ग्रंथधर्म

समुद्र-दर्शन की कथा – महाभारत का बाईसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)

“समुद्र-दर्शन की कथा” नामक यह महाभारत कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। इस अध्याय में कहानी पिछले अध्याय “समुद्र का वर्णन” के आगे आरंभ होती है। पढ़ें किस तरह नाग उच्चैःश्रवा अश्व की पूँछ काली बना देते हैं तथा कद्रू और विनता अश्व देखने के लिए सागर के किनारे पहुँचती हैं और समुद्र-दर्शन करती हैं। जानें कद्रू और विनता के समुद्र-दर्शन की कहानी। महाभारत के अन्य अध्याय क्रमिक रूप से पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा

सौतिरुवाच
नागाश्च संविदं कृत्वा कर्तव्यमिति तद्वचः।
निःस्नेहा वै दहेन्माता असम्प्राप्तमनोरथा ⁠॥⁠ १ ⁠॥
प्रसन्ना मोक्षयेदस्मांस्तस्माच्छापाच्च भामिनी।
कृष्णं पुच्छं करिष्यामस्तुरगस्य न संशयः ⁠॥⁠ २ ⁠॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—
महर्षियो! इधर नागों ने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि ‘हमें माता की आज्ञा का पालन करना चाहिये। यदि इसका मनोरथ पूरा न होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी। यदि इच्छा पूर्ण हो जाने से प्रसन्न हो गयी तो वह भामिनी हमें अपने शाप से मुक्त कर सकती है; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़े की पूँछ को काली कर देंगे’ ⁠॥⁠ १-२ ⁠॥

तथा हि गत्वा ते तस्य पुच्छे वाला इव स्थिताः।
एतस्मिन्नन्तरे ते तु सपत्न्यौ पणिते तदा ⁠॥⁠ ३ ⁠॥
ततस्ते पणितं कृत्वा भगिन्यौ द्विजसत्तम।
जग्मतुः परया प्रीत्या परं पारं महोदधेः ⁠॥⁠ ४ ⁠॥
कद्रूश्च विनता चैव दाक्षायण्यौ विहायसा।
आलोकयन्त्यावक्षोभ्यं समुद्रं निधिमम्भसाम् ⁠॥⁠ ५ ⁠॥
वायुनातीव सहसा क्षोभ्यमाणं महास्वनम्।
तिमिंगिलसमाकीर्णं मकरैरावृतं तथा ⁠॥⁠ ६ ⁠॥
संयुतं बहुसाहस्रैः सत्त्वैर्नानाविधैरपि।
घोरैर्घोरमनाधृष्यं गम्भीरमतिभैरवम् ⁠॥⁠ ७ ⁠॥
ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंग के बाल बनकर उसकी पूँछ में लिपट गये। द्विजश्रेष्ठ! इसी बीच में बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहनें पुनः अपनी शर्त को दुहराकर बड़ी प्रसन्नता के साथ समुद्र के दूसरे पार जा पहुँचीं। दक्षकुमारी कद्रू और विनता आकाश मार्ग से अक्षोभ्य जलनिधि समुद्र को देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर अत्यन्त प्रबल वायु के थपेड़े खाकर सहसा विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोर की गर्जना होती थी। तिमिंगिल और मगरमच्छ आदि जलजन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे। नाना प्रकार के भयंकर जन्तु सहस्रों की संख्या में उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होने के साथ ही अत्यन्त भयंकर था ⁠॥⁠ ३—७ ⁠॥

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।
नागानामालयं चापि सुरम्यं सरितां पतिम् ⁠॥⁠ ८ ⁠॥
नदियों का वह स्वामी सब प्रकार के रत्नों की खान, वरुण का निवास-स्थान तथा नागों का सुरम्य गृह था ⁠॥⁠ ८ ⁠॥

पातालज्वलनावासमसुराणां तथाऽऽलयम्।
भयंकराणां सत्त्वानां पयसो निधिमव्ययम् ⁠॥⁠ ९ ⁠॥
वह पातालव्यापी बड़वानल का आश्रय, असुरों के छिपने का स्थान, भयंकर जन्तुओं का घर, अनन्त जलका भण्डार और अविनाशी था ⁠॥⁠ ९ ⁠॥

शुभ्रं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम्।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलसम्मितम् ⁠॥⁠ १० ⁠॥
वह शुभ्र, दिव्य, अमरों के अमृत का उत्तम उत्पत्ति-स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परम पवित्र जल से परिपूर्ण था ⁠॥⁠ १० ⁠॥

महानदीभिर्बह्वीभिस्तत्र तत्र सहस्रशः।
आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यन्तमिव चोर्मिभिः ⁠॥⁠ ११ ⁠॥
बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रों की संख्या में आकर उसमें यत्र-तत्र मिलतीं और उसे अधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओं के समान ऊँची लहरों को ऊपर उठाये नृत्य-सा कर रहा था ⁠॥⁠ ११ ⁠॥

इत्येवं तरलतरोर्मिसंकुलं तं
गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम्।
पातालज्वलनशिखाविदीपिताङ्गं
गर्जन्तं द्रुतमभिजग्मतुस्ततस्ते ⁠॥⁠ १२ ⁠॥
इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगों से व्याप्त, आकाश के समान स्वच्छ, बड़वानल की शिखाओं से उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करने वाले महासागर को देखती हुई वे दोनों बहनें तुरंत आगे बढ़ गयीं ⁠॥⁠ १२ ⁠॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ⁠॥⁠ २२ ⁠॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुड चरित के प्रसंग में समुद्र दर्शन नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ⁠॥⁠ २२ ⁠॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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