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पंचतंत्र की कहानी – विरोधी की चाल

विरोधी की चाल कथा वहाँ से शुरू होती है, जहाँ पंचतंत्र की पिछली कहानी नीला गीदड़ हमें छोड़ती है। यह कहानी बताती है कि यदि भोलेपन में विरोधी की चाल को अनदेखा किया जाए, तो ऐसा करना प्राण-घातक साबित हो सकता है। शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ – पंचतंत्र की कहानियां

किसी जंगल में एक शेर रहता था। वहीं पर बाघ, कौवा और गीदड़ उसके साथी थे। एक बार ये सब-के-सब जंगल में जा रहे थे, तो शेर ने एक ऊंट को ओर देखकर कहा, “अरे! यह कितना सुन्दर जानवर है। इससे जाकर पूछो कि यह जंगली है अथवा मैदानी।”

कौवा झट से बोला, “हे महाराज! यह ऊंट मैदानी है। इसका मांस बड़ा मजेदार होता है। इसे मारकर खा लीजिए।”

“मैं घर आए को नहीं मारता”, शेर ने कहा। इसके लिए तो कहा गया है–

भय न मानता हुआ यदि कोई शत्रु भी अपने पास आ जाये, उसे जो मारे उस पर ब्राह्मण की हत्या का पाप लगता है। इसलिए उसे सम्मान से मेरे पास ले आओ, ताकि मैं उसके यहां आने का कारण पूछ सकूं।

शेर के कहने पर वे लोग ऊंट को बड़े प्यार से समझा-बुझाकर उसके पास ले आये। उसके आते ही शेर ने पूछा–

“क्यों भाई! तुम इस जंगल में कैसे आ गये?”

“मित्र! मैं अपने साथियों से बिछड़ कर रास्ता भूल गया था”, ऊंट ने बड़े धैर्य से उत्तर दिया।

शेर उसकी बात से बहुत खुश हुआ। उसने ऊंट से कहा – देखो भाई, अब तुम नगर में मत जाओ। हम लोगों के साथ आज ही से रहो। यहीं पर हरी-हरी घास खाकर जीवन का भरपूर आनन्द लो। हम तुम्हारे साथ हैं।

शेर और उसके साथियों की बातों से ऊंट का दिल बहुत खुश हुआ। उसने दिल-ही-दिल में यह निर्णय कर लिया कि अब उस मालिक के पास नहीं जाएगा, जो दिन-रात बोझा उसकी पीठ पर लादकर स्वयं आनन्द लेता है। अब तो वह आज ही से इस जंगल में ही रहेगा। बस कुछ ही दिनों में आजाद वातावरण में रहने और मनपसंद खाने से, ऊंट तो खूब मोटा-ताजा हो गया।

कुछ ही दिनों में उस शेर का एक जंगली हाथी से युद्ध हुआ। उस युद्ध में शेर को काफी चोटें आयी थीं। उसके सारे शरीर में दर्द होने लगा। यहां तक कि वह एक कदम भी चलने से मजबूर था। तब तो वह भूख से व्याकुल जंगल में लेटा अत्यन्त दुःख पाने लगा। तब शेर ने कहा – भाई, कहीं से कोई शिकार ढूंढ़ों, जिससे मैं अपना पेट तो भर सकूं।

शेर की बात सुनकर कौवा, गीदड़, बाघ इधर-उधर घूमने लगे, पर शेर के बिना वे किसका शिकार कर सकते थे। घूम-घाम कर वापस आ गए। फिर एक स्थान पर बैठकर सोचने लगे कि आखिर शेर के लिए खाना कहां से लाएं।

गीदड़ ने कौवे से कहा – भाई, मेरे विचार में तो ऐसे संकट में हमें इस ऊंट को ही अपने राजा का शिकार बना देना चाहिए। आखिर यह यहां पर मुफ्त का खा-खाकर ही तो पल रहा है।

बात तो ठीक है भाई, पर तुझे यह पता होना चाहिए कि हमारे राजा ने इसे अपना मेहमान बनाया है और मित्र भी, वह कैसे इसे खाएंगे – कौवा गीदड़ की बात सुनकर बोला।

गीदड़ ने हंसते हुए कौवे के कान में कहा – यार, तुम इस बात की चिन्ता मत करो। मैं मालिक के सामने इस ढंग की बात करूंगा कि वह स्वयं ही कहेंगे कि यह ऊंट मेरा शिकार बने। बेवकूफ ऊंट होशियार विरोधी की चाल नहीं समझ पाएगा। तुम लोग यहीं पर ठहरो। मैं अभी मालिक से बात करके आ रहा हूं।

