धर्मस्वामी विवेकानंद

शिष्य का स्वामी विवेकानंद को भोजन कराना – विवेकानंद जी के संग में

विषय – शिष्य का स्वयं भोजन पकाकर स्वामी विवेकानंद को भोजन कराना – ध्यान के स्वरूप और अवलम्बन सम्बन्धी चर्चा – बाहरी अवलम्बन केआश्रय पर भी मन को एकाग्र करना सम्भव – एकाग्रता होने पर भी पूर्वसंस्कारसे साधकों के मन में वासनाओं का उदय होना – मन की एकाग्रता से साधक को ब्रह्माभास तथा भाँति भाँति की विभूतियाँ प्राप्त करने का उपाय लाभ होजाना – इस अवस्था में किसी प्रकार की वासना से परिचालित होने पर ब्रह्मज्ञान का लाभ न होना।

स्थान – कलकत्ता

वर्ष – १८९७ ईसवी

आज सूर्य ग्रहण होगा। ग्रहण सर्वग्रासी है। ग्रहण देखने के निमित्त ज्योतिषीगण भिन्न भिन्न स्थानों को गये हैं। धर्म पिपासु नरनारी दूर दूर से गंगास्नान करने आये हैं और बड़ी उत्सुकता से ग्रहण पड़ने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परन्तु स्वामीजी को ग्रहण के सम्बन्ध में कोई विशेष उत्साह नहीं है। स्वामीजी का आदेश है कि शिष्य अपने हाथ से भोजन पकाकर स्वामीजी को खिलाये। शाक, तरकारी और रसोई पकाने के सब उपयोगी पदार्थ इकट्ठा कर प्रातःकाल आठ बजे शिष्य बलराम बसुजी के घर पर पहुँचा। उसको देखकर स्वामीजी ने कहा, “तुम्हारे देश में जिस प्रकार भोजन1 पकाया जाता है, उसी प्रकार बनाओ और ग्रहण पड़ने से पूर्व ही भोजन हो जाना चाहिए।”

बलराम बाबू के परिवार में से कोई भी कलकत्ते में नहीं था। इस कारण सारा घर खाली था। शिष्य ने भीतर के रसोईघर में जाकर रसोई पकाना आरम्भ किया। श्रीरामकृष्ण की प्रेमी स्त्रीभक्त योगीन माता ने पास ही उपस्थित रहकर रसोई के निमित्त सब चीजों का आयोजन किया और कभी कभी पकाने का ढंग बतलाकर उसकी सहायता करने लगीं। स्वामीजी भी बीच बीच में वहाँ आकर रसोई देखकर शिष्य को उत्साहित करने लगे और कभी “तरकारी का ‘झोल’ (शोरवा) तुम्हारे पूर्वबंग के ढंग का पके” कहकर हँसी करने लगे।

जब भात, मूंग की दाल, झोल, खटाई, सुक्तुनी आदि सब पदार्थ पक चुके तब स्वामीजी स्नान कर आ पहुँचे और स्वयं ही पत्तल बिछाकर बैठ गये। “अभी सब रसोई नहीं बनीं है, “कहने पर भी कुछ नहीं सुना, बड़े हठी बच्चे के समान बोले, “बड़ी भूख लगी है, अब ठहरा नहीं जाता, भूख के मारे आँतें जल रही हैं।” लाचार होकर शिष्य ने सुक्तुनी और भात परोस दिया। स्वामीजी ने भी तुरन्त भोजन करना आरम्भ कर दिया। तत्पश्चात् शिष्य ने कटोरी में अन्यान्य शाकों को परोसकर सामने रख दिया। फिर योगानन्द तथा प्रेमानन्द प्रमुख अन्य सब संन्यासियों को अन्न तथा शाकादि परोसने लगे। शिष्य रसोई पकाने में निपुण नहीं था, किन्तु आज स्वामीजी ने उसकी रसोई की बहुत बहुत प्रशंसा की। कलकत्तेवाले “पूर्वबंग की सुक्तुनी” के नाम से ही बड़ी हँसी करते हैं, किन्तु स्वामीजी यह भोजन कर बहुत ही प्रसन्न हुए और बोले, “ऐसी अच्छी रसोई मैंने कभी नहीं पायी। यह ‘झोल सब्जी’ जैसी चटपटी बनी है, ऐसी और कोई तरकारी नहीं बनी।” खटाई चखकर बोले, “यह बिलकुल बर्दवानवालों के ढंग पर बनी है।” अन्त में सन्देश (मिठाई) तथा दही से स्वामीजी ने भोजन समाप्त किया और आचमन करके घर के भीतर खटिया पर जा बैठे। शिष्य स्वामीजी के सामनेवाले दालान में प्रसाद पाने को बैठ गया। स्वामीजी ने बातचीत करते करते उससे कहा, “जो अच्छी रसोई नहीं पका सकता वह साधु भी नहीं बन सकता। यदि मन शुद्ध न हो तो किसी से अच्छी स्वादिष्ट रसोई नहीं पकती।”

