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पंचतंत्र की कहानी – न कोई छोटा, न कोई बड़ा

“न कोई छोटा, न कोई बड़ा” पंचतंत्र की पिछली कहानी बुजदिल मत बनो को आगे बढ़ाती है। इस रोचक कहानी में बताया गया है कि किसी भी इंसान को–चाहे वह छोटा हो या बड़ा–कभी नीचा नहीं दिखाना चाहिए। शेष कहानियां पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – पंचतंत्र की कहानियां

वर्धमान नगर में एक सेठ दन्तिल रहता था, जो गांव का मुखिया भी था। दन्तिल समाजसेवी और अच्छे स्वभाव का व्यक्ति था। उसे दुखियों एवं गरीबों से बड़ी हमदर्दी थी। यही कारण था कि राजा और जनता दोनों की नजरों में अच्छा माना जाता था।

राजा का हित करने वाला जनता में अच्छा नहीं माना जाता और जनता का पक्षपात करने वाले को राजा लोग अच्छा नहीं मानते। इस प्रकार राजा और प्रजा के बीच में कोई-कोई व्यक्ति ही अपने-आपको दोनों की नजरों में अच्छा सिद्ध कर पाता है।

इस प्रकार कुछ समय बीतने पर दन्तिल का विवाह हुआ। उस खुशी के अवसर पर उसने सभी नगरवासियों और राज कर्मचारियों को प्यार से निमन्त्रण भेजकर भोजन कराया। विवाह के पश्चात् उसने राजा को परिवार सहित घर में बुलाकर उनको भोज करवाया। उस अवसर पर आए हुए राजगृह की सफाई करने वाले गोरम्भ नामक एक नौकर को अनुचित स्थान पर बैठे होने के कारण उसे धक्का देकर निकाल दिया। तब से नौकर अपमान के कारण लम्बी-लम्बी सांसे लेता हुआ रात में भी नहीं सोया था।

कई रातों तक बेचारा नौकर यही सोचता रहा कि मैं अपने इस अपमान का बदला सेठ और राजा से कैसे चुकाऊं। इस शरीर को सुखाने से क्या लाभ, मुझे तो जितनी जल्दी हो सके उनसे बदला लेना होगा। किसी ने ठीक ही कहा है–

जो किसी का कुछ बिगाड़ सकने में असमर्थ हो, वह निर्लज्ज मनुष्य क्यों क्रोध करता है?

क्या उछल-कूद करके कोई चना भाड़ को फोड़ सकता है? एक रात राजा पलंग पर लेटे हुए थे, जब वह गोरम्भ वहां की सफाई कर रहा था। अपने आप बोलने लगा–

“अरे, उस दन्तिल की यह मजाल कि वह रानी का आलिंगन करे।”

राजा जो उस समय पलंग पर लेटा हुआ था, गोरम्भ के मुंह से यह शब्द सुनकर उठकर बैठ गया और गोरम्भ से पूछने लगा, “अरे गोरम्भ! क्या जो कुछ तू कह रहा है, यह ठीक है?”

राजन्! वास्तव यह बात है कि रात-भर मैं भजन करता रहा, जिसके कारण नींद पूरी नहीं हुई। अब सफाई करते-करते मेरी आंख लग गई। मुझे नहीं पता कि नींद में ही मैं क्या कुछ कह गया।

राजा ने नौकरों की बात सुनी जरूर लेकिन उसे संदेह हुआ। उसे यह पता था कि यह ही एक नौकर है जो खुलेआम मेरे महलों में आता-जाता है। इसी प्रकार दन्तिल भी आ जाता है। इसने जो रानी का आलिंगन करने की बात कही है, यह किसी हद तक ठीक हो सकती है। यह बात झूठ नहीं हो सकती।

प्राणी दिन में जो चाहता (सोचता) देखता अथवा करता है, वही नींद में बड़बड़ाया करता है और भी अच्छी बुरी बात जो मनुष्य के दिल में रहती है, वह नींद या नशे की हालत में अपने आप ही बाहर आ जाती है।

