स्वामी विवेकानंद की अहंकार शून्यता
स्थान – कलकत्ते से मठ में जाते हुए नाव पर
वर्ष – १९०२ ईसवी
विषय – स्वामीजी की अहंकार शून्यता – काम-कांचन को बिना छोडे श्रीरामकृष्ण को ठीक ठीक समझना असम्भव है – श्रीरामकृष्णदेव के अन्तरंगभक्त कौन लोग हैं – सर्वत्यागी संन्यासी भक्तगण ही सर्वकाल में जगत् मेंअवतारी महापुरुषों के भावों का प्रचार करते हैं – गृही भक्तगण श्रीरामकृष्णके बारे में जो कुछ कहते हैं, वह भी आंशिक रूप से सत्य है – महान् श्रीरामकृष्णके भाव की एक बूँद धारण कर सकने पर मनुष्य धन्य हो जाता है – संन्यासीभक्तों को श्रीरामकृष्ण द्वारा विशेष रूप से उपदेश दान – समय आने पर समस्त संसार श्रीरामकृष्ण के उदार भाव को ग्रहण करेगा – श्रीरामकृष्ण की कृपाको प्राप्त करनेवाले साधुओं की सेवा-वन्दना मनुष्य के लिए कल्याणदायी है।
शिष्य ने आज तीसरे प्रहर कलकत्ते के गंगातट पर टहलते टहलते देखा कि थोड़ी दूरी पर एक संन्यासी अहिरीटोला घाट की ओर अग्रसर हो रहे हैं। वे जैसे पास आये तो देखा, वे साधु और कोई नहीं है – उसी के गुरुदेव स्वामी विवेकानन्दजी ही हैं।
स्वामीजी के बाँये हाथ में शाल के पत्ते के दोने में भुना हुआ चनाचूर है, बालक की तरह खाते खाते वे आनन्द से चले आ रहे हैं। जगत्विख्यात स्वामीजी को उस रूप में रास्ते पर चनाचूर खाते हुए आते देख शिष्य विस्मित होकर उनकी अहंकारशून्यता की बात सोचने लगा। वे जब समीप आये तो शिष्य ने उनके चरणों में प्रणत होकर उनके एकाएक कलकत्ता आने का कारण पूछा।
स्वामीजी – एक काम से आया था। चल तू मठ में चलेगा! थोड़ा भुना हुआ चना खा न! अच्छा नमक-मसालेदार है।
शिष्य ने हँसते हँसते प्रसाद लिया और मठ में जाना स्वीकार किया।
स्वामीजी – तो फिर एक नाव देख।
शिष्य भागता हुआ किराये से नाव लेने दौड़ा। किराये के सम्बन्ध में माझिओं के साथ बातचीत चल रही है, इसी समय स्वामीजी भी वहाँ पर आ पहुँचे। नाववाले ने मठ पर पहुँचा देने के लिए आठ आने माँगे। शिष्य ने दो आने कहा। “इन लोगों के साथ क्या किराये के बारे में लड़ रहा है?” यह कहकर स्वामीजी ने शिष्य को चुप किया और माझी से कहा, “चल, आठ आने ही दूँगा” और नाव पर चढ़े। भाटे के प्रबल वेग के कारण नाव बहुत धीरे धीरे चलने लगी और मठ तक पहुँचते पहँचते करीब डेढ़ घण्टा लग गया। नाव में स्वामीजी को अकेला पाकर शिष्य को निःसंकोच होकर सारी बातें उनसे पूछ लेने का अच्छा अवसर मिल गया। इसी वर्ष के २० आषाढ़ (बंगला) को स्वामीजी ने देहत्याग किया। उस दिन गंगाजी पर स्वामीजी के साथ शिष्य का जो वार्तालाप हुआ था, वही यहाँ पाठकों को उपहार के रूप में दिया जाता है।
श्रीरामकृष्ण के गत जन्मोत्सव में शिष्य ने उनके भक्तों की महिमा का कीर्तन करके जो स्तव छपवाया था, उसके सम्बन्ध में प्रसंग उठाकर स्वामीजी ने उससे पूछा, “तूने अपने रचित स्तव में जिन जिन का नाम लिया है, कैसे जाना कि वे सभी श्रीरामकृष्ण की लीला के साथी हैं?”