यह कहकर गीदड़ अन्दर मालिक के पास गया और जाते ही हाथ जोड़ कर बोला – महाराज, हमने सारा जंगल छान मारा, मगर हमें कहीं कोई शिकार नहीं मिला। अब हममें हिम्मत नहीं और आप बहुत भूखे हैं, इसलिए हमने सोचा है कि क्यों न इस ऊंट को काटकर आपका शिकार बना दिया जाए।

गीदड़ की बात पर शेर को बहुत क्रोध आया। उसने गीदड़ को डांटते हुए कहा, “यह कैसे हो सकता है! ऊंट हमारा मेहमान है। यदि तुमने दोबारा यह बात कही तो मुझसे बुरा कोई न होगा। गोदान, पृथ्वीदान और अन्नदान से भी बढ़कर अभय-दान है।”

गीदड़ ने शेर की बात सुनकर कहा, “महाराज! यहां पर आपकी जान का प्रश्न है। राजा से कीमती जान प्रजा की नहीं होती। हां, यदि आप उसे जबरन शिकार बनाएं तब ही तो पाप है। यदि वह स्वयं को आपके हवाले कर दे, तो यह पाप नहीं।”

“जो तुम लोगों को अच्छा लगे वही करो। मैं इस समय कुछ नहीं कह सकता”, शेर ने उत्तर दिया।

ऊंट भी वहां आ गया था। गीदड़ ने बाहर आकर उन लोगों से कहा–

देखो मित्रों! हमारा राजा मर रहा है। इस समय हमें उनके प्राणों की रक्षा करनी है। क्योंकि यही कहा गया है कि जिस सेवक के देखते-देखते स्वामी दुःख भोगे, वह सीधा नरक में जाता है।

तभी आंखों में आंसू भरे सब के सब शेर के पास जाकर बैठ गये।

“क्यों भाई, कुछ खाने को मिला?” शेर ने पूछा। कौवा बोला – मालिक! हम तो थक गए, हार गये, पर कहीं कुछ नहीं मिला। इसलिए आज आप मुझे खाकर ही अपना पेट भर लें। इससे मुझे स्वर्ग मिलेगा। क्योंकि यह कहा गया है कि जो स्वामी के लिए खुशी से जान देता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

कौवे की बात सुनते ही गीदड़ बोला – नहीं भाई कौवे! तुम तो बहुत छोटे हो। तुम्हें खाने से मालिक का पेट नहीं भरेगा, इसलिए मालिक मुझे ही खाकर अपना पेट भर लें। इससे मुझे भी मुक्ति मिलेगी।

गीदड़ के पश्चात् बाघ बोला – नहीं भाई, तुम लोगों को मेरे होते हुए यह काम नहीं करना चाहिए। मैं अपने राजा के लिए अपना सारा शरीर देने को तैयार हूं। इससे मालिक की भूख भी पूरी तरह मिट जाएगी ।

अब की बार ऊंट ने भी अपने आपको पीछे न हटाया और उसे भी एहसास हुआ कि मुझे अपने भूखे मरते मालिक को बचाना चाहिए। उस सीधे-सादे जानवर को क्या पता था कि यह सब चालाक गीदड़ की चाल है। ऊंट विरोधी की चाल न भांप सका और भोलेपन में ही बोला–

भाइयों, यदि तुम लोग मालिक के लिए अपनी जान दे सकते हो, तो क्या मैं आपसे पीछे रह सकता हूं। इसलिए मेरे मालिक, तुम मुझे खाकर अपना पेट भर लो।

ऊंट के इतना कहते ही गीदड़ और बाघ उस पर टूट पड़े और देखते-ही-देखते उसे चीर-फाड़ कर उसके टुकड़े-टुकड़े करके आराम से स्वयं भी खाने लगे और साथ ही शेर के आगे भी डाल दिये। विरोधी की चाल न समझने के कारण ऊंट मारा गया।


सुन मेरे भाई, मुझे पता चल गया है कि जिस राजा का परिवार दुःखी है, उसकी सेवा नहीं करनी चाहिए। जिस राजा के मन्त्री ईमानदार न हों, उससे प्रजा कभी खुश नहीं रहती। जैसे गिद्धों से घिरे हंस से व्यवहार होता है। राजा गिद्ध के समान और मन्त्री लोग हंस के समान होते हैं, ऐसे राजा की सेवा की जा सकती है पर अन्यथा नहीं। अवश्य ही किसी दुर्जन ने मुझसे इसे क्रुद्ध कर दिया है, तभी ऐसा कहता है। कहा भी है–

कोमल जल की निरन्तर रगड़ से पत्थर भी पिघल जाते हैं। फिर मनुष्यों के कोमल हृदय-भेद नीति-कुशलों द्वारा कान भरते रहने से कैसे दृढ़ रह सकते हैं?