और रह गई स्त्रियों की बात, इनके दिल की गहराई में झाँकना बड़ा कठिन है।

“लकड़ी से आग की, नदियों से सागर की, पुरुषों से स्त्रियों की – कभी भी तृप्ति नहीं होती।”

जो मूर्ख पुरुष यह समझता है कि यह मेरी स्त्री मुझसे प्रेम करती है, वह उसके फंदे में सदा पक्षी की भांति फंसा रहता है। जो औरतों के थोड़े बहुत कैसे ही वचनों या छोटे-बड़े कैसे ही कार्यों को मानता है, वह लोक में उन कार्यों द्वारा लघुता को प्राप्त होता है ।

औरतों की जो भी सेवा करता है और पास में रहता है, प्यार से बोलता है, उसी को वे चाहने लगती हैं।

पुरुषों के द्वारा न चाहे जाने पर परिवार वालों के भय से मर्यादा में न रहने वाली औरतें भी सदा सती धर्म में स्थिर रहती हैं।

औरतों के लिए कोई भी अगम्य नहीं, न ही इनकी आयु का विचार होता है, चाहे कोई विशेष सुन्दर हो चाहे मामूली, यह तो पुरुष मात्र का भोग करती हैं।

औरतों का प्रेमी साड़ी के समान भोग्य प्रिय हो जाता है।

वही सब बातें सोचकर राजा शंका के सागर में डूब गया था। वह उदास रहने लगा। यहां तक की उसने राज-दरबार के कामों में भी रुचि लेना छोड़ दिया था। दन्तिल एकदम राजा को उदास देखकर सोचने लगा कि यह ठीक ही कहा जाता है–

धन पाकर कौन गर्व नहीं करता? किस विषयों के दुःख समाप्त हुए? धरती पर औरतों द्वारा किसका दिल नहीं तोड़ा गया? राजा का प्यारा कौन है? क्रूर काल की नजर किस नहीं पड़ी (कोई नहीं)।

कौवे में शुद्धता, जुए में सत्यता, सर्प में क्षमा, औरतों में विषय शांति, नपुंसक में धीरता, शराबी में चिन्ता अथवा अच्छे विचार और राजा मित्र किसने देखा या सुना है (किसी ने नहीं)।

मैंने आज तक इस राजा या इसके सम्बन्धी का अपमान नहीं किया, फिर यह मुझसे इस प्रकार क्यों रूठा रहता है। मेरे पास क्यों नहीं आता-जाता। मुझे कभी नहीं बुलवाता। इस प्रकार बहुत दुःखी होकर दन्तिल एक दिन राज दरबार की ओर चल पड़ा।

द्वारपाल के पास खड़े दन्तिल को देखकर गोरम्भ हँसकर द्वारपाल से कहने लगा–

द्वारपाल जी! राजा जी के कृपापात्र दन्तिल जी आपके पास खड़े हैं। यह जिसे चाहें जेल भिजवा दें, जिसे चाहें भरी महफिल से धक्के देकर बाहर निकलवा दें। जरा इनसे बचकर रहना। कहीं आप भी न निकलवा दिए जाओ।

गोरम्भ के मुंह से यह शब्द सुनकर दन्तिल ने सोचा कि कहीं यह सब बदमाशी इसी गोरम्भ की ही न हो? किसी ने ठीक ही कहा है। चाहे कोई मूर्ख और छोटा ही क्यों न हो, वह यदि राजा की सेवा करता है तो वह छोटा होते हुए भी बड़ा माना जाएगा। चाहे कोई बुजदिल क्यों न हो, यदि वह राजा का सेवक है तो उसे किसी से भी नीचा नहीं देखना पड़ता।

