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पंचतंत्र की कहानी – शत्रु को तरकीब से मारो

“शत्रु को तरकीब से मारो” पंचतंत्र की बेहद दिलचस्प कहानी है। यह पिछली कथा न कोई छोटा, न कोई बड़ा के आगे की कहानी है। इसमें बताया गया है कि शत्रु को बल से हराने की बजाय बुद्धि से हराना अधिक श्रेष्ठ है। अन्य कहानियां पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – पंचतंत्र की कहानियां

किसी स्थान पर एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। उसमें एक कौवा और कौवी रहते थे। दोनों पति-पत्नि में बड़ा प्रेम था। इस प्रकार ही उनका जीवन व्यतीत हो रहा था। जब भी वे अण्डे देते थे तो एक काला सांप वृक्ष की जड़ में से निकलकर उनके अण्डों को खा जाता था।

दोनों पति-पत्नी सांप के हाथों बहुत ही दुःखी हो गये थे। दोनों का मन बहुत उदास रहता था। आखिर औलाद का दुःख किसे नहीं होता। कौवे का एक मित्र पास वाले वन में रहता था। वह मित्र था गीदड़। उसने अपने इस गीदड़ मित्र के पास जाकर अपना सारा दुःख कह सुनाया।

गीदड़ ने बड़े धैर्य से अपने मित्र की दुःख भरी कहानी सुनी। उसे पता था, जिसका खेत नदी के किनारे हो, जिस गांव के किनारे सांप रहता हो, उसके निवासियों को हर समय डर ही रहता है। फिर भी तुम मेरे मित्र हो। मैं तुम्हें निराश और उदास नहीं होने दूंगा। मैं गीदड़ हूं, मेरा दिमाग शैतान के दिमाग से कम नहीं। देखो, मैं उसे बिना किसी उपाय के ही मार डालूंगा।

क्योंकि सदैव शत्रु को तरकीब से मारो – शत्रु जिस प्रकार तीव्र बुद्धि से मारा जा सकता है, वैसे शस्त्रों से नहीं। छोटे शरीर वाला यदि कोई दांव-पेच जानता है, तो वह बड़े शरीर वाले शक्तिशाली को भी हरा सकता हैं। जैसे छोटी-बड़ी मछलियों को खाने वाला बगुला अत्यन्त लालच के कारण एक छोटे केंकड़े की पकड़ से मारा गया।

“वह कैसे?”, कौवा-कौवी दोनों एक साथ बोल पड़े थे। गोदड़ बोला, सुनो–

चालाक बगुला

एक जंगल में अनेक प्रकार के जल-जन्तुओं से भरा तालाब था। वहां पर रहने वाला एक बगुला बूढ़ा होने के कारण मछलियों को मारने में भी असमर्थ हो गया। वह बेचारा तालाब के किनारे बैठा रो रहा था। उसे इस प्रकार रोते देखकर एक केकड़े को बहुत दुःख हुआ। उसके आंसू देखकर उसे दया आ गई। वह बगुले के पास जाकर बोला–

“मामा जी, आज तुम भोजन क्यों नहीं करते, इस प्रकार रो क्यों रहे हो?”

बगुला बोला, “तुम ठीक कह रहे हो बेटे। मैं वास्तव में ही दुःखी हूं! लेकिन मेरे दुःख का कारण यह नहीं जो तुम समझ रहे हो।”

“और क्या कारण है?”

“मैं तो केवल उपवास कर रहा हूं। क्योंकि मैंने बहुत ही पाप किये हैं, इसलिए अपने इन पापों का पश्चाताप कर रहा हूं। इसीलिए मैं पास आई हुई मछली को भी नहीं खाता।”

“मैं आपके इस पश्चाताप का कारण नहीं समझा”, केकड़ा बोला।

“बेटे, मैं इस तालाब के किनारे ही पैदा हुआ। यहीं पर पलकर जवान हुआ। यहीं पर बूढ़ा हुआ। इसलिए मुझे यहां की हर चीज से प्यार है। अब जब मैंने यह सुना कि बारह वर्ष तक बारिश नहीं होगी तो…।”

“किससे सुना है आपने?”

