स्वामी विवेकानंद के पत्र – अपने गुरुभाइयों को लिखित (27 अप्रैल, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का अपने गुरुभाइयों को लिखा गया पत्र)
हाई व्यू, केवरशम,
रीडिंग, इंग्लैण्ड,
२७ अप्रैल, १८९६
कल्याणवरेषु,
शरत् के द्वारा सारे समाचार अवगत हुए। ‘दुष्ट गाय की अपेक्षा सूनी गोशाला श्रेयस्कर है।’ – यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी। मैं व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त करने के लिए यह नहीं लिखता, परन्तु तुम्हारी भलाई के लिए और भगवान् श्रीरामकृष्ण जिस उद्देश्य के लिए आये थे, उस उद्देश्य की सफलता के निमित्त इसे सभी के लिए लिखना चाहता हूँ। उन्होंने तुम सब लोगों का रक्षणभार मेरे ऊपर डाला था, और बताया था कि तुम सब लोग जगत् के कल्याण में सहायता करोगे – यद्यपि तुममें से अधिकांश इस बात को नहीं जानते। मेरा तुम्हें लिखने का यही विशेष कारण है। यदि तुम लोगों में ईर्ष्या और अहंकार के भावों ने जड़ पकड़ लिया, तो बड़े दुःख की बात होगी। जो लोग स्वयं कुछ समय तक सौहार्द भाव से एक साथ न रह सकें, वे क्या पृथ्वी पर सौहार्द-सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं? निःसन्देह नियमों से आबद्ध होना एक दोष है, परन्तु अपरिपक्व अवस्था में नियमों का पालन करना आवश्यक है, अर्थात् जैसा कि गुरुदेव कहते थे कि छोटे पौधे को चारों ओर से रूँधकर रखना चाहिए – इत्यादि। दूसरी बात यह कि आलसी लोगों के लिए वृथा बकवाद करना और परस्पर विरोध भाव उत्पन्न करना इत्यादि स्वाभाविक हैं। इसलिए निम्नलिखित उद्देश्य संक्षेप में लिखता हूँ। यदि तुम इसके अनुसार अग्रसर होगे, तो परम मंगल होगा। किन्तु ऐसा न करोगे, तो हमारे सारे श्रमों के विफल हो जाने की संभावना है।
पहले मैं मठ की व्यवस्था के विषय में लिखता हूँ –
१. मठ के लिए कृपया एक बड़ा सा मकान या बाग़ किराये पर लो, जहाँ सबको एक एक कमरा अलग अलग मिल सके। एक विशाल कमरा, जहाँ पुस्तकें रखी जा सकें, और एक छोटा सा कमरा अभ्यागतों से भेंट करने के लिए होना चाहिए। यदि सम्भव हो, तो उस घर में एक बड़ा कमरा और होना चाहिए, जहाँ जनता के लिए शास्त्रों का अध्ययन और धर्म का उपदेश हो सके।
२. कोई किसीसे मठ में मिलना चाहे, तो वह केवल उससे मिलकर चला जाय और दूसरों को कष्ट न दे।
३. प्रतिदिन, बारी बारी से, कुछ घंटों के लिए तुममे से एक को बड़े कमरे में जनता के लिए उपस्थित रहना चाहिए, जिससे जो प्रश्न वे करने आये हों, उनका सन्तोषजनक उत्तर उन्हें मिल सके।
४. सबको अपने अपने कमरे में रहना चाहिए, और किसी विशेष कार्य के अतिरिक्त दूसरों के कमरे में नहीं जाना चाहिए। जिसकी पुस्तकालय में पढ़ने की इच्छा हो उसे वहाँ जाकर अध्ययन करना चाहिए। पर, वहाँ तम्बाकू आदि नहीं पीनी चाहिए और दूसरों के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए। शान्तिपूर्वक अध्ययन होना चाहिए।
५. एक कमरे में भीड़ करके दिन भर बातचीत में समय गँवाना और अनेक व्यक्तियों का बाहर से आकर उस कोलाहल में सम्मिलित होना, इसका पूर्णतः निषेध होना चाहिए।
६. केवल वे लोग, जो धर्म-विज्ञासु हैं, शान्त भाव से आयें और अभ्यागतों के कमरे में प्रतीक्षा करें। जिस विशेष व्यक्ति से वे मिलना चाहते हों, उससे मिलने के पश्चात् वे चले जायँ। यदि उन्हेंं कोई सामान्य प्रश्न करना हो, तो उस दिन के सम्मेलन के प्रबंधकर्ता से पूछकर चले जायँ।
७. चुग़लख़ोरी, गुट्ट बनाना, दूसरों की निन्दा ईधर-उधर करना, इसका पूर्ण त्याग होना चाहिए।
८. एक छोटा कमरा आफिस के लिए नियुक्त हो। मंत्री को उस कमरे में रहना चाहिए और वहाँ काग़ज, स्याही तथा पत्र लिखने की और सब चीजें होनी चाहिए। मंत्री को आमदनी और व्यय का हिसाब रखना चाहिए। पत्र आदि सब उसके पास आने चाहिए और उसे सब उन उन व्यक्तियों को बिना खोले सौंप देने चाहिए। पुस्तकें और पत्रिकाएँ पुस्तकालय में भेज देनी चाहिए।
९. तम्बाक़ू आदि पीने के लिए, एक छोटा कमरा होना चाहिए। उस कमरे के अलावा और कहीं तम्बाकू नहीं पीनी चाहिए।
