धर्मस्वामी विवेकानंद

श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव भविष्य में सुन्दर बनाने की योजना

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०२ ईसवी

विषय – श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव भविष्य में सुन्दर बनाने की योजना – शिष्य को आशीर्वाद, “जब यहाँ पर आया है तो अवश्य ही ज्ञान प्राप्त होगा” – गुरु शिष्य की कुछ कुछ सहायता कर सकते हैं – अवतारी पुरुषगण एक मिनट में जीव के सभी बन्धनों को मिटा दे सकते हैं – ‘कृपा’ का अर्थ -देह-त्याग के बाद श्रीरामकृष्ण का दर्शन – पवहारी बाबा व स्वामीजी का प्रसंग।

आज श्रीरामकृष्णदेव का महामहोत्सव है – जिस उत्सव को स्वामीजी अन्तिम बार देख गये हैं। इस उत्सव के बाद बंगला आषाढ़ मास के बीसवें दिन रात्रि के लगभग नौ बजे, उन्होंने इहलौकिक लीला समाप्त की। उत्सव के कुछ पहले से स्वामीजी का शरीर अस्वस्थ है। ऊपर से नीचे नहीं उतरते, चल नहीं सकते, पैर सूज गये हैं। डाक्टरों ने अधिक बातचीत करने की मनाई की है।

शिष्य श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में संस्कृत भाषा में एक स्तोत्र की रचना करके उसे छपवाकर लाया है। आते ही स्वामीजी के पादपद्मों का दर्शन करने के लिए ऊपर गया है। स्वामीजी फर्श पर अर्धशायित स्थिति में बैठे थे। शिष्य ने आते ही स्वामीजी के पादपद्मों पर अपना मस्तक रखा और धीरे धीरे उन पर हाथ फेरने लगा। स्वामीजी शिष्य द्वारा रचित स्तव का पाठ करने के पूर्व उससे बोले, “बहुत धीरे धीरे पैरों पर हाथ फेर तो, पैरों में बहुत दर्द हो रहा है।” शिष्य वैसा ही करने लगा।

स्तव पाठ करके स्वामीजी प्रसन्न होकर बोले, “बहुत अच्छा बना है।”

हाय! शिष्य उस समय क्या जानता था कि उसकी रचना की प्रशंसा स्वामीजी इस जन्म में फिर न कर सकेंगे।

स्वामीजी की शारीरिक अस्वस्थता इतनी बढ़ी हुई जानकर शिष्य का मुख म्लान हो गया और वह रुलासा हो गया।

स्वामीजी शिष्य के मन की बात समझकर बोले, “क्या सोच रहा है? शरीर धारण किया है, तो नष्ट भी हो जायगा। तू यदि लोगों में मेरे भावों को कुछ कुछ भी प्रविष्ट करा सका, तो समझूँगा कि मेरा शरीर धारण करना सार्थक हुआ है।”

शिष्य – हम क्या आपकी दया के योग्य है? अपने गुणों के कारण आपने स्वयं दया करके जो कर दिया है, उसीसे अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ।

स्वामीजी – सदा याद रखना, ‘त्याग’ ही है मूलमन्त्र! इस मन्त्र में दीक्षा प्राप्त किये बिना, ब्रह्मा आदि की भी मुक्ति का उपाय नहीं है।

शिष्य – महाराज, आपके श्रीमुख से यह बात प्रतिदिन सुनकर इतने दिनों में भी उसकी धारणा नहीं हुई है। संसार के प्रति आसक्त्ति न गयी। क्या यह कम खेद की बात है? आश्रित दीन सन्तान को आशीर्वाद दीजिये, जिससे शीघ्र ही उसके हृदय में उसकी धारणा हो जाय।

स्वामीजी – त्याग अवश्य आयगा, परन्तु जानता है न – ‘कालेनात्मनि विन्दति’ – समय आये बिना नहीं आता। पूर्व जन्म के संस्कार कट जाने पर ही त्याग प्रकट होगा।

इन बातों को सुनकर शिष्य बड़े कातर भाव से स्वामीजी के चरणकमल पकड़कर कहने लगा, “महाराज, इस दीन दास को जन्म जन्म में अपने चरणकमलों में शरण दें – यही ऐकान्तिक प्रार्थना है। आपके साथ रहने पर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में भी मेरी इच्छा नहीं होती।”