शिष्य – महाराज! श्रीरामकृष्ण के संन्यासी और गृही भक्तों के पास इतने दिनों से आना-जाना कर रहा हूँ, उन्हींके मुख से सुना है कि वे सभी श्रीरामकृष्ण के भक्त हैं।
स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण के भक्त हो सकते हैं परन्तु सभी भक्त तो उनकी लीला के साथियों में अन्तर्भूत नहीं हैं! उन्होंने काशीपुर के बगीचे में हम लोगों से कहा था, ‘माँ ने दिखा दिया, ये सभी लोग यहाँ के (मेरे) अन्तरंग नहीं हैं।’ स्त्री तथा पुरुष दोनों प्रकार के भक्तों के सम्बन्ध में उन्होंने उस दिन ऐसा कहा था।
उसके बाद वे अपने भक्तों में जिस प्रकार ऊँच नीच श्रेणियों का निर्देश किया करते थे, उसी बात को कहते कहते धीरे धीरे स्वामीजी शिष्य को भलीभाँति समझाने लगे कि गृहस्थ और संन्यासी जीवन में कितना अन्तर है।
स्वामीजी – कामिनी-कांचन का सेवन भी करेगा और श्रीरामकृष्ण को भी समझेगा – ऐसा भी कभी हुआ या हो सकता है? इस बात पर कभी विश्वास न करना। श्रीरामकृष्ण के भक्तों में से अनेक व्यक्ति इस समय अपने को ईश्वर कोटि’ ‘अन्तरंग’ आदि कहकर प्रचार कर रहे हैं। उनका त्याग-वैराग्य तो कुछ भी न ले सके, परन्तु कहते क्या हैं कि वे सब श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त हैं! उन सब बातों को झाडू मारकर निकाल दिया कर। जो त्यागियों के बादशाह हैं उनकी कृपा प्राप्त करके क्या कोई कभी कामकांचन के सेवन में जीवन व्यतीत कर सकता है?
शिष्य – तो क्या महाराज, जो लोग दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के पास उपस्थित हुए थे, उनमें से सभी लोग उनके भक्त नहीं है?
स्वामीजी – यह कौन कहता है? सभी लोग उनके पास आनाजाना करके धर्म की अनुभूति की ओर अग्रसर हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। वे सभी उनके भक्त हैं। परन्तु असली बात यह है कि सभी लोक उनके अन्तरंग नहीं हैं। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘अवतार के साथ दूसरे कल्प के सिद्ध ऋषिगण देह धारण करके जगत् में पधारते हैं। वे ही भगवान के साक्षात् पार्षद हैं। उन्हीं के द्वारा भगवान कार्य करते हैं या जगत् में धर्मभाव का प्रचार करते हैं।’ यह जान ले – अवतार के संगी-साथी एकमात्र वे लोग हैं जो दूसरों के लिए सर्वत्यागी हैं – जो भोगसुख को काक-विष्ठा की तरह छोड़कर ‘जगद्धिताय’ ‘जीवहिताय’ आत्मोत्सर्ग करते हैं। भगवान ईसा मसीह के सभी शिष्यगण संन्यासी हैं। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, श्रीचैतन्य महाप्रभु व बुद्धदेव की साक्षात् कृपा को प्राप्त करनेवाले सभी साथी सर्वत्यागी संन्यासी हैं। ये सर्वत्यागी ही गुरुपरम्परा के अनुसार जगत् में ब्रह्मविद्या का प्रचार करने आये हैं। किसने कब सुना है – काम-कांचन के दास बने रहकर भी कोई मनुष्य जनता का उद्धार करने या ईश्वरप्राप्ति का उपाय बताने में समर्थ हुआ है? स्वयं मुक्त न होने पर दूसरों को कैसे मुक्त किया जा सकता है? वेद, वेदान्त, इतिहास, पुराण सर्वत्र देख सकेगा – संन्यासीगण ही सर्व काल में सभी देशों में लोकगुरु के रूप में र्धम का उपदेश देते रहे हैं। यही इतिहास भी बतलाता है। History repeats itself – यथा पूर्वं तथा परम् – अब भी वही होगा। महा समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण की संन्यासी सन्तान ही लोकगुरु के रूप में जगत् में सर्वत्र पूजित हो रही है और होगी। त्यागी के अतिरिक्त दूसरों की बात सूनी आवाज की तरह शून्य में विलीन हो जायगी। मठ के यथार्थ त्यागी संन्यासीगण ही धर्मभाव की रक्षा और प्रचार के महा केन्द्रस्वरूप बनेंगे, समझा?