दन्तिल सब बात समझ गया था। मन-ही-मन पश्चाताप करते हुए वह घर पर आया, फिर उसने गोरम्भ को अपने घर बुलाकर उसे कुछ वस्त्र और रुपये इनाम के रूप में देकर कहा – हे मित्र, मैंने उस दिन तुम्हें जान-बूझकर धक्का दिया था, क्योंकि तुम ब्राह्मणों से पहले स्थान पर बैठ गए थे। इसलिए मैंने ऐसा काम किया। मैं आपसे क्षमा चाहूंगा। आज से हम दोनों मित्र हैं। हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है। सच तो यह है कि न कोई छोटा, न कोई बड़ा होता है। बस तुम मेरे प्रिय मित्र राजा की ओर देखो।

गोरम्भ इस बात से काफी खुश हुआ, क्योंकि विजय उसकी हुई थी। उसके जाने के पश्चात् दन्तिल सोचने लगा – तराजू की डंडी और दुष्ट की एक ही चेष्टा होती है, जो जरा से में ऊपर हो जाती है, जरा से में नीचे चली जाती है।

उधर गोरम्भ दन्तिल से धन, वस्त्र और प्यार पाकर खुशी से फूला नहीं समा रहा था। अब उसे अपनी भूल पर रोना आ रहा था। उसने निर्णय कर लिया था कि मैं अब इन दोनों मित्रों के बीच से नफरत की दीवार गिरा दूंगा। बस फिर क्या था।

दूसरी सुबह जैसे ही गोरम्भ राजा के महल में झाड़ू लगाने गया तो अपने-आप ही कहने लगा–

“वाह रे! इस राजा की मूर्खता, जो मल त्याग करते समय ककड़ी खाता है।”

राजा ने जैसे ही ये शब्द सुने, तो हैरानी से उठते हुए अपने नौकर की ओर देखकर बोला, “अरे ओ, तू यह क्या बक रहा है? क्या तूने मुझे कभी भी ऐसा करते देखा है?”

गोरम्भ ने हाथ जोड़ते हुए कहा – महाराज, मैं रात-भर भजन-कीर्तन करता रहा था। बस झाड़ू लगाते-लगाते आंख लग गई। बस नींद में ही सब कुछ बक गया। मुझे माफ कर देना।

राजा गोरम्भ की बात सुनकर उस दिन की भी बात सोचने लगा, क्योंकि उसे पता था कि मैंने तो आज तक कभी ककड़ी खाई ही नहीं, तो फिर इसने कैसे यह बात कह दी। इसी प्रकार इसने नींद में वही रानी वाली झूठी बात कही होगी।

राजा सारी बात समझ गया। वह अपनी भूल पर पश्चाताप करने लगा। उसके सारे वहम दूर हो गए थे। उसने दूसरे ही दिन दन्तिल को अपने पास बुलाकर उसे प्यार से अपने गले से लगा लिया। इस प्रकार दोनों मित्र फिर से मिल गए थे।

दमनक की बात सुनकर बैल बोला – ठीक है मित्र, जैसा तुम कहोगे मैं वैसा ही करूंगा । उसकी बात सुनते ही दमनक उसे लेकर शेर के पास आ गया।

देखो महाराज! यह संजीवक है। मैं इसे आपके पास ले आया हूं। इससे अधिक मेरी वफादारी का सबूत और क्या हो सकता है। संजीवक (बैल) बड़े आदर से शेर को प्रणाम करके उसके निकट जाकर बैठ गया। पिंगलक ने भी उसे प्यार से उत्तर दिया और फिर पूछा – अरे भाई! तुम इस वन में कैसे आ गए?