उत्तर में स्वामीजी कुछ भी न कहकर, अन्यमनस्क होकर न जाने क्या सोचने लगे। मानो वे सुदूर भविष्य में अपने जीवन के चित्र को देखने लगे। कुछ समय के बाद फिर बोले, “लोगों की भीड़ देखकर क्या होगा? आज मेरे पास ही ठहर! और निरंजन को बुलाकर द्वार पर बैठा दे ताकि कोई मेरे पास आकर मुझे तंग न करे!” शिष्य ने दौड़कर स्वामी निरंजनानन्द को स्वामीजी का आदेश बतला दिया। स्वामी निरंजनानन्द भी सभी कामों को छोड़कर सिर पर पगड़ी बाँध हाथ में डण्डा लेकर स्वामीजी के कमरे के दरवाजे के सामने आकर बैठ गये।

इसके बाद कमरे का दरवाजा बन्द करके शिष्य फिर स्वामीजी के पास आया। ‘मन भरकर स्वामीजी की सेवा कर सकेगा’ – ऐसा सोचकर आज उसका मन आनन्दित है। स्वामीजी की चरणसेवा करते करते वह बालक की तरह मन की सभी बातें स्वामीजी के पास खोलकर कहने लगा। स्वामीजी भी हँसते हुए उसके प्रश्नों का उत्तर धीरे धीरे देने लगे।

स्वामीजी – मैं समझता हूँ, अब श्रीरामकृष्ण का उत्सव आगे इस प्रकार न होकर दूसरे रूप में हो तो अच्छा हो – एक ही दिन नहीं, बल्कि चार-पाँच दिन तक उत्सव रहे। पहले दिन – शास्त्र आदि का पाठ तथा प्रवचन हो। दूसरे दिन – वेद वेदान्त आदि पर विचार एवं मीमांसा हो। तीसरे दिन – प्रश्नोत्तर की बैठक हो। उसके पश्चात्, चौथे दिन – सम्भव हो तो व्याख्यान आदि हों और फिर अन्तिम दिन ऐसा ही महोत्सव हो। दुर्गापूजा जैसे चार दिन होती है वैसे ही हो। वैसा उत्सव करने पर अन्तिम दिन को छोड़कर दूसरे दिन सम्भव है श्रीरामकृष्ण की भक्तमण्डली के अतिरिक्त दूसरे लोग अधिक संख्या में न आयें। सो न भी आये तो क्या! बहुत लोगों की भीड़ होने पर ही श्रीरामकृष्ण के मत का प्रचार होगा ऐसी बात तो है नहीं।

शिष्य – महाराज, आपकी यह बहुत अच्छी कल्पना है; अगले साल वैसा ही किया जायगा। आपकी इच्छा है तो सब हो जायगा।

स्वामीजी – अरे भाई, वह सब करने में मन नहीं लगता। अब से तुम लोग वह सब किया करो।

शिष्य – महाराज, इस बार कीर्तन के अनेक दल आये हैं।

यह बात सुनकर स्वामीजी उन्हें देखने के लिए कमरे के दक्षिण वाली खिड़की का रेलिंग पकड़कर उठ खड़े हुए और आये हुए अगणित भक्तों की ओर देखने लगे। थोड़ी देर देखकर वे फिर बैठ गये। शिष्य समझ गया कि खड़े होने से उन्हें कष्ट हुआ है। अतः वह उनके मस्तक पर धीरे धीरे पंखा झलने लगा।

स्वामीजी – तुम लोग श्रीरामकृष्ण की लीला के अभिनेता हो! इसके बाद – हमारी बात तो छोड़ ही दो – तुम लोगों का भी संसार नाम लेगा। ये जो सब स्तव स्तोत्र लिख रहा है, इसके बाद लोग भक्ति-मुक्ति प्राप्त करने के लिए इन्हीं सब स्तवों का पाठ करेंगे। याद रखना, आत्मज्ञान की प्राप्ति ही परम साध्य है। अवतारी पुरुषरूपी जगद्गुरु के प्रति भक्ति होने पर समय आते ही वह ज्ञान स्वयं ही प्रकट हो जाता है।

शिष्य विस्मित होकर सुनने लगा।

शिष्य – तो महाराज, क्या मुझे भी उस ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी?

स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण के आशीर्वाद से तुझे अवश्य ज्ञान-भक्ति प्राप्त होगी। परन्तु गृहस्थाश्रम में तुझे कोई विशेष सुख न होगा।

शिष्य स्वामीजी की इस बात पर दुःखी हुआ और यह सोचने लगा कि फिर स्त्री-पुत्रों की क्या दशा होगी।

शिष्य – यदि आप दया करके मन के बन्धनों को काट दें तो उपाय है, नहीं तो इस दास के उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं है। आप श्रीमुख से कह दीजिये ताकि इसी जन्म में मुक्त हो जाऊँ।

स्वामीजी – भय क्या है? जब यहाँ पर आ गया है, तो अवश्य हो जायगा। शिष्य स्वामीजी के चरणकमलों को पकड़कर रोता हुआ कहने लगा, “प्रभो, अब मेरा उद्धार करना ही होगा।”

स्वामीजी – कौन किसका उद्धार कर सकता है बोल? गुरु केवल कुछ आवरणों को हटा सकते हैं। उन आवरणों के हटते ही आत्मा अपनी महिमा में स्वयं ज्योतिष्मान होकर सूर्य की तरह प्रकट हो जाती है।

शिष्य – तो फिर शास्त्रों में कृपा की बात क्यों सुनते हैं?

