ग्रंथधर्म

सर्पों को शाप – महाभारत का बीसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)

“सर्पों को शाप” नामक यह महाभारत कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। इस अध्याय में कहानी देवासुर संग्राम विषयक पिछले अध्याय के आगे बढ़ती है। कद्रू किसी भी तरह शर्त में विनता को हराना चाहती है। इस महत्वाकांक्षा के लिए वह क्रोधित होकर अपने ही पुत्र सर्पों को शाप दे देती है कि जो उसका कहा नहीं मानेगा वह सर्पयज्ञ में भस्म हो जाएगा। पढ़ें सर्पों को शाप की यह कथा विस्तार से। महाभारत के अन्य अध्याय क्रमिक रूप से पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा

सौतिरुवाच
एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा ⁠⁠।
यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ⁠॥⁠ १ ⁠॥
यं निशम्य तदा कद्रूर्विनतामिदमब्रवीत् ⁠⁠।
उच्चैःश्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ⁠॥⁠ २ ⁠॥

उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनकादि महर्षियो! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आप लोगों से कह सुनाया⁠। उस अमृत-मन्थन के समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रू ने विनता से कहा—‘भद्रे! शीघ्र बताओ तो यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंग का है?’ ⁠॥⁠ १-२ ⁠॥

विनतोवाच
श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे ⁠⁠।
ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ⁠॥⁠ ३ ⁠॥
विनता बोली—
शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्ण का ही है⁠। तुम इसे कैसा समझती हो? तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी ⁠॥⁠ ३ ⁠॥

कद्रूरुवाच
कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते ⁠⁠।
एहि सार्धं मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ⁠॥⁠ ४ ⁠॥

कद्रू ने कहा—पवित्र मुसकान वाली बहन! इस घोड़े का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु इस की पूँछ को मैं काले रंग की ही मानती हूँ⁠। भामिनि! आओ, दासी होने की शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा) ⁠॥⁠ ४ ⁠॥

सौतिरुवाच
एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः ⁠⁠।
जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ⁠॥⁠ ५ ⁠॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—
इस प्रकार वे दोनों बहनें आपस में एक-दूसरे की दासी होने की शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़े को देखेंगी ⁠॥⁠ ५ ⁠॥ 

ततः पुत्रसहस्रं तु कद्रूर्जिह्मं चिकीर्षती ⁠⁠।
आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ⁠॥⁠ ६ ⁠॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा ⁠⁠।
नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ⁠॥⁠ ७ ⁠॥
सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति ⁠⁠।
जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ⁠॥⁠ ८ ⁠॥
कद्रू कुटिलता एवं छल से काम लेना चाहती थी⁠। उसने अपने सहस्र पुत्रों को इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंग के बाल बनकर शीघ्र उस घोड़े की पूँछ में लग जाओ, जिससे मुझे दासी न होना पड़े⁠। उस समय जिन सर्पों ने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि, ‘जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजय के सर्प यज्ञ का आरम्भ होने पर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी’ ⁠॥⁠ ६—८ ⁠॥

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः ⁠⁠।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्र्वा दैवादतीव हि ⁠॥⁠ ९ ⁠॥
इस शाप को स्वयं ब्रह्मा जी ने सुना⁠। यह दैव संयोग की बात है कि सर्पों को उनकी माता कद्रू की ओर से ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया ⁠॥⁠ ९ ⁠॥

सार्धं देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत ⁠⁠।
बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ⁠॥⁠ १० ⁠॥
सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्मा जी ने सर्पों की संख्या बढ़ती देख प्रजा के हित की इच्छा से कद्रू की उस बात का अनुमोदन ही किया ⁠॥⁠ १० ⁠॥

तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः ⁠⁠।
तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ⁠॥⁠ ११ ⁠॥
युक्तं मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम् ⁠⁠।
अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ⁠॥⁠ १२ ⁠॥
तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते ⁠⁠।
एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कद्रूं च तां तदा ⁠॥⁠ १३ ⁠॥
आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत् ⁠⁠।
यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ⁠॥⁠ १४ ⁠॥
विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ताः परंतप ⁠⁠।
तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ⁠॥⁠ १५ ⁠॥
दृष्टं पुरातनं ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम् ⁠⁠।
इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम् ⁠⁠।
प्रादाद् विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ⁠॥⁠ १६ ⁠॥
‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विष से युक्त हैं⁠। अपने तीखे विष के कारण ये सदा दूसरों को पीड़ा देने के लिये दौड़ते-फिरते हैं⁠। अतः समस्त प्राणियों के हित की दृष्टि से इन्हें शाप देकर माता कद्रू ने उचित ही किया है⁠। जो सदा दूसरे प्राणियों को हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैव के द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है⁠।’ ऐसी बात कहकर ब्रह्मा जी ने कद्रू की प्रशंसा की और कश्यप जी को बुलाकर यह बात कही—‘अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगों को डँसने वाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं⁠। परंतप! इन्हें इनकी माता ने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपर क्रोध न करना⁠। तात! यज्ञ में सर्पों का नाश होने वाला है, यह पुराण वृत्तान्त तुम्हारी दृष्टि में भी है ही⁠।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने प्रजापति कश्यप को प्रसन्न करके उन महात्मा को सर्पों का विष उतारने वाली विद्या प्रदान की ⁠॥⁠ ११—१६ ⁠॥

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्र्वा च द्विजसत्तम ⁠⁠।
उद्विग्नः शापतस्तस्याः कद्रूं कर्कोटकोऽब्रवीत् ⁠॥
मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तमः ⁠⁠।
आविश्य वाजिनं मुख्यं वालो भूत्वाञ्जनप्रभः ⁠॥
दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस ⁠⁠।
एवमस्त्विति तं पुत्रं प्रत्युवाच यशस्विनी ⁠॥)
द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार माता कद्रू ने जब नागों को शाप दे दिया, तब उस शाप से उद्विग्न हो भुजंग प्रवर कर्कोटक ने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी माता से कहा—‘मा! तुम धैर्य रखो, मैं काले रंग का बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछ के रूप में दिखाऊँगा⁠।’ यह सुनकर यशस्विनी कद्रू ने पुत्र को उत्तर दिया—‘बेटा! ऐसा ही होना चाहिये’⁠।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे विंशोऽध्यायः ⁠॥⁠ २० ⁠॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुड चरित विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ⁠॥⁠ २० ⁠॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठ के ३ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं)

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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