धर्मस्वामी विवेकानंद

दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का अन्तिम जन्मोत्सव – विवेकानंद जी के संग में

विषय – दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का अन्तिम जन्मोत्सव – धर्मराज्यम में उत्सव तथा पर्व की आवश्यकता – अधिकारियों के भेदानुसार सब प्रकार के लोक-व्यवहारों की आवश्यकता – किसी भी नवीन सम्प्रदाय का गठन न करना ही स्वामी विवेकानंद के धर्म-प्रचार का उद्देश्य।

स्थान – दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर और आलमबाजार मठ

वर्ष – १८९७ (मार्च)

जब स्वामीजी प्रथम बार इंग्लैण्ड से लौटे तब आलमबाजार में रामकृष्ण मठ था। जिस भवन में मठ था उसे लोग ‘भूतभवन’ कहते थे – परन्तु वहाँ संन्यासियों के सत्संग से यह भूतभवन रामकृष्ण तीर्थ में परिणत हो गया था। वहाँ के साधन-भजन, जप, तपस्या, शास्त्र-प्रसंग और नाम-कीर्तन का क्या ठिकाना था! कलकत्ते में राजाओं के समान सम्मान प्राप्त होने पर भी स्वामी विवेकानंद उस टूटे-फूटे मठ में ही रहने लगे। कलकत्तानिवासियों ने उन पर श्रद्धान्वित होकर कलकत्ते की उत्तर दिशा काशीपुर में गोपाललाल शील के बाग में एक स्थान एक मास के लिए निर्धारित किया था। वहाँ भी स्वामी जी कभी कभी रहकर दर्शनोत्सुक लोगों से धर्म चर्चा करके उनके मन की इच्छा पूर्ण करने लगे।

श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव अब निकट है। इस वर्ष दक्षिणेश्वर, रानी रासमणि के काली मन्दिर में उत्सव के लिए काफी जोरों से तैयारी हुई है। प्रत्येक धर्मपिपासु मनुष्य के आनन्द और उत्साह की कोई सीमा नहीं है; रामकृष्ण-सेवकों का तो कहना ही क्या है। इसका विशेष कारण यह है कि विश्वविजयी स्वामीजी श्रीरामकृष्ण की भविष्यवाणी को सफल करके इस वर्ष विलायत से लौट आये हैं। उनके सब गुरुभाई आज उनसे मिलकर श्रीरामकृष्ण के सत्संग का आनन्द अनुभव कर रहे हैं। माँ काली के मन्दिर की दक्षिण दिशा में प्रसाद बन रहा है। स्वामीजी कुछ गुरुभाईयों को अपने साथ लेकर नौ-दस बजे के लगभग आ पहुँचे। उनके पैर नंगे थे और सिर पर गेरुए रंग की पगड़ी थी। उनकी आनन्दित मूर्ति का दर्शन कर चरणकमलों का स्पर्श करने और उनके श्रीमुख से जाज्वल्य अग्निशिखा के सदृश कथाओं को सुनकर कृतार्थ होने के लिए लोग चारों ओर से आने लगे। इसी कारण आज स्वामीजी के विश्राम के लिए तनिक भी अवसर नहीं है। माँ काली के मन्दिर के सामने हजारों लोग एकत्रित हैं। स्वामीजी ने जगन्माता को भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और उनके साथ ही साथ सहस्रों और लोगों ने भी उसी तरह वन्दना की। तत्पश्चात् श्रीराधाकान्तजी की मूर्ति को प्रणाम करके श्रीरामकृष्ण के वासगृह में पधारे। यहाँ ऐसी भीड़ हुई कि तिल भर स्थान शेष न रहा। काली मन्दिर की चारों दिशाएँ ‘जय रामकृष्ण’ शब्द से भर गयीं। होरमिलर (Hoarmiller) कम्पनी का जहाज लाखों दर्शकों को आज अपनी गोद में बिठाकर बराबर कलकत्ते से ला रहा है। नौबत आदि के मधुर स्वर पर सुरधुनी गंगा नृत्य कर रही है। मानो उत्साह, आकांक्षा, धर्मपिपासा और अनुराग साक्षात् देह धारणकर श्रीरामकृष्ण के पार्षदों के रूप में चारों ओर विराजमान हैं। इस वर्ष के उत्सव का अनुमान ही किया जा सकता है। भाषा में इतनी शक्ति कहाँ कि उसका वर्णन कर सके।