बैल ने दमनक की ओर देखकर पूछा – मित्र, मैं आपकी सत्य बातों पर विश्वास करता हूं, किन्तु अब यह तो बताओ कि मैं क्या करूं?

“तुम किसी और स्थान पर चले जाओ। ऐसे पापी राजा की सेवा करना बेकार है। यदि कोई गुरु भी पथ-भ्रष्ट हो जाए, तो उसे छोड़ देना चाहिए।”

“मगर मेरे भाई, शेर मेरा शत्रु तो नहीं है। यदि वह मुझसे नाराज है, तो मैं जाकर उसे मना लूंगा।”

“नहीं, वह घमंडी शेर मानने वाला नहीं है।”

“नहीं मानेगा तो मैं उससे युद्ध करने के लिए तैयार हूं।”

दमनक समझ गया कि बैल हार मानने वाला नहीं। यदि इसने लड़ना आरम्भ किया, तो यह शेर को अपने सींगों से मार भी सकता है। कहीं ऐसा न हो कि मेरा मालिक मारा जाए। उसने सोचा कि किसी तरह से इसे यहां से भागने के लिए मजबूर करूं। इसलिए उसने अन्तिम प्रयास करते हुए कहा–

देखो भाई! मालिक और नौकर में युद्ध कभी नहीं होना चाहिए। तभी उसने फिर कहा–

मेरे भाई! लड़ने में दोनों पक्षों को नुकसान होगा। फिर शत्रु को अपने से कभी कमजोर न समझो। यह जरूरी नहीं कि जीत आप ही की हो।

“मगर मैं यहां से भागना नहीं चाहता मित्र।”

भागोगे नहीं तो फिर वही हाल होगा, जो सागर के किनारे वाले टिट्टिभ का हुआ था। लो सुनो, मैं तुम्हें उस टिट्टिभ की कहानी सुनाता हूं–

शत्रु को कभी कमजोर न जानो

सागर के किनारे एक टिट्टिभ का जोड़ा रहता था। इन दोनों पति-पत्नी का जीवन बड़े आनन्द से व्यतीत हो रहा था। एक बार जब टिट्टिभ की पत्नी को बच्चा पैदा होने वाला था तो उसने अपने पति से कहा कि हमें कोई ऐसा सुरक्षित स्थान ढूंढ़ना चाहिए, जहां पर हम लोग अपने अण्डे दे सकें।

उसके पति ने कहा – भाग्यवान, यह सागर तट बड़ा ही सुन्दर है। हम क्यों न यहीं पर रहें। तुम यहीं पर अण्डे दे दो, यहीं पर हमारे बच्चे होंगे।

नहीं पतिदेव, आप यह भूल कर रहे हैं। आपको पता नहीं कि पूर्णिमा की रात को समुद्र बढ़ता है। उस समय यह हाथियों को भी अपने साथ बहाकर ले जाता है।

टिट्टिभ ने हंसकर कहा – यह तुमने ठीक कहा। पर समुद्र की क्या ताकत है, जो हमारे अण्डों को बहा ले जाए। क्या तुमने नहीं सुना कि आकाशचारियों को रोकने वाले धूम्ररहित आग में कौन घुस सकता है (कोई नहीं), संसार में ऐसा कौन पागल है जो यह कहे कि यदि तुममें शक्ति है तो मेरे प्राण ले लो। इसलिए निडर होकर यहीं अण्डे दो। तुमने सुना नहीं है कि–

जो हार के डर से अपने स्थान को छोड़ देता है, उस मनुष्य से स्त्री यदि पुत्रवती है, तो बंध्या किससे कहा जाए?