थोड़ी देर बाद चारों ओर शंख-ध्वनि होने लगी तथा घण्टा बजने लगा और स्त्रीकण्ठ की ‘उलु’ ध्वनि सुनाई दी। स्वामीजी बोले, “अरे, ग्रहण पड़ने लगा, मैं सो जाऊँ, तू चरणसेवा कर।” यह कहकर वे कुछ आलस्य और तन्द्रा का अनुभव करने लगे। शिष्य भी उनकी पदसेवा करते करते विचार करने लगा, “ऐसे पुण्य समय में गुरुपदों की सेवा करना ही मेरा जप, तपस्या और गंगास्नान है।” ऐसा विचार कर शान्त मन से स्वामीजी की सेवा करने लगा। ग्रहण के समय सूर्य के छिप जाने से चारों दिशाओं में सायंकाल के समान अन्धेरा छा गया।

जब ग्रहण मुक्त होने में पन्द्रह-बीस मिनट ही थे, तब स्वामीजी सोकर उठे और मुँह हाथ धोकर हँसकर शिष्य से बोले, “लोग कहते हैं कि ग्रहण के समय यदि कुछ किया जाये, तो उससे करोड़ गुना अधिक फल प्राप्त होता है। इसलिए मैंने यह सोचा था कि महामाया ने तो इस शरीर को अच्छी नींद दी ही नहीं; यदि इस समय कुछ देर सो जाऊँ तो आगे अच्छी नींद मिलेगी, परन्तु ऐसा नहीं हो सका। अधिक से अधिक कोई पन्द्रह मिनट ही सोया हूँगा।”

इसके बाद स्वामीजी के पास सब के आ बैठने पर, स्वामीजी ने शिष्य को उपनिषद् के सम्बन्ध में कुछ सोचने का आदेश किया। इससे पहिले शिष्य ने स्वामीजी के सामने कभी वक्तृता नहीं दी थी। उसका हृदय काँपने लगा, परन्तु स्वामीजी छोड़नेवाले कब थे। लाचारी से शिष्य खड़ा होकर “परांचि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः” मन्त्र पर व्याख्यान देने लगा। इसके आगे गुरुभक्ति और त्याग की महिमा वर्णन की और ब्रह्मज्ञान ही परम पुरुषार्थ है, यह सिद्धान्त बतलाकर बैठ गया। स्वामीजी ने शिष्य का उत्साह बढ़ाने को बार बार करतलध्वनि कर कहा, “बहुत अच्छा! बहुत अच्छा!!”

तत्पश्चात् स्वामीजी ने शुद्धानन्द, प्रकाशानन्द आदि स्वामियों को कुछ बोलने का आदेश दिया। स्वामी शुद्धानन्द ने ओजस्विनी भाषा में ध्यान सम्बन्धी एक छोटा-सा व्याख्यान दिया। उसके बाद स्वामी प्रकाशानन्द आदि के कुछ व्याख्यान होने पर स्वामीजी वहाँ से बाहर बैठक में आये। तब सन्ध्या होने में कोई घण्टा भर था। वहाँ सब के पहुँचने पर स्वामीजी ने कहा, “जिसको जो कुछ पूछना हो, पूछो।”

शुद्धानन्द स्वामी ने पूछा, “महाराज, ध्यान का स्वरूप क्या है?”

स्वामीजी – किसी विषय पर मन को एकाग्र करने का ही नाम ध्यान है। किसी एक विषय पर भी मन की एकाग्रता होने से उसकी एकाग्रता जिसमें चाहो उसमें कर सकते हो।

शिष्य – शास्त्र में विषय और निर्विषय के भेदानुसार दो प्रकार के ध्यान पाये जाते हैं। इसका क्या अर्थ है और उनमें से कौन श्रेष्ठ है?