बैल बेचारा सीधा-सादा था। उसने आरम्भ से लेकर अब तक की सारी कहानी शेर को सुना दी कि उसके मालिक ने उसे किस प्रकार धक्का देकर इस जंगल में छोड़ दिया था।

संजीवक की सारी कहानी सुनकर शेर को उसके साथ बड़ी हमदर्दी हो गई। उसने कहा–

देखो मित्र, तुम आज से मेरे साथी ही नहीं भाई हो। आज से तुम अकेले नहीं बल्कि मेरे साथ ही रहोगे। क्योंकि यह जंगल मांसखोर जानवरों के लिए भी सुरक्षित नहीं। तुम तो फिर भी घास खाने वाले हो।

बैल शेर की बात सुनकर बहुत खुश हो गया था। उसे पहली बार सच्चा मित्र मिला था खुशी के मारे उसकी आँखों से आँसू निकल आए थे। उस समय उसे अपना स्वार्थी मालिक भी याद आ रहा था, जो उसका पांव तोड़कर जगल में फेंक गया था। कितने लम्बे समय तक वह अकेले जंगल में घूमता रहा था। अकेले समय काटना बड़ा कठिन है। जिसका कोई मित्र न हो, वह बेचारा क्या करे?

इस प्रकार से बैल अपने नये मित्रों को पाकर अत्यन्त खुश हुआ। सबसे अधिक खुशी की बात तो यह थी कि जंगल के राजा शेर के साथ उसकी दोस्ती हो गयी थी। अब तो वह चिन्ता-मुक्त इस जंगल में रहने लगा था। उसे सबसे अधिक प्यार करटक और दमनक से था, क्योंकि इन दोनों के कारण तो वह शेर तक पहुंच पाया था। यही कारण था कि इन तीनों की मित्रता दिन-प्रति-दिन बढ़ती चली जा रही थी और जानवरों से दूर रहकर यह तीनों मित्र घंटों तक आपस में बातें करते रहते।

दूसरी ओर जंगल का राजा शेर था। उसने भी धारे-धीरे बैल से इतना प्यार बढ़ा लिया था कि उसे एक मिनट के लिए उस संजीवक से दूर रहना कठिन होने लगा। किन्तु शेर और बैल की मित्रता करटक और दमनक के लिए भारी पड़ने लगी थी। वे दोनों नहीं चाहते थे कि उनका मित्र बैल हर समय शेर के साथ घूमता रहे। आखिर सबसे पहले तो वह उनका ही मित्र था। फिर वे दोनों राजा के बिना भी तो जंगल में शिकार को नहीं जा सकते थे, कहा गया है कि–

यदि अच्छा और प्रभावशाली राजा भी फलहीन हो, तो लोग उसे छोड़कर उसी प्रकार दूसरी जगह चले जाते हैं जिस प्रकार सूखे वृक्ष से पंछी उसे छोड़कर चले जाते हैं। वेतन न मिलने पर बड़े-बड़े वफादार नौकर भी उस राजा को छोड़ कर चले जाते हैं, जो उनसे हार्दिक प्यार करता हो। जो राजा ठीक समय पर अपने नौकरों को वेतन देता हो, उसकी घृणा, डांट डपट को भी नौकर भूल जाते हैं।

इस प्रकार से न केवल नौकर और मालिक, बल्कि सारा संसार ही एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इस लड़ी में साम, दाम, दंड की माला बनी हुई है। देश पर राजा, बीमार पर वैद्य, ग्राहक पर दुकानदार, मूर्खों पर पण्डित, आलसी जनों पर चोर, कामियों पर वेश्या और सब लोगों पर कारीगर सामादि से सज्जित पाशों से दिन रात दृष्टि जमाए रखते हैं। जिस प्रकार पानी से पैदा होने वाले पदार्थ बादलों की प्रतीक्षा करते रहते हैं, वे सब एक-दूसरे की शक्ति से जीते हैं अथवा ठीक ही कहा जाता है, सर्पी दुष्टों और दूसरों का धन हरण करने वालों के अभिप्राय सिद्ध नहीं होते। इसी लिए यह जगत वर्तमान हैं, अन्यथा कभी का नष्ट हो गया होता।

