राहु कवच – Rahu Kavacham
राहु कवच स्तोत्र का पाठ राहु ग्रह को शांत करने के सबसे सरल उपायों में से एक है। मान्यता है कि राहु का मुख भंयकर प्रतीत होता है। महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत महाकाव्य के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान विष्णु जी ने अपने चक्र से जिस दैत्य के शरीर के दो टुकड़े कर दिए थे उसमें से मुख राहु ग्रह बना और शेष शरीर केतु ग्रह नाम से जाना गया। ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से यह एक छाया ग्रह है अर्थात आकाश में पिंड रूप में इसक अस्तित्व नहीं है। फिर भी इसके अपरिमित महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। राहु कवच नित्यप्रति तीन बार पढ़ने से जन्म-कुंडली में राहु द्वारा प्राप्त हो रहे खराब परिणाम बन्द हो जाते हैं और राहु ग्रह शुभ फल देने लगता है। शीघ्र ही यहाँ राहु कवच स्तोत्र का हिंदी अर्थ भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। पढ़ें महाभारत के द्रोण पर्व में आया राहु कवच–
राहु कवच पाठ
अस्य श्रीराहुकवचस्तोत्रमंत्रस्य चंद्रमा ऋषिः।
अनुष्टुप छन्दः। रां बीजं I नमः शक्तिः।
स्वाहा कीलकम्। राहुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः॥
प्रणमामि सदा राहुं शूर्पाकारं किरीटिन्।
सैन्हिकेयं करालास्यं लोकानाम भयप्रदम् ॥१॥
निलांबरः शिरः पातु ललाटं लोकवन्दितः।
चक्षुषी पातु मे राहुः श्रोत्रे त्वर्धशरीरवान् ॥२॥
नासिकां मे धूम्रवर्णः शूलपाणिर्मुखं मम।
जिव्हां मे सिंहिकासूनुः कंठं मे कठिनांघ्रीकः ॥३॥
भुजङ्गेशो भुजौ पातु निलमाल्याम्बरः करौ।
पातु वक्षःस्थलं मंत्री पातु कुक्षिं विधुंतुदः ॥४॥
कटिं मे विकटः पातु ऊरु मे सुरपूजितः।
स्वर्भानुर्जानुनी पातु जंघे मे पातु जाड्यहा ॥५॥
गुल्फ़ौ ग्रहपतिः पातु पादौ मे भीषणाकृतिः।
सर्वाणि अंगानि मे पातु निलश्चंदनभूषणः ॥६॥
राहोरिदं कवचमृद्धिदवस्तुदं यो।
भक्ता पठत्यनुदिनं नियतः शुचिः सन्।
प्राप्नोति कीर्तिमतुलां श्रियमृद्धिमायु
रारोग्यमात्मविजयं च हि तत्प्रसादात् ॥७॥
॥ इति श्रीमहाभारते धृतराष्ट्रसंजयसंवादे द्रोणपर्वणि राहुकवचं संपूर्णं ॥
॥ महाभारत में धृतराष्ट्र-संजय के संवाद के अन्तर्गत द्रोण पर्व में राहु कवच संपूर्ण हुआ ॥
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विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर राहु कवच ( Rahu Kavacham) को हम रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें राहु कवच रोमन में–
Read Rahu Kavacham
asya śrīrāhukavacastotramaṃtrasya caṃdramā ṛṣiḥ।
anuṣṭupa chandaḥ। rāṃ bījaṃ I namaḥ śaktiḥ।
svāhā kīlakam। rāhuprītyarthaṃ jape viniyogaḥ॥
praṇamāmi sadā rāhuṃ śūrpākāraṃ kirīṭin।
sainhikeyaṃ karālāsyaṃ lokānāma bhayapradam॥1॥
nilāṃbaraḥ śiraḥ pātu lalāṭaṃ lokavanditaḥ।
cakṣuṣī pātu me rāhuḥ śrotre tvardhaśarīravān॥2॥
nāsikāṃ me dhūmravarṇaḥ śūlapāṇirmukhaṃ mama।
jivhāṃ me siṃhikāsūnuḥ kaṃṭhaṃ me kaṭhināṃghrīkaḥ॥3॥
bhujaṅgeśo bhujau pātu nilamālyāmbaraḥ karau।
pātu vakṣaḥsthalaṃ maṃtrī pātu kukṣiṃ vidhuṃtudaḥ॥4॥
kaṭiṃ me vikaṭaḥ pātu ūru me surapūjitaḥ।
svarbhānurjānunī pātu jaṃghe me pātu jāḍyahā॥5॥
gulpha़au grahapatiḥ pātu pādau me bhīṣaṇākṛtiḥ।
sarvāṇi aṃgāni me pātu nilaścaṃdanabhūṣaṇaḥ॥6॥
rāhoridaṃ kavacamṛddhidavastudaṃ yo।
bhaktā paṭhatyanudinaṃ niyataḥ śuciḥ san।
prāpnoti kīrtimatulāṃ śriyamṛddhimāyu
rārogyamātmavijayaṃ ca hi tatprasādāt ॥7॥
॥ iti śrīmahābhārate dhṛtarāṣṭrasaṃjayasaṃvāde droṇaparvaṇi rāhukavacaṃ saṃpūrṇaṃ ॥
॥ mahābhārata meṃ dhṛtarāṣṭra-saṃjaya ke saṃvāda ke antargata droṇa parva meṃ rāhu kavaca saṃpūrṇa huā ॥