प्राण तुम्हें पहचान न पाते
“प्राण तुम्हें पहचान न पाते” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इसकी रचना सन् 1954 में की गयी थी। कवि इन छंदों के माध्यम से उसे पहचानने की चेष्टा कर रहा है, जो प्राणों से प्रिय होकर भी दूर है। पढ़ें और आनंद लें इस कविता का–
प्राण तुम्हें पहचान न पाते।
देव अगर तुम नील गगन में
तो इन पलकों में भी रहते
नीरद में यदि वास तुम्हारा
तो मम अलकों में भी रहते
तुम प्राणों के प्राण बने पर-
प्राण तुम्हें पहचान न पाते।
सागर की उत्ताल तरंगों-
में यदि तुम क्रीड़ा करते हो
तो मेरे लघु मानस में भी
स्वप्नों की पीड़ा भरते हो
पीड़ा में ही तुम्हें खोजता
मुझे देव मधुगान न भाते।
आशा है तुम कभी मिलोगे
जीवन की सुनसान डगर में
यही मुझे विश्वास भरोगे
नव प्रकाश अज्ञान नगर में
इसीलिए बढ़ता आया हूँ-
पर मंजिल पग जान न पाते।
(सन् 1954 ई.)
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।