ग्रंथधर्म

समुद्र का वर्णन – महाभारत का इक्कीसवाँ अध्याय (आस्तीकपर्व)

“समुद्र का वर्णन” नामक यह कथा महाभारत के आदि पर्व में आस्तीकपर्व के अन्तर्गत आती है। यहाँ कहानी कद्रू द्वारा सर्पों को शाप देने के बाद शुरू होती है। कद्रू और विनता दोनों उच्चैःश्रवा घोड़े को देखने के लिए नकलती हैं, पर रास्ते में उन्हें पहले समुद्र दिखाई देता है। वह सागर कैसा है और उसमें क्या-क्या है, उसी समुद्र का वर्णन इस अध्याय में किया गया है। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत की कथा

सौतिरुवाच
ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ ⁠।
कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ॥⁠ १ ॥
अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा ⁠।
जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥⁠ २ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—
तपोधन! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान सूर्य का उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहनें बड़े जोश और रोष के साथ दासी होने की बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्व को निकट से देखने के लिये गयीं ॥⁠ १-२ ॥

ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम् ⁠।
महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ॥⁠ ३ ॥
कुछ दूर जाने पर उन्होंने मार्ग में जल निधि समुद्र को देखा, जो महान् होने के साथ ही अगाध जल से भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोर की गर्जना हो रही थी ॥⁠ ३ ॥

तिमिङ्गिलझषाकीर्णं मकरैरावृतं तथा ⁠।
सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् ॥⁠ ४ ॥
वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्यों को भी निगल जाने वाले तिमिंगिलों, मत्स्यों तथा मगर आदि से व्याप्त था। नाना प्रकार की आकृति वाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे ॥⁠ ४ ॥

भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा ⁠।
उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् ॥⁠ ५ ॥
विकट आकार वाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओं के कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह निवास करते थे ॥⁠ ५ ॥

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च ⁠।
नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ॥⁠ ६ ॥
सरिताओं का स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नों की खान, वरुण देव का निवास स्थान और नागों का रमणीय उत्तम गृह है  ।⁠।⁠ ६ ॥

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ⁠।
भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ॥⁠ ७ ॥
पाताल की अग्नि—बड़वानल का निवास भी उसी में है। असुरों को तो वह जल निधि समुद्र भाई-बन्धु की भाँति शरण देने वाला है तथा दूसरे थलचर जीवों के लिये अत्यन्त भयदायक है ॥⁠ ७ ॥

शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम् ⁠।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् ॥⁠ ८ ॥
अमरों के अमृत की खान होने से वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जल से परिपूर्ण तथा अद्भुत है ॥⁠ ८ ॥

घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम् ⁠।
गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ॥⁠ ९ ॥
वह घोर समुद्र जल-जन्तुओं के शब्दों से और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियों के लिये भय-सा उत्पन्न करता था ॥⁠ ९ ॥

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ⁠।
वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ॥⁠ १० ॥
तटपर तीव्रवेग से बहने वाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागर को चंचल किये देती थी। वह क्षोभ और उद्वेग से बहुत ऊँचे तक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल तरंग रूपी हाथों को हिला-हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था ॥⁠ १०  ।⁠।

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्‌वृत्तोर्मिसमाकुलम् ⁠।
पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ॥⁠ ११ ॥
चन्द्रमा की वृद्धि और क्षय के कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं (उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल-तरंगों से व्याप्त जान पड़ता था। उसी ने पांचजन्य शंख को जन्म दिया था। वह रत्नों का आकर और परम उत्तम था ॥⁠ ११ ॥

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा ⁠।
वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ॥⁠ १२ ॥
अमित-तेजस्वी भगवान गोविन्द ने वराह रूप से पृथ्वी को उपलब्ध करते समय उस समुद्र को भीतर से मथ डाला था और उस मथित जल से वह समस्त महासागर मलिन-सा जान पड़ता था ॥⁠ १२ ॥

ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा ⁠।
अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ॥⁠ १३ ॥
व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रि ने समुद्र के भीतरी तल का अन्वेषण करते हुए सौ वर्षों तक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पाताल के नीचे तक व्याप्त है और पाताल के नष्ट होने पर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है ॥⁠ १३ ॥

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः ⁠।
युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः ॥⁠ १४ ॥
आध्यात्मिक योगनिद्रा का सेवन करने वाले अमित-तेजस्वी कमलनाभ भगवान विष्णु के लिये वह (युगान्त काल से लेकर) युगादि काल तक शयनागार बना रहता है ॥⁠ १४ ॥

वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ⁠।
डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ॥⁠ १५ ॥
उसी ने वज्रपात से डरे हुए मैनाक पर्वत को अभयदान दिया है तथा जहाँ भय के मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्ध से पीड़ित हुए असुरों का वह सबसे बड़ा आश्रय है ॥⁠ १५ ॥

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम् ⁠।
अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥⁠ १६ ॥
बड़वानल के प्रज्वलित मुख में वह सदा अपने जल रूपी हविष्य की आहुति देता रहता है और जगत्‌ के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओं का स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है ॥⁠ १६ ॥

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः ⁠।
अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ⁠।
आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥⁠ १७ ॥
सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपस में होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागर में निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जल से उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरों की भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है ॥⁠ १७ ॥

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं
गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः ⁠।
विस्तीर्णं ददृशतुरम्बरप्रकाशं
तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ॥⁠ १८ ॥
इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओं से व्याप्त, जलचर जीवों के शब्द रूप भयंकर नाद से निरन्तर गर्जना करने वाले, अत्यन्त विस्तृत, आकाश के समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्र को कद्रू और विनता ने देखा ॥⁠ १८ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशोऽध्यायः ॥⁠ २१ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुड चरित के प्रसंग में इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥⁠ २१ ॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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