बात का गर्व करते हैं कि उनके पूर्वज किसी एक बड़े डाकुओं के गिरोह के सरदार थे जो समय समय पर अपनी पहाड़ी गुफाओं से निकलकर बटोहियों पर छापा मारा करते थे; वहाँ हम हिन्दू लोग इस बात पर गर्व करते हैं कि हम उन ऋषि तथा महात्माओं के वंशज हैं जो वन के फल-फूल के आहार पर पहाड़ों की कन्दराओं में रहते थे तथा ब्रह्मचिन्तन में मग्न रहते थे। भले ही आज हम अधःपतित और पदभ्रष्ट हो गये हों और चाहे जितने भी क्यों न गिर गये हों, परन्तु यह निश्चित है कि आज यदि हम अपने धर्म के लिए तत्परता से कार्य करने लग जाएँ तो हम अपना गौरव प्राप्त कर सकते हैं।

आज यदि हम अपने धर्म के लिए तत्परता से कार्य करने लग जाएँ तो हम अपना गौरव प्राप्त कर सकते हैं।

स्वामी विवेकानन्द, पाम्बन-अभिनन्दन का उत्तर (भारत में विवेकानंद)

तुम सब ने मेरा स्नेह और श्रद्धापूर्वक जो यह स्वागत किया है उसके लिए मैं तुमको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। रामनाद के राजासाहब का मेरे प्रति जो प्रेम है उसका आभार-प्रदर्शन मैं शब्दों द्वारा नहीं कर सकता। मैं कह सकता हूँ कि मुझसे अथवा मेरे द्वारा यदि कोई श्रेष्ठ कार्य हुआ है तो भारतवर्ष उसके लिए राजासाहब का ऋणी है; क्योंकि मेरे शिकागो जाने का विचार सब से पहले राजासाहब के ही मन में उठा था, उन्होंने वह विचार मेरे सम्मुख रखा तथा उन्होंने ही इसके लिए मुझसे बार बार आग्रह किया कि मैं शिकागो अवश्य जाऊँ। आज मेरे साथ खड़े होकर अपनी स्वाभाविक लगन के साथ वे मुझसे यही आशा कर रहे हैं कि मैं अधिकाधिक कार्य करता जाऊँ। मेरी तो यही इच्छा है कि हमारी प्रिय मातृभूमि में लगन के साथ रुचि लेनेवाले तथा उसकी आध्यात्मिक उन्नति के निमित्त यत्नशील ऐसे आधे दर्जन राजा और हों।


  1. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ गीता ४।७॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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