शिष्य – तो फिर श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ भक्तगण जो उनकी बातों का भिन्न भिन्न प्रकार से प्रचार कर रहे हैं, क्या वह सत्य नहीं है?
स्वामीजी – एकदम झूठा नहीं कहा जा सकता; परन्तु वे श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में जो कुछ कहते हैं, वह सब आंशिक सत्य है; जिसमें जितनी क्षमता है वह श्रीरामकृष्ण का उतना अंश ही लेकर चर्चा कर रहा है। वैसा करना बुरा नहीं है। परन्तु उनके भक्तों में यदि ऐसा किसी ने समझा हो कि वह जो समझा है अथवा कह रहा है, वही एकमात्र सत्य है, तो वह बेचारा दया का पात्र है। श्रीरामकृष्ण को कोई कह रहे हैं – तान्त्रिक कौल; कोई कहते हैं – चैतन्यदेव नारदीय भक्ति का प्रचार करने के लिए पैदा हुए थे; कोई कहते हैं – श्रीरामकृष्ण की साधना उनके अवतारत्व में विश्वास की विरोधी है; कोई कहते हैं – संन्यासी बनना श्रीरामकृष्ण की राय में ठीक नहीं हैं, इत्यादि। इसी प्रकार की कितनी ही बातें गृही भक्त के मुख से सुनेगा – उन सब बातों पर ध्यान न देगा। श्रीरामकृष्ण क्या हैं, वे कितने ही पूर्व अवतारों के जमे हुए भावराज्य के अधिराज हैं – इस बात को प्राणपण से तपस्या करके भी मैं रत्ती भर नहीं समझ सका। इसलिए उनके सम्बन्ध में संयत होकर ही बात करना उचित है। जो जैसा पात्र है, उसे वे उतना ही देकर पूर्ण कर गये हैं। उनके भाव-समुद्र की एक बूँद को भी यदि धारण कर सके तो मनुष्य देवता बन सकता है। सर्व भावों का इस प्रकार समन्वय जगत् के इतिहास में क्या और कहीं भी ढूँढ़ने पर मिल सकता है? इसीसे समझ ले, उनके रूप में कौन देह धारण कर आये थे। अवतार कहने से तो उन्हें छोटा कर दिया जाता है। जब वे अपने संन्यासी सन्तानों को उपदेश दिया करते थे, तब बहुधा वे स्वयं उठकर चारों ओर खोज करके देख लेते थे कि वहाँ पर कोई गृहस्थ तो नहीं है। और जब देख लेते कि कोई नहीं है, तभी ज्वलन्त भाषा में त्याग और तपस्या की महिमा का वर्णन करते थे। उसी संसार-वैराग्य की प्रचण्ड उद्दीपना से ही तो हम संसारत्यागी उदासीन हैं।
शिष्य – महाराज, वे गृहस्थ और संन्यासियों के बीच इतना अन्तर रखते थे?
स्वामीजी – यह उनके गृही भक्तों से पूछकर देख। यही क्यों नहीं समझ लेता कि उनकी जो सब सन्तान ईश्वर-प्राप्ति के लिए ऐहिक जीवन के सभी भोगों का त्याग करके पहाड़, पर्वत, तीर्थ तथा आश्रम आदि में तपस्या करते हुए देह का क्षय कर रही है वह बड़ी है अथवा वे लोग जो उनकी सेवा, वन्दना, स्मरण, मनन कर रहे हैं और साथ ही संसार के मायामोह में ग्रस्त हैं?’ जो लोग आत्मज्ञान में, जीवसेवा में जीवन देने को अग्रसर हैं, जो बचपन से ऊध्वरेता हैं, जो त्याग वैराग्य के मूर्तिमान चल विग्रह हैं वे बड़े हैं अथवा वे लोग, जो मक्खी की तरह एकबार फूल पर बैठते हैं पर दूसरे ही क्षण विष्ठा पर बैठ जाते हैं? – यह सब स्वयं ही समझकर देख।
शिष्य – परन्तु महाराज, जिन्होंने उनकी (श्रीरामकृष्ण की) कृपा प्राप्त कर ली है, उनकी फिर गृहस्थी कैसी? वे घर पर रहें या संन्यास ले ले दोनों ही बराबर हैं, मुझे तो ऐसा ही लगता है।
स्वामीजी – जिन्हें उनकी कृपा प्राप्त हुई है, उनकी मन-बुद्धि फिर किसी भी तरह संसार में आसक्त्त नहीं हो सकती। कृपा की परीक्षा तो है – काम-कांचन में अनासक्त्ति। वही यदि किसी की न हुई तो उसने श्रीरामकृष्ण की कृपा कभी ठीक ठीक प्राप्त नहीं की।
पूर्व प्रसंग इसी प्रकार समाप्त होने पर शिष्य ने दूसरी बात उठाकर स्वामीजी से पूछा, “महाराज, आपने जो देश विदेश में इतना परिश्रम किया है, उसका क्या परिणाम हुआ?”