स्वामीजी – कृपा का मतलब क्या है जानता है? जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार किया है, उनके भीतर एक महाशक्ति खेलने लगती है। ऐसे महापुरुष को केन्द्र बनाकर थोड़ी दूर तक व्यासार्द्ध लेकर जो एक वृत्त बन जाता है, उस वृत्त के भीतर जो लोग आ पड़ते हैं, वे उनके भाव से अनुप्राणित हो जाते हैं। अर्थात् वे उस महापुरुष के भाव में अभिभूत हो जाते हैं। अतः साधनभजन न करके भी वे अपूर्व आध्यात्मिक फल के अधिकारी बन जाते हैं। उसे यदि कृपा कहता है तो कह ले।

शिष्य – महाराज, क्या इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार कृपा नहीं होती?

स्वामीजी – वह भी है। जब अवतार आते हैं, तब उनकी लीला के साथ साथ मुक्त एवं मुमुक्षु पुरुषगण उनकी लीला की सहायता करने के लिए देह धारण करके आते हैं। करोड़ो जन्मों का अन्धकार हटाकर केवल अवतार ही एक ही जन्म में मुक्त कर दे सकते हैं, इसी का अर्थ है कृपा। समझा?

शिष्य – जी हाँ; परन्तु जिन्हें उनका दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, उनके उद्धार का क्या उपाय है?

स्वामीजी – उसका उपाय है – उन्हें पुकारना। पुकार पुकारकर अनेक लोग उनका दर्शन पाते हैं, ठीक हमारे जैसे शरीर में उनका दर्शन करते हैं और उनकी कृपा प्राप्त करते हैं।

शिष्य – महाराज, श्रीरामकृष्ण के शरीर छूट जाने के बाद क्या आपको उनका दर्शन प्राप्त हुआ था?

स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के बाद मैंने कुछ दिन गाजीपुर में पवहारी बाबा का संग किया था। उस समय पवहारी बाबा के आश्रम के निकट एक बगीचे में मैं रहता था। लोग उसे भूत का बगीचा कहा करते थे, परन्तु मुझे भय न लगता था। जानता तो है कि मैं ब्रह्मदैत्य, भूत-फूत से नहीं डरता। उस बगीचे में नींबू के अनेक पेड़ थे और वे फलते भी खूब थे। मुझे उस समय पेट की सख्त बीमारी थी, और इस पर वहाँ रोटी के अतिरिक्त और कुछ भिक्षा में भी नहीं मिलता था। इसलिए हाजमे के लिए नींबू का रस खूब पीता था। पवहारी बाबा के पास आना-जाना बहुत ही अच्छा लगता था। वे भी मुझे बहुत प्यार करने लगे। एक दिन मन में आया, श्रीरामकृष्णदेव के पास इतने दिन रहकर भी मैंने इस रुग्ण शरीर को दृढ़ बनाने का कोई उपाय तो नहीं पाया। सुना है, पवहारी बाबा हठयोग जानते हैं। उनसे हठयोग की क्रिया सीखकर देह को दृढ़ बनाने के लिए अब कुछ दिन साधना करूँगा। जानता तो है, मेरा पूर्व बंगाल का रुख है – जो मन में आयगा, उसे करूँगा ही। जिस दिन मैंने पवहारी बाबा से दीक्षा लेने का इरादा किया उसकी पिछली रात को एक खटिया पर सोकर पड़ा पड़ा सोच रहा था, इसी समय देखता हूँ, श्रीरामकृष्ण मेरी दाहिनी ओर खड़े होकर एक दृष्टि से मेरी ओर टकटकी लगाये हैं; मानो वे विशेष दुःखी हो रहे हैं। जब मैंने उनके चरणों में सर्वस्व समर्पण कर दिया है तो फिर किसी दूसरे को गुरु बनाऊँ? यह बात मन में आते ही लज्जित होकर मैं उनकी ओर ताकता रह गया। इसी प्रकार शायद दो-तीन घण्टे बीत गये। परन्तु उस समय मेरे मुख से कोई भी बात नहीं निकली। उसके बाद एकाएक वे अन्तर्हित हो गये। श्रीरामकृष्ण को देखकर मन न जाने कैसा हो गया! इसीलिए उस दिन के लिए दीक्षा लेने का संकल्प स्थगित रखना पड़ा। दो एक दिन बाद फिर पवहारी बाबा से मन्त्र लेने का संकल्प उठा। उसदिन भी रात को फिर श्रीरामकृष्ण प्रकट हुए – ठीक पहले दिन की ही तरह। इस प्रकार लगातार इक्कीस दिन तक उनका दर्शन पाने के बाद दीक्षा लेने का संकल्प एकदम त्याग दिया। मन में सोचा जब भी मन्त्र लेने का विचार करता हूँ, तभी इस प्रकार दर्शन होता है, तब मन्त्र लेने पर तो इष्ट के बदले अनिष्ट ही हो जायगा।