“एक ज्योतिषी के मुंह से, उसने कहा कि शनिवार और रोहिणी शकट को भेदकर, भौम (मंगल) और शुक्र के पास जाएगा और वराहमिहिर ने कहा है–

यदि शनि ग्रह रोहिणी के शकट का इस लोक में भेद न करे तो बारह वर्ष तक बादल धरती पर नहीं बरसते और भी…।

प्रजा सत्य शकट (रोहिणी नक्षत्र) के भेदे जाने पर मानो धरती यह पाप करके भस्म और अस्थि के टुकड़ों से परिपूर्ण कापालिक का सा व्रत धारण करती है, और…।

यदि शनि, मंगल अथवा चन्द्र, रोहिणी शकट का भेद न करें तो मैं क्या कहूं। यह तो सब जानते हैं कि इससे सारा संसार नाश हो जाता है। रोहिणी शकट के मध्य में चांद के स्थित होने पर शरणहीन होकर कहीं भी जाएं, उन्हें शरण नहीं मिल पाती और न ही कुछ खाने-पीने को मिलता है। बस इसी कारण वे लोग बच्चों का मांस खाने वाले बन जाते हैं और सूर्य के तेज से खौलते हुए पानी को मजबूर होकर पीते हैं।

और यह तालाब जिसमें पहले ही थोड़ा-सा पानी है, शीघ्र ही सूख जाएगा। इसके सूख जाने पर जिनके साथ मैं सदा से ही रहा हूं वे जल के न होने से सूख जाएंगे। मैं यह दुःख सहन नहीं कर पाऊंगा। इसीलिए मैंने उपवास किया है और रो रहा हूं। इस समय थोड़े पानी वाले सभी तालाबों के जन्तु बड़े-बड़े तालाबों की ओर ले जाए जा रहे हैं। अब कुछ ही दिनों में यहां पर सब कुछ समाप्त हो जाएगा।

केकड़ा उस बगुले से यह विनाश की कहानी सुनकर सब जन्तुओं के पास जाकर आने वाले विनाश की कहानी सुनाने लगा। उस कहानी को सुनते ही डर के मारे कांपते हुए मछलियां, कछुवे उस बगुले के पास आकर पूछने लगे, “मामा! क्या इस मौत से बचने का कोई रास्ता भी है?”

बगुला बोला, “इस तालाब के पास ही एक बड़ा तालाब है, जो २४ वर्ष तक वर्षा न होने पर भी सूखता नहीं है। सोचो, जो कोई मेरी पीठ पर चढ़ जाए मैं उसे उसी तालाब में छोड़ सकता हूं।” बगुले की बात सुनकर जन्तु बोल उठे–

“मामा! मुझे वहां ले चलो।”

हर कोई चाहता था कि पहले मैं वहां पर जाऊं। बस फिर क्या था, बगुले की चाल सफल हो गई थी। वह बारी-बारी कुछ जन्तुओं को अपनी पीठ पर लादता और एक चट्टान पर ले जाकर खा लेता।

इस प्रकार वह रोजाना ही इन जन्तुओं को खाने लगा और वहां से आकर दूसरे जन्तुओं को झूठ-मूठ की कहानी गढ़कर सुना देता। इस प्रकार बूढ़े बगुले ने चालाकी, झूठ, हेरा-फेरी से अपना धंधा जमा लिया। बेचारे जीव-जन्तुओं को क्या पता था कि धीरे-धीरे उनके साथी उस बगुले के पेट में जा रहे हैं।

केकड़ा बेचारा रोज ही बगुले से कहता कि मुझे भी उस तालाब में छोड़ आओ। मगर हर बार ही बगुला उसे छोड़ जाता और मछलियों को ले जाता। एक दिन केकड़े ने बगुले से पूछ ही लिया–

“मामा जी! आप मुझसे सबसे अधिक प्यार करते थे। लेकिन इस भयंकर मौत से बचाने के लिए आप मुझे यहाँ से निकालकर क्यों नहीं ले जाते।”

बगुला केकड़े की बात सुनकर सोचने लगा कि कहीं इस केकड़े को मेरी चालाकी का पता न लग जाए। फिर रोज-रोज मछलियां खाकर भी वह तंग आ गया था। केकड़े को खाने से जरा मुंह का स्वाद भी बदल जाएगा। यही सोचकर उस बगुले ने केकड़े से कहा, “चलो बेटा, आज तुम ही मेरे साथ चलो। आज तुम्हें भी किनारे लगाकर आता हूं।”

बस उस केकड़े को अपनी पीठ पर लादकर बगुला ले चला उस पहाड़ी की ओर। केकड़े बेचारे को क्या पता था कि उसके साथ ऐसा धोखा हो रहा है। देखते-ही-देखते उस केकड़े को उस पहाड़ी पर जा पटका।

“मामा जी! अभी वह तालाब कितनी दूर है। मेरे बोझ से आप थक गये होंगे।”

