श्री यमुना जी – ब्रज भाषा की कविता
“श्री यमुना जी” स्वर्गीय श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित यमुना मैया को समर्पित कविता है। इस अद्भुत कविता का आनंद लें–
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याकौ नाम लेत जमराज की जमाति डरै,
पापिन के पाप दरि देति एक पल में।
दुःख दहलावै याके निकट न आवैं भूलि,
आँखि जो मिलावै दम नाहीं काहू खल में।
कुटिल कुचाली कामी सामुहैं परै न कोऊ,
देत ही दहाड़ वे पछाड़ खात थल में।
नरक न जान देति ढिंग आइ गयौ ताहि-
ऐसी करामाति भानु नन्दिनी के जल में॥
भानु की सुता को तेज प्रबल प्रभाकर सौ,
याकै समुहैं डटै जो कोऊ ऐसौ तमु ना।
गुननि गिनाऊँ ऐसौ गुन नहिं एक पास,
नारद गनेस, सेस हू की नेंक दमु ना ।
टूँक-टूँक करति अटूट कलि बन्धन कौं,
दरस कियें तें रहै कोऊ उर भ्रम ना।
पाप पुन्य बनि जात, ताप मिटि जात न्हात,
जमुना जहाँ जहाँ, तहाँ तहाँ ही जमुना।
अघनि विदारिणी सम्भारनी सकल काज,
पाप के पहाड़ काटिबे कौ धार छैनी है।
करम लिखे हू खोटे आँकनि कौं मैंटि देति,
देति है समेटि धन-मान, सुख दैनी है।
तीनि ताप मेंटति झपेटति कुटिल-क्रूर,
कलिमल धोइबे रजत जैसी फैनी है।
सोभा की सदन, भूमि मारिवे मदन वारी,
तरल तरंगें तेरी सरग नसैनी है।
पाँव के उठाबत ही भानु नन्दिनी की ओर-
कोटिक जमन के हू पाप ना थिरात हैं।
जात ही कछारन में छार-छार होत अघ,
कूल पै चलें तें नाहिं मूड़ऊ पिरात हैं।
लोटि-लोटि रेती माहिं मुक्ति मनि-मोती मिलें,
जंगी जोरदार तीनि ताप हू सिरात हैं।
जल के छुएँ ते मल नेंकु न रहत पास,
धार में नहात सारे औगुन हिरात है।
तरनि तनूजा तेरे नीर को प्रभाव देखि,
आये ब्रजभूमि घनस्याम अभिराम हैं।
कूल औ कछारनि में गैयनि के संग-संग,
डोलत फिरे न कबौं सोची छाँह-घाम हैं।
तेरे कुंज-कुंज में बजाई बाँसरी मधुर,
मथुरा औ गोकुल समाये धाम-धाम हैं।
पाई स्यामता जो तैनें ऐसी मोय लागि रही-
स्याम कैं बसी है तू औ तेरें बसे स्याम हैं।
कोऊ कहै नीलकंठ के गरे कौ काल कूट,
कोऊ कहै तेज भरी पूँछ हनुमान की।
कोऊ कहै कारी कारी वनराजि झुकी परै,
कोऊ कहै धनावलि झुकी है गुमान की ।
कोऊ हथियान की जमाति जोरदार कहै,
शनि की पताका कारी कोऊ अनुमान की।
कालि के कराल पाश काटिवे कृपान जैसी-
तुलति न तौलें धार अतुल तुलान की॥
पातक हरैया दुख दारिद दरैया मातु-
मेरी ओर हू तनिक एक दीठि डारियो।
धीरज धरैया नैया तू ही है अनाथनिकी,
बिगरी बनैया मेरी बिगरी सँभारियो।
हाथ जोरि ठाड़ी जोति की जगैया तूहै –
जमकी टरैया भव सागर तें तारियो।
जारियो ‘नवल’ पाप पुंज के पहार-मेरी-
तरनि तनैया मोकू नेंक ना बिसारियो॥
प्रात होत दरसन होंय नित तेरे मातु ।
इती प्रीति अपनी तू मोपै दरसाइयों ।
भ्रमतु रहौं जो जग-जाल में घनेरौ तौऊ-
चित्त मेरौ अपनी ही धार में धँसाइयो।
धोइ-धोइ मल तेरे जल में अमल करौं,
मन मेरे कौ न मातु नेंक तरसाइयो।
माँगत हौं एक बरदान यही बेर-बेर,
अपने किनारे काहू-गाम में बसाइयो।
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स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।