समुद्र मंथन की चर्चा – महाभारत का सत्रहवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“समुद्र मंथन की चर्चा” नामक यह कथा महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। यह महाभारत का सत्रहवाँ अध्याय है और इसमें 13 श्लोक हैं। कहानी पिछले अध्याय से आगे बढ़ती है। इस अध्याय में कथा है कि सभी देवता मेरु पर्वत पर एकत्रित होते हैं और समुद्र मन्थन के माध्यम से अमृत-प्राप्ति का उपाय करते हैं। सर्वप्रथम विष्णु जी इस उपाय अर्थात समुद्र मंथन की चर्चा करते हैं और ब्रह्मा जी से अपना मन्तव्य कहते हैं। पढ़ें “समुद्र मंथन की चर्चा” पर यह कथा। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत महाकाव्य।
सौतिरुवाच
एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन ।
अपश्यतां समायाते उच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ १ ॥
यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन् ।
मध्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम् ॥ २ ॥
अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम् ।
श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम् ॥ ३ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—तपोधन! इसी समय कद्रू और विनता दोनों बहनें एक साथ ही घूमने के लिये निकलीं। उस समय उन्होंने उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को निकट से जाते देखा। वह परम उत्तम अश्वरत्न अमृत के लिये समुद्र का मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमें अमोघ बल था। वह संसार के समस्त अश्वों में श्रेष्ठ, उत्तम गुणों से युक्त, सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओं ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी ॥ १—३ ॥
शौनक उवाच
कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे ।
यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः ॥ ४ ॥
शौनक जी ने पूछा—सूतनन्दन! अब मुझे यह बताइये कि देवताओं ने अमृत-मन्थन किस प्रकार और किस स्थान पर किया था, जिसमें वह महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न और अत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ? ॥ ४ ॥
सौतिरुवाच
ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम् ।
आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्ज्वलैः ॥ ५ ॥
कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम् ।
अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः ॥ ६ ॥
उग्रश्रवा जी ने कहा—शौनक जी! मेरु नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभा से प्रज्वलित होता रहता है। वह तेज का महान् पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्त प्रकाशमान सुवर्णमय शिखरों से वह सूर्य देव की प्रभा को भी तिरस्कृत किये देता है। उस स्वर्णभूषित विचित्र शैलपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है। जिनमें पाप की मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते ॥ ५-६ ॥
व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम् ।
नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम् ॥ ७ ॥
अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् ।
नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः ॥ ८ ॥
वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य ओषधियाँ उस तेजोमय पर्वत को और भी उद्भासित करती रहती हैं। वह महान् गिरिराज अपनी ऊँचाई से स्वर्गलोक को घेर कर खड़ा है। प्राकृत मनुष्यों के लिये वहाँ मन से भी पहुँचना असम्भव है। वह गिरि प्रदेश बहुत-सी नदियों और असंख्य वृक्षों से सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्यन्त मनोहर पक्षियों के समुदाय अपने कलरव से उस पर्वत को कोलाहल पूर्ण किये रहते हैं ॥ ७-८ ॥
तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम् ।
अनन्तकल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः ॥ ९ ॥
ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः ।
अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः ॥ १० ॥
तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ।
चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः ॥ ११ ॥
देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः ।
भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ ॥ १२ ॥
उसके शुभ एवं उच्चतम शृंग असंख्य चमकीले रत्नों से व्याप्त हैं। वे अपनी विशालता के कारण आकाश के समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता मेरु गिरि के उस महान् शिखर पर चढ़कर एक स्थान में बैठ गये और सब मिलकर अमृत-प्राप्ति के लिये क्या उपाय किया जाय, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच-संतोष आदि नियमों से संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मन्त्रणा में लगे हुए देवताओं के समुदाय में उपस्थित हो भगवान् नारायण ने ब्रह्मा जी से यों कहा—‘समस्त देवता और असुर मिलकर महासागर का मन्थन करें। उस महासागर का मन्थन आरम्भ होने पर उसमें से अमृत प्रकट होगा ॥ ९—१२ ॥
सर्वौषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह ।
मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः ॥ १३ ॥
‘देवताओ! पहले समस्त ओषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नों को पाकर भी समुद्र का मन्थन जारी रखो। इससे अन्त में तुम लोगों को निश्चय ही अमृत की प्राप्ति होगी’ ॥ १३ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में अमृत मन्थन विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