बगुला हंसा। उसे पता था यह मंदबुद्धि जल-जन्तु अब इस पहाड़ी पर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अब इससे डरने की क्या जरूरत है। उसने अपनी शेखी बघारते हुए कहा–

“बेटा, उस तालाब को अब भूल जा। उस तालाब की कहानी तो मैंने तुम लोगों को पागल बनाने के लिए गढ़ी थी। मैं तो अपना शिकार करता हूं। सीधे ढंग से शिकार तो मुझे मिलता नहीं था। मैंने अपनी तेज बुद्धि से यह रास्ता निकाल लिया।”

केकड़ा बड़ा होशियार था। उसे बगुले की चालाकी का पता चल गया।

वह जोर से चीखा, “मेरे मामा…”। यह कहते हुए वह बगुले के गले से लिपट गया। साथ ही उसने अपने दोनों दांत बगुले की गर्दन पर जोर से गाढ़ दिये।

“हाय! मैं मरा…।” बगुले के गले से अन्तिम चीख निकली। इसके पश्चात उसकी आवाज सदा के लिए बंद हो गई। उसकी कटी गर्दन को लेकर केकड़ा वापस उसी तालाब में अपने साथियों के पास आया। उसके साथियों ने उसे इस प्रकार वापस आते देखकर पूछा–

“भाई! तुम वापस क्यों आ गये। फिर उस मित्र को कहां छोड़ा जो हम सब की जान बचा रहा था।”

केकड़े ने हंसकर कहा, “अरे मूर्खों! वह बगुला तो सबसे बड़ा झूठा और धोखेबाज निकला। वह तो हमारे एक-एक साथी को धोखे से यहां से ले जाकर उस पहाड़ी पर बैठकर खा जाता था। आज मैंने उसकी यह चालाकी पकड़ ली और साथ ही उसे सदा के लिए शांत कर दिया। यदि आज मैं उसे ठिकाने न लगाता, तो वह एक-एक करके सबको खा जाता। यदि तुम्हें विश्वास नहीं तो देखो उस धोखेबाज की गर्दन, जिसे काटकर मैं साथ ले आया हूं।”

जल-जन्तु अपने साथी की तीव्र बुद्धि से शत्रु को मारने से बहुत खुश हुए।

कौवा उस केकड़े की कहानी सुनकर खुश हुआ और साथ ही बोला, “भाई, अब मुझे यह भी बताओ कि मैं उस साँप को कैसे समाप्त करूं।”

गीदड़ बोला, “शत्रु को तरकीब से मारो। तुम लोग किसी राजा की राजधानी में जाओ। वहां से एक सोने का हार चोरी करके लाओ और उसे सांप के बिल पर रख दो। जैसे ही सांप अपने बिल से बाहर निकलेगा, तो यह हार उसके गले में फंस जायेगा। बस, इसी तरीके से इस सांप को मारा जा सकता है।”

कौवा-कौवी गीदड़ की बात सुनते ही वहां से उड़ गये। उड़ते उड़ते वे एक ऐसे स्थान पर पहुंचे, जहाँ पर एक रानी नदी में स्नान कर रही थी। बस फिर क्या था। कौवी ने अपने पति की ओर इशारा किया।

उस समय कौवी ने अपना दांव मारा और उस हार को ले उड़ी। रानी ने जैसे ही अपने मोतियों के हार को इस प्रकार जाते देखा, तो उसने शोर मचा दिया।

रानी का शोर सुनते ही नौकरों की पूरी सेना उस कौवे कौवी के पीछे-पीछे भाग खड़ी हुई। कौवी उड़ने में बड़ी तेज थी। उसने जाते ही उस हार को सांप के बिल पर गिरा दिया।

जब तक रानी के नौकर वहां तक पहुंचते, तब तक वह काला सांप भी बिल से बाहर निकल आया था। जैसे ही रानी के नौकरों ने काले सांप को उस हार के बीच में देखा तो सब के सब उस पर टूट पड़े। देखते-ही-देखते सांप मारा गया। रानी के नौकर अपना हार लेकर चले गये।

कौवा-कौवी अपने इस भयंकर शत्रु के मारे जाने पर बहुत खुश हो गये। इससे साफ पता चलता है – शत्रु को तरकीब से मारो, बुद्धि से हराओ। बलवान से बुद्धिमान बड़ा होता है। देखो, जंगल में खरगोश ने मदोन्मत्त सिंह मार दिया।

“कैसे मारा?”, करटक ने पूछा।

यह सुनो– जो बुद्धिमान है, वही बलवान है

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