सर्पों की मूर्च्छा – महाभारत का पचीसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“सर्पों की मूर्च्छा” नामक यह महाभारत कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। कहानी पिछले अध्याय में सूर्यदेव के कोप के आगे शुरू होती है। इस अध्याय में सर्प गरुड की पीठ पर सवार हो जाते हैं। पीठ पर सवार सर्पों की मूर्च्छा का कारण सूर्य की तीक्ष्ण गर्मी है। पढ़ें सर्पों की मूर्च्छा की यह कथा और कर्द्रू द्वारा इन्द्र देव का स्तवन। महाभारत के अन्य अध्याय क्रमिक रूप से पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा।
सौतिरुवाच
ततः कामगमः पक्षी महावीर्यो महाबलः ।
मातुरन्तिकमागच्छत् परं पारं महोदधेः ।। १ ।।
उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनकादि महर्षियो! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करने वाले महान् पराक्रमी तथा महाबली गरुड समुद्र के दूसरे पार अपनी माता के समीप आये ।। १ ।।
यत्र सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।
अतीव दुःखसंतप्ता दासीभावमुपागता ।। २ ।।
जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जाने से दासी-भाव को प्राप्त हो अत्यन्त दुःख से संतप्त रहती थीं ।। २ ।।
ततः कदाचिद् विनतां प्रणतां पुत्रसंनिधौ ।
काले चाहूय वचनं कद्रूरिदमभाषत ।। ३ ।।
एक दिन अपने पुत्र के समीप बैठी हुई विनय-शील विनता को किसी समय बुलाकर कद्रू ने यह बात कही ।। ३ ।।
नागानामालयं भद्रे सुरम्यं चारुदर्शनम् ।
समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते नय ।। ४ ।।
‘कल्याणी विनते! समुद्र के भीतर निर्जन प्रदेश में एक बहुत रमणीय तथा देखने में अत्यन्त मनोहर नागों का निवास स्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल’ ।। ४ ।।
ततः सुपर्णमाता तामवहत् सर्पमातरम् ।
पन्नगान् गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदितः ।। ५ ।।
तब गरुड की माता विनता सर्पों की माता कद्रू को अपनी पीठ पर ढोने लगी। इधर माता की आज्ञा से गरुड भी सर्पों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले चले ।। ५ ।।
स सूर्यमभितो याति वैनतेयो विहंगमः ।
सूर्यरश्मिप्रतप्ताश्च मूर्च्छिताः पन्नगाभवन् ।। ६ ।।
पक्षिराज गरुड आकाश में सूर्य के निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्य की किरणों से संतप्त हो मूर्च्छित हो गये ।। ६ ।।
तदवस्थान् सुतान् दृष्ट्वा कद्रूः शक्रमथास्तुवत् ।
नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते बलसूदन ।। ७ ।।
अपने पुत्रों को इस दशा में देखकर कद्रू इन्द्र की स्तुति करने लगी—‘सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन! तुम्हें नमस्कार है ।। ७ ।।
नमुचिघ्न नमस्तेऽस्तु सहस्राक्ष शचीपते ।
सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लवो भव ।। ८ ।।
‘सहस्र नेत्रों वाले नमुचिनाशन! शचीपते! तुम्हें नमस्कार है। तुम सूर्य के ताप से संतप्त हुए सर्पों को जल से नहलाकर नौका की भाँति उनके रक्षक हो जाओ ।। ८ ।।
त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोत्तम ।
ईशो ह्यसि पयः स्रष्टुं त्वमनल्पं पुरन्दर ।। ९ ।।
‘अमरोत्तम! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो । पुरन्दर! तुम अधिक-से-अधिक जल बरसाने की शक्ति रखते हो ।। ९ ।।
त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमग्निर्विद्युतोऽम्बरे ।
त्वमभ्रगणविक्षेप्ता त्वामेवाहुर्महाघनम् ।। १० ।।
‘तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाश में बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। तुम्हीं बादलों को छिन्न-भिन्न करने वाले हो और विद्वान् पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहते हैं ।। १० ।।
त्वं वज्रमतुलं घोरं घोषवांस्त्वं बलाहकः ।
स्रष्टा त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजितः ।। ११ ।।
‘संसार में जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकर गर्जना करने वाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि और संहार करने वाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते ।। ११ ।।
त्वं ज्योतिः सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसुः ।
त्वं महद्भूतमाश्चर्यं त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः ।। १२ ।।
‘तुम्हीं समस्त प्राणियों की ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो। तुम आश्चर्यमय महान् भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो ।। १२ ।।
त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम् ।
त्वं सर्वममृतं देव त्वं सोमः परमार्चितः ।। १३ ।।
‘तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान् देवता और सबके परम आश्रय हो। देव! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और तुम्हीं परमपूजित सोम हो ।। १३ ।।
त्वं मुहूर्तस्तिथिस्त्वं च त्वं लवस्त्वं पुनः क्षणः ।
शुक्लस्त्वं बहुलस्त्वं च कला काष्ठा त्रुटिस्तथा ।
संवत्सरर्तवो मासा रजन्यश्च दिनानि च ।। १४ ।।
‘तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष भी तुम से भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। संवत्सर, ऋतु, मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो ।। १४ ।।
त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुन्धरा
सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा ।
महोदधिः सतिमितिमिंगिलस्तथा
महोर्मिमान् बहुमकरो झषाकुलः ।। १५ ।।
‘तुम्हीं पर्वत और वनों सहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकार रहित एवं सूर्य सहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलों से भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्यों से व्याप्त तथा उत्ताल तरंगों से सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो ।। १५ ।।
महायशास्त्वमिति सदाभिपूज्यसे
मनीषिभिर्मुदितमना महर्षिभिः ।
अभिष्टुतः पिबसि च सोममध्वरे
वषट्कृतान्यपि च हवींषि भूतये ।। १६ ।।
‘तुम महान् यशस्वी हो। ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमान की अभीष्ट सिद्धि करने के लिये यज्ञ में मुदित मन से सोमरस पीते हो और वषट्कार पूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भी ग्रहण करते हो ।। १६ ।।
त्वं विप्रैः सततमिहेज्यसे फलार्थं
वेदाङ्गेष्वतुलबलौघ गीयसे च ।
त्वद्धेतोर्यजनपरायणा द्विजेन्द्रा
वेदाङ्गान्यभिगमयन्ति सर्वयत्नैः ।। १७ ।।
‘इस जगत् में अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलित बल के भण्डार इन्द्र! वेदांगों में भी तुम्हारी ही महिमा का गान किया गया है। यज्ञ परायण श्रेष्ठ द्विज तुम्हारी प्राप्ति के लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगों का ज्ञान प्राप्त करते हैं (यहाँ कद्रू के द्वारा ईश्वर रूप से इन्द्र की स्तुति की गयी है)’ ।। १७ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः ।। २५ ।।
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में गरुड चरित्र विषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २५ ।।