स्वामीजी के साथ आयी हुई दो अंग्रेज महिलाएँ उत्सव में उपस्थित हैं। उनसे शिष्य अभी तक परिचित न था। स्वामीजी उनको साथ लेकर पवित्र पंचवटी और बिल्ववृक्ष को दिखला रहे थे। स्वामीजी से शिष्य का विशेष परिचय न होने पर भी उनके पीछे पीछे जाकर उत्सवविषयक स्वरचित एक संस्कृत स्तोत्र उनके हाथ मे दिया। स्वामीजी भी उसे पढ़ते हुए पंचवटी की ओर चले। चलते चलते शिष्य की ओर देखकर बोले, “अच्छा लिखा है, तुम और भी लिखना।”

पंचवटी के एक ओर श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ भक्तगण एकत्रित हैं। गिरीशचन्द्र घोष पंचवटी की उत्तर दिशा में गंगा की ओर मुँह किये बैठे हैं और उनको घेरे बहुत-से भक्त श्रीरामकृष्ण के गुणों के व्याख्यान और कथाप्रसंग में मग्न हुए बैठे हैं। इसी अवसर पर बहुतसे लोगों के साथ साथ स्वामीजी गिरीशचन्द्रजी के पास उपस्थित हुए और “अरे! घोषजी यहाँ हैं! यह कहकर उनको प्रणाम किया। गिरीशबाबू को पिछली बातों का स्मरण कराकर स्वामीजी बोले, “घोषजी, वह भी एक समय था और यह भी एक समय है।” गिरीशबाबू स्वामी जी से सहमत हो बोले, “हाँ, बहुत ठीक; किन्तु अभी तक मन चाहता है कि और भी देखूँ।” दोनों में जो ऐसा वार्तालाप हुआ, उसका गूढ़ अर्थ ग्रहण करने में और कोई समर्थ न हुआ। कुछ देर वार्तालाप कर स्वामीजी पंचवटी की उत्तर-पूर्व दिशा में जो बिल्ववृक्ष था, वहाँ चले गये। स्वामीजी के चले जाने पर गिरीशबाबू ने उपस्थित भक्तमण्डली को सम्बोधन करके कहा, “एक दिन हरमोहन मित्र ने संवाद-पत्र में पढ़कर मुझसे कहा था कि अमरीका में स्वामीजी के नाम पर निन्दा प्रकाशित की गयी है। मैंने तब उनसे कहा था कि यदि मैं अपनी आँखों से नरेन्द्र को कोई बुरा काम करते देखूँ तो यह अनुमान करूँगा कि मेरी आँखों में विकार उत्पन्न हुआ है और उनको निकाल दूँगा। वे (नरेन्द्रादि) सूर्योदय से पहले निकाले हुए माखन के सदृश स्वच्छ और निर्मल हैं; क्या संसार-रूपी पानी में वे फिर घुल सकते हैं? जो उनमें दोष निकालेगा वह नरक का भागी होगा।” यह वार्तालाप हो ही रहा था की स्वामी निरंजनानन्दजी गिरीशबाबू के पास आये और कोलम्बो से कलकत्ते तक लौटने की घटना – किस प्रकार लोगों ने स्वामीजी का आदर और सत्कार किया और स्वामीजी ने अपनी वक्तृता में उनको कैसा अनमोल उपदेश दिया – आदि का वर्णन करने लगे। गिरीशबाबू इन बातों को सुनकर आश्चर्यचकित हो बैठे रहे।

उस दिन दक्षिणेश्वर के देवालय में इस प्रकार दिव्य भाव का प्रवाह बह रहा था। अब यह विराट जनसंघ स्वामीजी की वक्तृता को सुनने के लिए उद्ग्रीव होकर खड़ा हो गया। परन्तु अनेक चेष्टा करने पर भी स्वामीजी लोगों के कोलाहल की अपेक्षा ऊँचे स्वर से वक्तृता न दे सके। लाचार होकर उन्होंने इस उद्यम का परित्याग किया और दोनों अंग्रेज महिलाओं को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण का साधना-स्थान दिखाने और उनके बड़े बड़े सांगोपांग भक्तों से परिचय कराने लगे। धर्मशिक्षा के निमित्त ये दो अंग्रेज स्त्रियाँ बहुत दूर से स्वामीजी के साथ आयी हैं यह जानकर किसी किसी को बहुत आश्चर्य हुआ और वे स्वामीजी की अद्भुत शक्ति की प्रशंसा करने लगे।