आम आदमी की तो बात ही क्या कहें, भगवान शंकर के घर में ही उन्हीं का सेवक भूखा सर्प उनके पुत्र गणेश के वाहन को ही खाना चाहता है। मोर को भी पार्वती जी का वाहन शेर खाना चाहता है। जब भगवान शंकर के घर में ही यह हाल है कि वे एक-दूसरे को खा जाना चाहते हैं तो फिर संसार के बाकी स्थानों पर ऐसा क्यों नहीं होगा।

तब मालिक की दया से वंचित, भूख और प्यास से व्याकुल वे दोनों करटक और दमनक आपस में बैठकर सलाह करने लगे।

दमनक ने अपने मित्र से कहा – भाई, अब यह शेर बैल की दोस्ती में सब कुछ भूल गया है। धीरे-धीरे इसके सभी साथी इसे छोड़कर चले गए हैं। आखिर कब तक कोई भूखा मरेगा? जब राजा को प्रजा का ख्याल न हो तो प्रजा भी कहां तक साथ देगी। अब तो हमें भी सोचना पड़ेगा कि हम क्या करें?

भाई, यदि हमारा मालिक हमारा कहना नहीं मानता, तो हमें उससे कहना ही चाहिए। ताकि लोग हमें दोषी न कहें। इसके लिए ही कहा गया है–

राजा चाहे न सुनता हो तो भी उसे मंत्रियों द्वारा समझाना चाहिए, जैसे कि अपने दोष से बचने के लिए विदुर ने अम्बिका-पुत्र धृतराष्ट्र को समझाया था। मदोन्मत्त राजा व हाथी कुमार्ग में जाने पर उनके समीपस्थ महामन्त्री और महावत ही निन्दित होते हैं।

और घासाहारी बैल को जो तुम मालिक के पास ले गए हो, तो तुमने अपने हाथों में अंगार खींच लिया है।

“भाई, मैं यह मानता हूँ कि यह सारा दोष मेरा ही है। इसमें मालिक का कोई दोष नहीं है।”, दमनक ने कहा।

लेकिन सोचने की बात तो यह है कि इस स्थिति में हम दोनों को क्या करना चाहिए।

करटक भाई, तुम चिन्ता मत करो। ऐसे अवसर पर भी मेरी बुद्धि काम करेगी। इसी बुद्धि ने बैल को शेर तक पहुंचाया था। अब यही शेर से बैल को अलग कर देगी। लोग कहते हैं कि धनुष से निकला तीर एक ही व्यक्ति को मारता है और नहीं भी मारता, लेकिन बुद्धिमान की बुद्धि राजा सहित सारे राज्य को नष्ट देती है। सो मैं अपनी नई चाल से इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कर दूंगा।

भाई दमनक, एक बात याद रखना। यदि तुम्हारी इस चाल का शेर और बैल दोनों में से किसी को पता चल गया, तो समझ लो हमारी जान की खैर नहीं।

ऐसी बात मत कहो, मित्र! मुसीबत के समय तो बड़े-बड़े लोगों की बुद्धि काम करने लगती है। अब तो हम दोनों ही अकेले पड़ गए हैं। यदि हमने हिम्मत से काम न लिया, तो वैसे भी हमारा क्या जीना है। वैसे तो याद रखो–

उद्योगी को ही सदा लक्ष्मी मिलती है। भाग्य का सहारा तो केवल बुजदिल लोग लेते हैं। यत्न करने पर भी यदि कार्य सिद्ध न हो, तो कोई दोष नहीं। कहा गया है–

जो काम तरीके से हो सकता है, वह शक्ति से नहीं। कौव्वी ने सोने की लड़ी द्वारा काला सांप मार दिया।

“वह कैसे, भैया!”

“सुनो, मैं तुम्हें सुनाता हूं – शत्रु को तरकीब से मारो।”

One thought on “पंचतंत्र की कहानी – न कोई छोटा, न कोई बड़ा

  • Amit kumar Shiva

    यह कहानी बहुत ही रोचक लगा

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