गुरु के अधिकारी होने का प्रश्न – स्वामी विवेकानंद
Guru Ke Adhikaari Hone Ka Prashna: Swami Vivekananda
इस लेख में स्वामी विवेकानंद गुरु-निष्ठा के सिद्धान्त की चर्चा कर रहे हैं। आध्यात्मिक उन्नति के लिए गुरु को आवश्यक माना गया है।
लेकिन उसके प्रति कितना समर्पण-भाव आवश्यक है, यह जानना भी ज़रूरी है। साथ ही स्वामी जी यहाँ अद्वैत वेदान्त और मूर्ति-पूजा के संबंध को भी स्पष्ट कर रहे हैं।
एक वार्तालाप के बीच में स्वामी जी ने बलपूर्वक कहा – अपने व्यापारी, हिसाब-किताब करनेवाले विचारों को छोड़ दो। यदि तुम किसी एक वस्तु से भी अपनी आसक्ति तोड़ सकते हो, तो तुम मुक्ति के मार्ग पर हो। किसी वेश्या, अथवा पापी, अथवा साधु को भेद दृष्टि से मत देखो। वह कुलटा नारी भी दिव्य माँ है। संन्यासी एक बार, दो बार कहता है कि वह माँ है : तब वह फिर भ्रमित हो जाता है और कहता है, “भाग यहाँ से, अरी व्यभिचारिणी कुलटा नारी!” एक क्षण में तुम्हारा सब अज्ञान तिरोहित हो सकता है। यह कहना मूर्खता है कि अज्ञान धीरे-धीरे जाता है। ऐसे भी शिष्य हैं, जो आदर्श से च्युत हुए अपने गुरु के भी भक्त बने रहते हैं। मैंने राजपूताने में एक ऐसे शिष्य को देखा है, जिसका आध्यात्मिक गुरु ईसाई हो गया था, पर फिर भी जो उसकी दक्षिणा नियमित रूप से दिये जा रहा था। अपने पश्चिमी विचारों को छोड़ो। एक बार जब तुमने किसी गुरु-विशेष में विश्वास किया है, तो सम्पूर्ण शक्ति से उसके साथ लगे रहो। वे बालक हैं, जो यह कहते हैं कि वेदांत में नैतिकता नहीं है। हाँ, एक अर्थ में, वे सही हैं। वेदांत नैतिकता से ऊपर है। तुम संन्यासी हो गये हो, अत: ऊँचे विषयों की बात करो।
बलात् कम-से-कम एक वस्तु को ब्रह्म मानकर उस पर विचार करो। राम-कृष्ण को ईश्वर मानना निश्चय ही सरल है, पर खतरा यह है कि हम दूसरों में ईश्वर-बुद्धि नहीं उत्पन्न कर सकते। ईश्वर नित्य, निराकार, सर्वव्यापी है। उसे विशेष रूपधारी समझना पाखंड होगा। पर मूर्ति-पूजा का रहस्य यह है कि तुम किसी एक वस्तु में अपनी ईश्वर-बुद्धि विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हो।