शिष्य – महाराज, श्रीरामकृष्ण के देह-त्याग के बाद क्या उनके साथ आपका कोई वार्तालाप भी हुआ था?

स्वामीजी इस प्रश्न का कोई उत्तर न देकर चुपचाप बैठे रहे। थोड़ी देर बाद शिष्य से बोले, “श्रीरामकृष्ण का दर्शन जिन लोगों को प्राप्त हुआ है, वे धन्य है। ‘कुलं पवित्रं जननी कृतार्था।’ तुम लोग भी उनका दर्शन प्राप्त करोगे। अब जब तुम लोग यहाँ आ गये हो तो अब तुम लोग भी यहीं के आदमी हो गये हो! ‘रामकृष्ण’ नाम धारण करके कौन आया था, कोई नहीं जानता। ये जो उनके अंतरंग – संगी-साथी हैं – उन्होंने भी उनका पता नहीं पाया। किसी किसी ने कुछ कुछ पाया है, पर बाद में सभी समझेंगे। ये राखाल आदि जो लोग उनके साथ आये हैं इनसे भी कभी कभी भूल हो जाती है। दूसरों की फिर क्या कहूँ?”

इस प्रकार बात चल रही थी। इसी समय स्वामी निरंजनानन्द ने दरवाजा खटखटाया। शिष्य ने उठकर निरंजनानन्द स्वामी से पूछा, “कौन आया है?” स्वामी निरंजनानन्द बोले, “भगिनी निवेदिता और अन्य दो अंग्रेज महिलाएँ।” शिष्य ने स्वामीजी से यह बात कही। स्वामीजी बोले, “वह अलखल्ला दे तो।” जब शिष्य ने वह उन्हे ला दिया, तो वे सारा शरीर ढककर बैठे और शिष्य ने दरवाजा खोल दिया। भगिनी निवेदिता तथा अन्य अंग्रेज महिलाएँ प्रवेश करके फर्श पर ही बैठ गयीं और स्वामीजी का कुशलसमाचार आदि पूछकर साधारण वार्तालाप करके ही चली गयीं। स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “देखो, ये लोग कैसे सभ्य हैं? बंगाली होते, तो अस्वस्थ देखकर भी कम से कम आधा घण्टा मुझे बकवाते!”

दिन के करीब ढाई बजे का समय है, लोगों की बड़ी भीड़ है। मठ की जमीन में तिल रखने तक का स्थान नहीं है। कितना कीर्तन हो रहा है, कितना प्रसाद बाँटा जा रहा है – कुछ कहा नहीं जाता।

स्वामीजी ने शिष्य के मन की बात समझकर कहा, “एक बार जाकर देख आ, मगर बहुत जल्द लौटना!” शिष्य भी आनन्द के साथ बाहर जाकर उत्सव देखने लगा। स्वामी निरंजनानन्द द्वार पर पहले की तरह बैठे रहे। लगभग दस मिनट के बाद शिष्य लौटकर स्वामीजी को उत्सव की भीड़ की बातें सुनाने लगा।

स्वामीजी – कितने आदमी होंगे?

शिष्य – कोई पचास हजार!

शिष्य की बात सुनकर, स्वामीजी उठकर खड़े हुए और उस जनसमूह को देखकर बोले, “नहीं, बहुत होंगे तो करीब तीस हजार!”

उत्सव की भीड़ धीरे धीरे कम होने लगी। दिन के साढ़े चार बजे के करीब स्वामीजी के दरवाजे खिड़कियाँ आदि सब खोल दिये गये। परन्तु उनका शरीर अस्वस्थ होने के कारण उनके पास किसी को जाने नहीं दिया गया।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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