तीसरे पहर तीन बजे स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “एक गाड़ी लाओ, मठ को जाना है।” शिष्य आलमबाजार तक के लिए दो आने किराये पर एक गाड़ी साथ ले आया। स्वामीजी उसमें बैठकर स्वामी निरंजनानन्दजी, और शिष्य को साथ ले बड़े आनन्द से मठ को चले। जाते जाते शिष्य से कहने लगे, “जिन भावों की अपने जीवन या कार्य में स्वयं सफलता प्राप्त न की हो, उन भावों की केवल चर्चा मात्र से क्या होता है? यही सब उत्सवों का भी अभिप्राय है कि इन्हीं से तो सर्वसाधारण में ये सब भाव धीरे धीरे फैलेंगे। हिन्दुओं के बारह महीनों में कितने ही पर्व होते हैं और उनका उद्देश्य यही है कि धर्म में जितने बड़े बड़े भाव हैं उनको सर्वसाधारण में फैलाये। परन्तु इसमें एक दोष भी है। साधारण लोग इनका यथार्थ भाव न जान उत्सवों में ही मग्न हो जाते हैं और उनकी पूर्ति होने पर कुछ लाभ न उठा ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस कारण ये उत्सव धर्म के बाहरी वस्त्र के समान धर्म के यथार्थ भावों को ढाँके रहते हैं।

“परन्तु इनमें से कुछ लोग ‘धर्म और आत्मा क्या है’ यह न जानने पर भी इनसे यथार्थ धर्म जानने की चेष्टा करेंगे। आज जो श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव हुआ है इसमें जो लोग आये थे उनके हृदय में श्रीगुरुदेव के विषय में जानने की – वे कौन थे जिनके नाम पर इतने लोग एकत्रित हुए और उन्हींके नाम पर क्यों वे आये हैं – इच्छा अवश्य उत्पन्न होगी। और जिनके मन में यह भाव भी न हुआ हो वे वर्ष में एक बार भजन सुनने तथा प्रसाद पाने के निमित्त भी आयेंगे, तो भी श्रीगुरुदेव के भक्तों के दर्शन अवश्य होंगे, जिनसे उनका उपकार ही होगा, न कि अपकार।”

शिष्य – यदि कोई इस उत्सव और भजन गान को ही धर्म का सार समझ लें तो क्या वे भी धर्म मार्ग में और आगे बढ़ सकेंगे? हमारे देश में जैसे षष्ठीपूजा, मंगलचण्डीपूजा आदि नित्यनैमित्तिक हो गयी हैं वैसे ही ये भी हो जायेंगे। इस प्रकार बहुत लोग मृत्युकाल तक पूजा करते रहते हैं, परन्तु मैंने तो ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं देखा जो ऐसे पूजन करते करते ब्रह्मज्ञ हो गया हो।

स्वामीजी – क्यों, इस भारत में जितने धर्मवीरों ने जन्म लिया वे सब इन्हीं पूजाओं के आश्रय से आगे बढ़े और ऊँची अवस्था को प्राप्त हुए हैं। इन्हीं पूजाओं का आश्रय लेकर साधना करते हुए जब वे आत्मदर्शन करते हैं, तब इन पर उनका कुछ भी ध्यान नहीं रहता; परन्तु लोकसंस्थिति के लिए अवतार-सदृश महापुरुषगण भी इन सभी को मानते हैं।

शिष्य – हाँ लोगों को दिखाने के लिए ऐसा मान सकते हैं, किन्तु जब आत्मज्ञ पुरुषों को यह संसार ही इन्द्रजालवत् मिथ्या प्रतीत होता है, तब क्या वे इन सब बाहरी लौकिक व्यवहारों को सत्यभाव से मान सकते हैं?

स्वामीजी – क्यों नहीं? जिनको हम सत्य समझते हैं वे भी तो देश, काल और पात्र के अनुसार भिन्न भिन्न (Relative) होते हैं। इसी कारण अधिकारियों के भेदानुसार इन सब व्यवहारों का प्रयोजन है। जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, “माता किसी सन्तान को पुलाव और कलिया पकाकर देती है और किसी को साबूदाना देती है।” उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए।

अब इन उत्तरों को सुन और समझ कर शिष्य चुप हो गया। इसी समय गाड़ी भी आलमबाजार के मठ में आ पहुँची। शिष्य गाड़ी का किराया देकर स्वामीजी के साथ मठ में गया और स्वामीजी के पीने के लिए जल ले आया। स्वामीजी ने जलपान कर अपना कुर्ता उतार डाला और जमीन पर जो दरी बिछी थी उसी पर अर्द्ध शयन करते हुए विश्राम करने लगे। स्वामी निरंजनानन्दजी जो पास ही विराजमान थे, बोले, “उत्सव में ऐसी भीड़ इसके पहले कभी नहीं हुई थी, मानो पूरा कलकत्ता यहाँ टूट पड़ा है।”

स्वामीजी – इसमें आश्चर्य ही क्या है, आगे न जाने क्या क्या होगा!

