श्री बटेश्वरनाथ महिमा (श्री ब्रह्मलालजी महाराज)
“श्री बटेश्वरनाथ महिमा” श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित भगवान शिव को समर्पित कविता है। इस अद्भुत कविता का आनंद लें।
भस्म अंग सोहै रुचि नीलकंठ मोहै मन,
हाथ में त्रिशूल राजे चन्द्रमा ललाट पै।
गले में भुजंगहार, जूड़े बीच गंगधार,
आसन लगाय बैठे, ऊँचे सैलराट पै।
तीनि नेत्रधारी अविकारी सुखकारी महा,
बैल की सवारी बलिहारी ठाटबाट पै।
काशी के समान आशुतोष ब्रह्मलाल प्रभु,
आइ कें बिराजे हौ बटेश्वर के घाट पै।
काशी बसि विश्वनाथ, सेतुबन्ध रामेश्वर,
जाइ गुजरात सोमनाथ कहलाए हौ।
मुक्ति के प्रदाता बनि छाए गढ़मुक्तेश्वर,
तिरहुत जाइ बैजनाथ बनि आए हौ।
गोला गोकरन नाथ गोला में निवास करै,
भूत नासिबे को भूतनाथ जस पाये हौ।
कहूँ तारकेश्वर, महेश्वर, विश्वेश्वर हू,
ब्रह्मलाल बनि के बटेश्वर में आए हौ।
देवनि के देव महादेव जू त्रिशूलपाणि,
शम्भु जौ पिनाकी वामदेव नाम पाये हौ।
ईश, शिवशंकर गिरीश गिरिजा के पति,
नीलकंठ कंठ कालकूट धारि आये हौ।
रुद्र, त्रिपुरारी, असुरारी, मदनारी, हर,
काल हू के काल महाकाल कहलाये हौ।
कालेश्वर, नागेश्वर, भूतेश्वर, भस्मेश्वर,
ब्रह्मलाल बनिकें बटेश्वर में आये हौ।
देत वरदान सकुचात नहीं नैंक मन,
पाइ के अशीष हरषात महापातकी।
जै जै धुनि गावैं, भोला बाबा कों चढ़ाबैं जल,
आरती उतारे गननायक के तात की।
कोटि-कोटि पापनि कौ दूरि अंधकार होत,
माथे पै किरन देखि चंद्र अवदात की।
देखि भक्ति भक्त की जो बेटी हू कौं बेटा करै,
ऐसी महाशक्ति है, बटेश्वर के नाथ की।
मुण्डनि की माल विकराल व्याल अंग-अंग,
सघन जटान बीच गंगा भरमाये हौ।
वाहन अनंग न मृगेश-मृगछाला धारि,
डमरू त्रिशूल दौनों हाथनि सजाये हौ।
वाम अंग गिरिजा गजानन को गोद लए,
दाहिने षडानन कौ आसन लगाये हौ।
पाप-ताप-दाप छार-छार करिवे के हेतु,
ब्रह्मलाल बनिकें बटेश्वर में आये हौ।
धाई चली आयी गिरिराज हू के अंक में ते,
चूमती चरन चन्द्रशेखर की प्यारी है।
स्यामल अमल जल नाचत सदा ही रहै,
कलित कलिंदजा की छवि अति न्यारी है।
काशी के समान ही बनाय अर्धचन्द्र धार,
कुंजनि में गुंजति अनौखी दुति बारी है।
आइकें बटेश्वर महेश्वर ने मान दियौ-
नारी हू तें क्योंकि होति सारी अति प्यारी है।
धार में नहात बहिजात सिब पाप ताप,
कूल पै चलें ते तन कष्ट कटि जात हैं।
रेत में सहेत लोटि पोटि के करोरनि के,
खोटनि के खोट झटपट झरि जात हैं।
कोटिक प्रपंच हू कछारनि में छार होत,
कुंजनि में बैठि दुख पुंज छटि जात हैं।
ऐसौ है प्रताप ब्रह्मलाल महाराज जू कौ,
जमुना नहाये जमताप मिटि जात हैं।
नाथनि के नाथ हों अनाथ दौनों हाथ जोरि,
बन्दना करत हौं चरन विश्वनाथ की।
आशुतोष आइ अविलम्ब अपनाऔ मोय,
पापिन की पाँति में हौं एकु महापातकी।
किंकर कहात देव तेंतिस करोड़ याके,
योगी ज्ञानी ध्यानी हू की बात नहिं हाथ की।
भुक्ति-मुक्ति इंगित पै याके सदा नाचि रही,
ऐसी महाशक्ति है बटेश्वर के नाथ की।
हमें उम्मीद है ब्रज भाषा की यह मनमोहक कविता “श्री बटेश्वरनाथ महिमा” आपको पसंद आयी होगी। कृपया टिप्पणी करके अपनी राय साझा करें।
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।