स्वामीजी – प्रथम किसी एक विषय का आश्रय कर ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है। किसी समय मैं एक छोटे-से काले बिन्दु पर मन को एकाग्र किया करता था। परन्तु कुछ दिन में अभ्यास के बाद वह बिन्दु मुझे दीखना बन्द हो जाता था। वह मेरे सामने है या नहीं यह भी विचार नहीं कर सकता था। वायुहीन समुद्र के समान मन का सम्पूर्ण निरोध हो जाता था। अर्थात् वृत्तिरूपी कोई लहर नहीं रहती थी। ऐसी अवस्था में मुझे अतीन्द्रिय सत्य की परछाई कुछ कुछ दिखायी देती थी। इसलिए मेरा विचार है कि किसी सामान्य बाहरी विषय का भी आश्रय लेकर ध्यान करने का अभ्यास करने से मन की एकाग्रता होती है। जिसमें जिसका मन लगता है, उसीका आश्रय कर ध्यान का अभ्यास करने से मन शीघ्र एकाग्र हो जाता है। इसीलिए हमारे देश में इतने देव-देवी-मूर्तियों के पूजने की व्यवस्था है। देव-देवीपूजा से ही शिल्प की उन्नति हुई है। परन्तु इस बात को अभी छोड़ दो। अब बात यह है कि ध्यान का बाहरी अवलम्बन सब का एक नहीं हो सकता। जो जिस विषय के आश्रय से ध्यान-सिद्ध हो गया है, वह उस अवलम्बन का ही वर्णन और प्रचार कर गया है। तत्पश्चात् क्रमशः वे मन के स्थिर करने के लिए हैं, इस बात के भूलने पर लोगों ने इस बाहरी अवलम्बन को ही श्रेष्ठ समझ लिया है। जो उपाय था, उसको लेकर लोग मग्न हो रहे हैं और जो उद्देश्य था, उस पर लक्ष्य कम हो गया है। मन को वृत्तिहीन करना ही उद्देश्य है; किन्तु किसी विषय में तन्मय न होने से यह कभी नहीं हो सकता।

शिष्य – मनोवृत्ति के विषयाकार होने से उसमें फिर ब्रह्म की धारणा कैसे हो सकती है?

स्वामीजी – वृत्ति पहले विषयाकार होती है, यह ठीक है; किन्तु तत्पश्चात् उस विषय का कोई ज्ञान नहीं रहता, तब शुद्ध ‘अस्ति’ मात्र का ही बोध रहता है।

शिष्य – महाराज, मन की एकाग्रता होने पर भी कामनाओं और वासनाओं का उदय क्यों होता है?

स्वामीजी – यह सब पूर्व संस्कार से होता है। बुद्धदेव जब समाधि अवस्था को प्राप्त करने को ही थे, उस समय भी ‘मार’ उनके सामने आया। ‘मार’ स्वयं कुछ भी नहीं था, वरन् मन के पूर्वसंस्कार का ही छायारूप से बाहर प्रकाश हुआ था।

शिष्य – सिद्ध होने के पहले नाना विभीषिका देखने की बातें जो सुनने में आती हैं, क्या वे सब मन की ही कल्पनाएँ हैं?

स्वामीजी – और नहीं तो क्या? यह निश्चित है कि उस अवस्था में साधक विचार नहीं कर सकता कि यह सब उसके मन का ही बाहरी प्रकाश है; परन्तु वास्तव में बाहर कुछ भी नहीं है। यह जगत् जो देखते हो यह भी नहीं है; सभी मन की कल्पनाएँ हैं। मन के वृत्तिशून्य होने पर उसमें ब्रह्माभास होता है। ‘यं यं लोकं मनसा संविभाति’ उन उन लोकों के दर्शन होते हैं। जो संकल्प किया जाता है वही सिद्ध होता है। ऐसी सत्यसंकल्प अवस्था लाभ करके भी जो जागरूक रह सकता है, किसी भी प्रकार की वासनाओं का दास नहीं होता, वही सिद्ध होता है; परन्तु जो ऐसी अवस्था लाभ करने पर विचलित हो जाता है, वह नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त करके परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है।

इन बातों को कहते कहते स्वामीजी बारम्बार ‘शिव’ नाम का उच्चारण करने लगे। अन्त में फिर बोले, “बिना त्याग के इस गम्भीर जीवन-समस्या का गूढ अर्थ निकालना और किसी प्रकार से भी सम्भव नहीं है। ‘त्याग’ – ‘त्याग’, यही तुम्हारे जीवन का मूलमन्त्र होना चाहिए। ‘सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।’ ”


  1. बंगवासियों का प्रधान आहार भात है, परन्तु इसके साथ दाल, झोल (शोरवा), नाना स्वादिष्ट तरकारियाँ (जैसे, ‘चच्चडी’ ‘डालना’ ‘सुक्तुनी’ ‘घन्टो’, ‘भाजा’ तथा ‘टक’ इत्यादि) न पकाने से उनकी भोजनपरिपाटी नहीं होती, वे दो चार हरी तरकारियों को एक साथ मिलाकर भिन्न भिन्न मसाले तथा उपकरण के संयोजन से कटु, तिक्त, अम्ल, मधुर रसों की तरकारी पकाने में बड़े निपुण होते हैं। पूर्व बंगवासियों की यह एक विशेषता है कि वे तरकारियों में मसाला, विशेष करके लाल मिर्च बहुत डालते हैं। स्वामी जी. सी. कहकर पुकारा करते थे।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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