स्वामीजी – क्या हुआ? – इसका केवल थोड़ा ही भाग तुम लोग देख सकोगे। समयानुसार समस्त संसार को श्रीरामकृष्ण का उदार भाव ग्रहण करना पड़ेगा। इसकी अभी सूचना मात्र हुई है। इस प्रबल बाढ़ के वेग में सभी को बह जाना पड़ेगा।
शिष्य – आप श्रीरामकृष्ण के बारे में और कुछ कहिये। उनका प्रसंग आपके श्रीमुख से सुनने में अच्छा लगता है।
स्वामीजी – यही तो कितना दिनरात सुन रहा है। उनकी उपमा वे ही हैं। उनकी तुलना है रे?
शिष्य – महाराज, हम तो उन्हें देख नहीं सकते। हमारे उद्धार का क्या उपाय है!
स्वामीजी – उनकी कृपा को साक्षात् प्राप्त करनेवाले जब इन सब साधुओं का सत्संग कर रहा है, तो फिर उन्हें क्यों नहीं देखा, बोल? वे अपनी त्यागी सन्तानों में विराजमान हैं। उनकी सेवा-वन्दना करने पर, वे कभी न कभी अवश्य प्रकट होंगे। समय आने पर सब देख सकेगा।
शिष्य – अच्छा महाराज, आप श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त किये हुए दूसरे सभी की बात कहते हैं। परन्तु आपके सम्बन्ध में वे जो कुछ कहा करते थे, वह बात तो आप कभी भी नहीं कहते?
स्वामीजी – अपनी बात और क्या कहूँगा? देख तो रहा है – मैं उनके दैत्य दानवों में से कोई एक होऊंगा। उनके सामने ही कभी कभी उन्हें भला-बुरा कह देता था। वे सुनकर हँस देते थे।
यह कहते कहते स्वामीजी का मुखमण्डल गम्भीर हो गया, गंगाजी की ओर शून्य मन से देखते हुए कुछ देर तक स्थिर होकर बैठे रहे। धीरे धीरे शाम हो गयी। नाव भी धीरे धीरे मठ में आ पहुँची। स्वामीजी उस समय एकाग्रचित्त हो गाना गा रहे थे – “(केवल) आशार आशा भवे आसा, आसा मात्र सार हल। एखन सन्ध्यावेलाय घरेर छेले घरे निये चल।”
भावार्थ – केवल आशा की आशा में दुनिया में आना हुआ, (और) आना भर ही सार हुआ है। अब साँझ के समय (मुझे) घर के लड़के को घर ले चलो।
गाना सुनकर शिष्य स्तम्भित होकर स्वामीजी के मुख की ओर देखता रह गया।
गाना समाप्त होने पर स्वामीजी बोले, “तुम्हारे पूर्व बंगाल प्रदेश में सुकण्ठ गायक पैदा नहीं होते। माँ गंगा का जल पेट में गये बिना सुकण्ठ गायक नहीं होता है।”
किराया चुकाकर स्वामीजी नाव से उतरे और कुरता उतारकर मठ के पश्चिमी बरामदे में बैठ गये। स्वामीजी के गौर वर्ण और गेरुए वस्त्र ने सायंकाल के दीपों के आलोक में अपूर्व शोभा को धारण किया।