समुद्र इनकी बातें सुन रहा था। उसने सोचा कि यह पक्षी तो बड़ा अभिमानी है, इसीलिए यह रात को सोते समय पांव ऊपर को करके सोता है कि कहीं रात को आकाश टूट कर नीचे आ गिरे तो मैं उसे अपने पांव पर ही रोक लूं। संसार में मन-माना गर्व किसे नहीं होता। इसलिए मैं देखता हूं कि इसकी बात में कितनी ताकत है और क्या यह बलवान विरोधी की चाल का सामना कर सकता है।

यह सोचकर समुद्र शांत बैठा रहा और उस समय की प्रतीक्षा करता रहा, जब यह टिट्टिभ अण्डे दे। वह समय आ गया। टिट्टिभ ने अण्डे दिये। समुद्र जो इसी समय की प्रतीक्षा में था, टिट्टिभ के जाते ही ज्वार-भाटा ले आया और देखते-ही-देखते अण्डे उस पानी में बह गए।

जब टिट्टिभी और उसका पति रात को वापस लौटे, तो वहां पर अण्डों का नाम तक नहीं था। टिट्टिभी रोते हुए बोली, जो किसी की अच्छी बात को नहीं मानता उसका यही बुरा अन्त होता है। वह काठ से गिरे कछुए के भांति नष्ट होता है।

“वह कैसे?”, टिट्टिभ ने पूछा।

वह ऐसे, सुनो–

भाग्य के भरोसे मत बैठो

किसी तालाब में कछुआ रहता था। वहीं पर उसके दो मित्र बगुले रहते थे। वह बगुले रोजाना ही उसके पास आकर देवी-देवताओं की कथाएं सुनाते और शाम को उड़कर अपने घोंसले में चले जाते।

कुछ समय के पश्चात् जब एक वर्ष वर्षा न हुई, तो वह तालाब सूख गया। तब बगुले ने कहा – मित्र, अब तो इस तालाब में पानी नाम-मात्र ही रह गया है। अब तुम्हारा क्या होगा?

कछुआ बेचारा चिन्ता के सागर में डूब गया। बगुले की ओर निराशा से देखता हुआ बोला – भाइयों, आप ही मेरे बारे में सोचो। तुम्हारे सिवा हमारा कोई भी तो मित्र नहीं। वैसे तो कहा गया है कि–

संकटकाल में धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे सागर में नाव डूबने पर भी मांझी पार होने की आशा रखता है… और मनु ने भी कहा है कि–

बुद्धिमान पुरुष मुसीबत आने पर मित्र और बन्धु से सदा सहायता की आशा करते हैं। इसलिए आप मुझे यहां से निकालकर किसी ऐसे तालाब तक ले चलो, जिसमें बहुत-सा पानी हो।

“लेकिन तुम जाओगे कैसे?”, बगुले ने पूछा।

तुम लोग एक छोटी-सी लकड़ी ले आओ। उस लकड़ी को तुम दोनों पकड़े रखना और उड़ते रहना। मैं उसे पकड़ कर लटक जाऊंगा। हां, ध्यान रखना कि तुम दोनों मुंह न खोलना।

बगुले कछुए की बात मानकर एक लकड़ी ढूंढ़ लाए। उस लकड़ी को उन्होंने अपनी दोनों चोंचों में दबा लिया। बीच में कछुआ लटक गया और बगुले उड़ने लगे।

उड़ते-उड़ते रास्ते में कछुए ने एक नगर देखा। यहां के वासी उन्हें देखकर कहने लगे–

देखो! देखो! कोई गोल चीज बगुले उठाए लिए जा रहे हैं।

उनकी बात सुनते ही कछुआ झट बोल उठा – अरे, यह कैसा शोर है।

बस, कछुआ यह कहते-कहते अभी अपना मुंह आधा ही खोल सका था कि लकड़ी मुंह से छूट गयी और वह धड़ाम से नीचे धरती पर गिरा और वहीं पर मर गया। इसलिए तो कहा गया है–

भविष्य का सोचकर काम करने वाला और समय के अनुसार तत्काल निर्णय करने वाला – दोनों मजे में रहते हैं। भाग्य के सहारे जीने वाले कभी सुख नहीं पाते।

“यह कैसे?”, टिट्टिभ झट से बोला। वह ऐसे–

बलवान शत्रु से बचो

किसी तालाब में तीन मच्छ रहते थे। एक बार कुछ धोबी उस तालाब के पास राह चलते रुक गये। उन्होंने तलाब में झांककर देखा तो उनके मुंह में पानी भर आया–

वाह, इस तालाब में तो बहुत मछलियां हैं, हमने तो आज तक तालाब में से मछलियां पकड़ी ही नहीं थीं। उस समय शाम हो चुकी थी। उन्होंने कहा – चलो, कल सुबह आकर इस तालाब में से मछलियां पकड़ेंगे।

उनकी बातों को एक मच्छ ने सुन लिया था। इसने झट से सारी मछलियों को इकट्ठा किया और उन सबको उन मछली पकड़ने वालों की बात बताई।

मुसीबत… मौत… को सिर पर मंडराते देखकर सबके सब चिंतित हो गये थे। सभी बैठे सोच रहे थे कि विरोधी की चाल से और इस आने वाली मौत से कैसे बचा जाए?”