शिष्य – प्रत्येक धर्मसम्प्रदाय में यह पाया जाता है कि किसी न किसी प्रकार का बाहरी उत्सव और आमोद मनाया जाता है, परन्तु कोई भी किसी से मेल नहीं रखता! ऐसे उदार मोहम्मदीय धर्म में भी शीया-सुन्नियों में दंगा तथा फिसाद होता है। मैंने यह ढाका शहर में देखा है।

स्वामीजी – सम्प्रदाय होने पर थोड़ा-बहुत ऐसा अवश्य होगा ही, परन्तु क्या तू यहाँ के भाव को जानता है? हम तो कोई भी सम्प्रदायी नहीं। हमारे गुरुदेव ही इसी को दिखलाने के निमित्त जन्म लिया था। वे सब कुछ मानते थे, परन्तु यह भी कहते थे कि ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से यह सब मिथ्या माया ही है।

शिष्य – महाराज, आपकी बात समझ में नहीं आती। मेरे मन में कभी कभी ऐसा अनुमान होता है कि आप भी ऐसे उत्सवों का प्रचार करके श्रीरामकृष्ण के नाम से एक नये सम्प्रदाय को जन्म दे रहे हैं। मैंने पूज्यपाद नागमहाशय से सुना है कि श्रीगुरुदेव किसी भी सम्प्रदाय में नहीं थे। शाक्त, वैष्णव, ब्राह्मसमाजी, मुसलमान, ईसाई इन सभी धर्मों का वे बहुत मान करते थे।

स्वामीजी – तूने कैसे समझा कि हम सब मतों का उसी प्रकार मान नहीं करते?

यह कहकर स्वामीजी हँसकर स्वामी निरंजनानन्दजी से बोले, “अरे! यह गँवार कहता क्या है?”

शिष्य – कृपा करके इस बात को तो मुझे समझा दीजिये।

स्वामीजी – तूने तो मेरी वक्तृताएँ पढ़ी हैं। क्या कहीं भी मैंने श्रीरामकृष्ण का नाम लिया है? मैंने तो जगत् में केवल उपनिषदों के धर्म का ही प्रचार किया है।

शिष्य – महाराज, यह तो ठीक है। परन्तु आपसे परिचय होने पर मैं देखता हूँ कि आप श्रीरामकृष्ण में लीन हैं। यदि आपने श्रीगुरुदेव को भगवान् जाना है तो क्यों नहीं लोगों से आप यह स्पष्ट कह देते?

स्वामीजी – मैंने जो अनुभव किया है वही बतलाया है। यदि तूने वेदान्त के अद्वैत मत को ही ठीक माना है तो क्यों नहीं लोगों को भी यह समझा देता?

शिष्य – प्रथम मैं स्वयं अनुभव करूँगा, तभी तो समझाऊँगा। मैंने तो केवल इस मत को पढ़ा ही है।

स्वामीजी – तब पहले तू इसकी अनुभूति कर ले। फिर लोगों को समझा सकेगा। वर्तमान मैं तो प्रत्येक मनुष्य एक एक मत पर विश्वास करके चल रहा है इसमें तो तू कुछ कह ही नहीं सकता, क्योंकि तू भी तो अभी एक मत पर ही विश्वास करके चल रहा है।

शिष्य – हाँ महाराज, यह सत्य है कि मैं भी एक मत पर विश्वास करके चल रहा हूँ, किन्तु मैं इसका प्रमाण शास्त्र से देता हूँ। मैं शास्त्र के विरोधी मत को नहीं मानता।

स्वामीजी – शास्त्र से तेरा क्या अर्थ है? यदि उपनिषदों को प्रमाण माना जाय तो क्या बाइबिल, जेन्दावस्ता भी न माने जायें?

शिष्य – यदि इन पुस्तकों को प्रमाण स्वीकार करें भी, तो वेद के समान वे प्राचीन ग्रन्थ नहीं हैं। और वेद में जैसा आत्मतत्त्वसमाधान है वैसा और किसी में है भी नहीं।

स्वामीजी – अच्छा तेरी यह बात मैंने स्वीकार की, परन्तु वेद के अतिरिक्त और कहीं भी सत्य नहीं है यह कहने का मेरा क्या अधिकार है?

शिष्य – जी महाराज, वेद के अतिरिक्त और सब धर्मग्रन्थों में भी सत्य हो सकता है, इसके विरुद्ध मैं कुछ नहीं कहता, किन्तु मैं तो उपनिषद् के मत को ही मानूँगा। इसी में मेरा परम विश्वास है।

स्वामीजी – अवश्य मानो; परन्तु यदि किसी का अन्य किसी मत पर “परम” विश्वास हो तो उसको उसी विश्वास पर चलने दो। अन्त में देखोगे तुम और वह एक ही स्थान पर पहुँचोगे। महिम्न स्तोत्र में क्या तूने नहीं पढ़ा है, “त्वमसि पयसामर्णव इव?”

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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