राजयोग पर चतुर्थ पाठ – स्वामी विवेकानंद
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Rajyog Par Chaturtha Paath: Swami Vivekananda
मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार अध्ययन करना चाहिए।
चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों से खींच लेना होगा और उसे एक विचार में केन्द्रित करना होगा। बार बार इस क्रिया को करना होगा। इच्छा-शक्ति द्वारा मन को वश में करना होगा तथा उसकी क्रिया को रोककर उसे ईश्वर की महिमा के चिन्तन में लगाना होगा।
मन को स्थिर करने का सब से सरल उपाय है, चुपचाप बैठ जाना और कुछ समय के लिए वह जहाँ जाए, जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, “मैं मन को भटकते हुए देखने वाला साक्षी हूँ। मैं मन नहीं हूँ।” तत्पश्चात् मन को ऐसा सोचता हुआ कल्पना करो कि मानो वह तुमसे बिलकुल भिन्न है। अपने को ईश्वर से एक मानो, मन अथवा जड़ पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो।
सोचो कि मन तुम्हारे सामने एक विस्तीर्ण तरंगहीन सरोवर है तथा आने-जानेवाले विचार इसकी सतह पर उठने और समा जानेवाले बुलबुले हैं। विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन् कल्पनानेत्र से उनको देखते रहो और जैसे जैसे वे प्रवाहित होते हैं, वैसे वैसे तुम भी उनके पीछे चलो। यह क्रिया धीरे धीरे मन के वृत्तों को सीमित कर देगी। कारण यह है कि मन विचार की विस्तृत परिधि में घूमता है और ये परिधियाँ विस्तीर्ण होती हुई निरन्तर बढ़ने वाले वृत्तों में फैलती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि सरोवर में ढेला फेंकने पर होता है। हमें इस प्रक्रिया को उलट देना है और बड़े वृत्तों से प्रारम्भ करके उन्हें क्रमशः छोटा बनाते जाना है ताकि अन्त में हम मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीं रोक सकें। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, “मैं मन नहीं हूँ, मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ। मैं अपने मन की क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ”। इससे प्रतिदिन विचार और भावना से अपना तादात्म्यभाव कम-कम होता जाएगा, यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से सम्पूर्णतया पृथक् कर सकोगे और प्रत्यक्ष अनुभव कर सकोगे कि मन तुमसे अलग है।
इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जाएगा और तुम उसके ऊपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। योगी होने की प्रथम स्थिति है – इन्द्रियों से परे हो जाना। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जितना सम्भव हो सके, अकेले रहो। तुम्हारे आसन की ऊँचाई सुविधाजनक हो। प्रथम कुशासन बिछाओ, उस पर मृगचर्म और उसके ऊपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो और वह स्थिर हो।
चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अतः हमें उनकी सृष्टि नहीं करनी चाहिए। हमें अपने मन से सारे विचार दूर हटाकर उसे रिक्त कर देना चाहिए। ज्योंही विचार आएँ, त्योंही उन्हें दूर भगाना चाहिए। इस कार्य में समर्थ होने के लिए हमें जड़ वस्तु और देह के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुतः मनुष्य का समस्त जीवन ही इसे साधने का प्रयास है।
प्रत्येक ध्वनि का अपना अर्थ होता है। हमारी प्रकृति में ये दोनों परस्पर-सम्बद्ध हैं।
हमारा सर्वोच्च आदर्श ईश्वर है। ईश्वर का ध्यान करो। हम ज्ञाता को नहीं जान सकते, हम तो वही हैं।
अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत् हमारा दर्पण है। यह छोटा-सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा-सा दर्पण है; समस्त विश्व ही हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिए, इससे हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि वह तो हमारा ही स्वरूप है। हम जन्मरहित और मृत्युरहित हैं तथा हमें प्रेम ही करते रहना चाहिए।
“यह समस्त विश्व मेरा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख मेरा सुख है, क्योंकि यह सब कुछ विश्व के अन्तर्गत है।” कहो, “मैं विश्व हूँ।” अन्त में हमे ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रतिबिम्बित हो रही है।
यद्यपि हम छोटी छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि हमारे पीछे आधार के रूप में सम्पूर्ण समुद्र है और हम उसके साथ एक हैं। लहर का अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं है। कोई लहर समुद्र को छोड़कर नहीं रह सकती।
यदि कल्पना-शक्ति का योग्य उपयोग किया जाए, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। वह युक्ति के परे जा सकती है और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।
अन्तःप्रेरणा हमारे भीतर से उठती है। हमें स्वयं अपनी उच्च मनःशक्तियों की सहायता से इसे जगाना होगा।