बहुत सोच-समझ के पश्चात् यह निर्णय किया गया कि इस तालाब को छोड़कर साथ ही किसी दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए। ऐसे अवसर पर कहा गया है–

शत्रु बलवान हो तो भाग जाना चाहिए या फिर किसी किले का सहारा लेना चाहिए। इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं।

जिनका अन्य स्थान पर भी सुख से समय बीत सके, वे विद्वान लोग जाने के कष्ट और स्थान से जुदाई के दुःख को नहीं सोचते।

दूसरे मच्छ ने अपने साथी की बात सुनकर कहा – भाई, आप ठीक कहते हैं। मेरा भी यह विचार है कि हमें यथाशीघ्र इस स्थान से निकल जाना चाहिए। किसी विद्वान ने कहा है–

अत्यन्त मोही, नपुंसक लोग ही परदेस के नाम से डरते हैं। वे कौवे की भांति बुजदिल और हिरण की भांति अपने देश में ही भूखे मरते हैं। जो स्वदेश में भूखा मरे, वह मनुष्य क्या? जो खारे कुएं का पानी इसलिए पीता है कि यह मेरे बाप दादा का बना हुआ है, उसे पागल कहा जाएगा।

सब लोगों ने विरोधी की चाल के मद्देनज़र आपस में मिलकर इस तालाब को छोड़ने का निर्णय कर लिया और साथ वाले किसी तालाब में चले गए। सुबह उठते ही जब मछुए बड़े आनन्द से झूमते हुए जाल लेकर उस तालाब में इन मछलियों को पकड़ने आए, तो उनके हाथ केवल निराशा ही लगी।

टिट्टिभ बोला, “अरी भाग्यवान, क्या तुम मुझे इतना ही बुजदिल समझती हो? मैं इस पापी समुद्र को अपनी चोंच से सुखा दूंगा। मैं बुजदिल मच्छ नहीं, जो डरकर भाग जाऊंगा।”

वाह! भला तुम्हारी समुद्र से क्या बराबरी! इससे क्रोध करना ठीक नहीं। कहा भी गया है–

असमर्थों का क्रोध उनको ही नुकसान पहुंचाता है। जैसे अत्यन्त गर्म बर्तन पास वाले को ही जलाता है।

अपने शत्रु की शक्ति को न समझकर जो उत्साह के साथ युद्ध करने जाते हैं, आग में जलते पतंगे की भांति स्वयं नष्ट हो जाते हैं।

टिट्टिभ बोला – नहीं… नहीं… प्रिय, ऐसा मत कहो। जिनमें उत्साह होता है, वे बड़े-बड़े कठिन कार्य भी कर जाते हैं। कहा गया है कि क्रोधी पुरुष सदा डरकर शत्रु के सामने जाता है जैसे राहु चन्द्रमा को देखकर भी उसके पास जाता है। भारी शरीर वाले हाथी पर भी शेर पांव रख देता है। निकलते सूर्य की किरणें भी ऊंचे पहाड़ों पर पड़ती हैं। घने अंधेरे छोटे से दीप के हाथों भाग जाते हैं। छोटे से बम से भारी पहाड़ भी गिरा दिए जाते हैं। जिसमें तेज हो, वह बलवान है। मोटे भारी का क्या विश्वास। मैं तो इस चोंच से इसके सारे पानी को सुखा दूंगा।

टिट्टिभी बोली – हे स्वामी! जिसमें हर रोज गंगा नदी और सैकड़ों नदियां पहुंचती हैं, उस हजारों नदियों से भरे समुद्र को भला तुम एक चोंच से कैसे सुखा दोगे? ऐसे विरोधी की चाल से तुम कैसे बच पाओगे?

मेरी भोली पत्नी, यह बात याद रखो कि परिश्रम करने से ही कार्य सिद्ध होता है। मेरी चोंच छोटी है, रात-दिन बहुत बड़े हैं। फिर भी क्या समुद्र नहीं सूखेगा? बिना हिम्मत के कुछ नहीं मिलता।

नाथ! यदि तुमने यह निर्णय कर लिया है तो अपने साथ दूसरे लोगों को भी मिला लो। संगठन में ही शक्ति है। बहुत से तिनकों को इकट्ठा करके रस्सी बनाई जाती है, जिसमें हाथी बांधा जा सकता है। इस प्रकार मक्खी और मेंढकों के विरोध करने से हाथी भी मारा गया था।

“वह कैसे?”, टिट्टिभ ने पूछा।

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