स्वामी विवेकानंद के पत्र – एक अमेरिकन मित्र को लिखित (12 अप्रैल, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का एक अमेरिकन मित्र को लिखा गया पत्र)
अलामेडा, कैलिफोर्निया,
१२ अप्रैल, १९००
प्रिय –
‘माँ’ फिर से अनुकूल हो रही हैं। कार्य अब सफल हो रहे हैं। ऐसा होना ही था।
कर्म के साथ दोष अवश्य जुड़ा रहता है। मैंने उस संचित दोष का मूल्य बुरे स्वास्थ्य के रूप में चुकाया है। मैं प्रसन्न हूँ, उससे मेरा मन भी हलका हो गया है। जीवन में अब ऐसी शान्ति और कोमलता आ गयी है, जो पहले नहीं थी। मैं अब आसक्ति और उसके साथ साथ अनासक्ति दोनों सीख रहा हूँ, और क्रमशः अपने मन का स्वामी बनता जा रहा हूँ…
‘माँ’ ही अपना काम कर रही हैं; मै अब अधिक चिन्ता नहीं करता। प्रति क्षण मेरे समान सहस्रों पतंगें मरते हैं। उनका काम उसी प्रकार चलता रहता है। माँ की जय हो!… माँ की इच्छा के प्रवाह में निःसंग भाव से बहना, यही मेरा सम्पूर्ण जीवन रहा है। जिस समय मैंने इसमें बाधा डालने का यत्न किया है, उसी समय मैने कष्ट पाया है। उनकी इच्छा पूर्ण हो!…
मैं आनन्द में हूँ, मानसिक शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ तथा पहले की अपेक्षा मैं अब अधिक विरक्त हो गया हूँ। अपने सगे-सम्बन्धियों का प्रेम दिन दिन घट रहा है, और ‘माँ’ का प्रेम बढ़ रहा है। दक्षिणेश्वर में वटवृक्ष के नीचे श्रीरामकृष्ण के साथ रात्रिजागरण की स्मृतियाँ एक बार फिर से जाग्रत हो रही हैं। और काम? काम क्या है? किसका काम? किसके लिए मैं काम करू?
मैं स्वतंत्र हूँ। मै ‘माँ’ का बालक हूँ। वे ही काम करती हैं, वे ही खेलती हैं। मैं क्यों संकल्प बनाऊँ? मैं क्या संकल्प बनाऊँ? बिना मेरे संकल्प के ‘माँ’ की इच्छानुसार ही चीजें आयीं ओर गयीं। हम उनके यंत्र हैं, वे कठपुतली की तरह नचाती हैं।
विवेकानन्द