१०. जो आक्षेप करना या क्रोध दिखाना चाहे, वह मठ के सीमा के बाहर ऐसा करे। इससे किंचित् भी विचलित न होना चाहिए।
शासन-समिति
१. प्रतिवर्ष अध्यक्ष का बहुमत से चुनाव होगा। अगले वर्ष दूसरे का, और आगे भी इसी तरह से।
२. इस वर्ष राखाल (स्वामी ब्रह्मानन्द) को अध्यक्ष बना दो, इसी प्रकार किसी और को मंत्री, और पूजा-भोजन इत्यादि की देख-भाल के लिए किसी तीसरे व्यक्ति का चुनाव करो।
३.मंत्री का एक और कर्तव्य होगा। वह सबके स्वास्थ्य पर दृष्टि रखेगा। इस सम्बन्ध में मुझे तीन निर्देश देने हैं :
(क) प्रत्येक कमरे में प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निवाड़ी पलंग और गद्दा आदि होंगे। हर एक को अपना कमरा साफ रखना होगा।
(ख) पीने और पकाने के लिए स्वच्छ और निर्मल जल का प्रबन्ध करना होगा। अशुद्ध और मलिन जल में भोग पकाना महा पाप है।
(ग) हर एक को दो गेरुए वस्त्र दो, जैसे शरत् के लिए तुमने बनाये, और यह देखो कि वे साफ रखे जाते हैं। मकान के नीचे-ऊपर की सफाई परमावश्यक है (इस ओर दृष्टि रखनी होगी)।
४. जो संन्यासी बनना चाहे, उसे पहले ब्रह्मचारी बनाया जाय। एक वर्ष वह मठ में रहे और एक वर्ष बाहर रहे, तत्पश्चात् संन्यास की उसे दीक्षा दी जाय।
५. पूजा का काम इन्हींमें से एक ब्रह्मचारी को सौंपो और थोड़े समय बाद उन्हें बदलते रहो।
मठ के विभाग
मठ में निम्नलिखित विभाग होंगे :
१. अध्ययन २. प्रचार ३. धार्मिक साधना
१. अध्ययन – जो अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए पुस्तकों और शिक्षकों का प्रबन्ध करना इस विभाग का उद्देश्य होगा। प्रतिदिन प्रातः और सायं शिक्षकों को उनके लिए तैयार रहना चाहिए।
२. प्रचार – मठ के अन्दर और बाहर।
मठ के प्रचारकों को यह कार्य करना होगा कि वे जिज्ञासुओं को धर्म ग्रंथों में से पढ़कर सुनायें और उन्हें शिक्षा दें। साथ ही प्रश्न-कक्षा द्वारा भी वे उन्हें उपदेश दें। बाहर के उपदेशकों को गाँव गाँव जाकर उपदेश देना चाहिए और उपर्युक्त प्रकार के मठ भी भिन्न स्थानों में स्थापित करने का यत्न करना चाहिए।
३. धार्मिक साधना – जो लोग साधना करना चाहते हैं, यह विभाग उन लोगों की आवश्यकता को पूरा करने का यत्न करेगा; परन्तु जो व्यक्ति धार्मिक साधना में लगा है, वह दूसरों को अध्ययन या उपदेश देने से नहीं रोक सकेगा। जो भी इस नियम का उल्लंघन करेगा, उसे तुरन्त ही निकल जाने के लिए कहा जायगा। यह अनिवार्य है।
मठ के भीतर के उपदेशकों को भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म पर बारी बारी से शिक्षा देनी चाहिए। इसके लिए दिन और समय नियुक्त होना चाहिए और यह नित्य का कार्यक्रम कक्षा के दरवाजे पर लगा देना चाहिए। अर्थात् – भक्तिमार्ग के साधकों को जिस दिन ज्ञान के विषय पर कक्षा हो, उस दिन उपस्थित नहीं रहना चाहिए, जिससे उनकी भक्ति को कहीं हानि न पहुँचे, – इत्यादि इत्यादि।
तुम लोगों में से कोई भी वामाचार साधना के योग्य नहीं है। इसलिए मठ में इसकी साधना किसी प्रकार भी न होनी चाहिए। जो इसे न सुने, वह इस संघ को छोड़ दे। इस साधना का मठ में कभी नाम भी न लिया जाय। गुरु महाराज के संघ में जो दुष्ट, अधम वामाचार का प्रचार करेगा, उसके इहलोक और परलोक नष्ट हो जायँगे।
कुछ सामान्य निर्देश
१. यदि कोई महिला किसी संन्यासी से बात करने आये, तो उसे अभ्यागतों के कमरे में संन्यासी से मिलना चाहिए। कोई भी महिला पूजा-गृह को छोड़कर किसी और कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती।
२. किसी संन्यासी को स्त्रियों के मठ में रहने की आज्ञा न होगी। जो संन्यासी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, वह मठ से निकाल दिया जायगा। ‘दुष्ट गाय की अपेक्षा सूनी गोशाला श्रेयस्कर है।’
३. दुष्ट चरित्रवाले मनुष्यों का प्रवेश पूर्ण निषिद्ध है। किसी बहाने से उनकी छाया भी हमारे कमरे की देहली को पार न करे। यदि तुममें से कोई भी दुराचारी हो जाय, तो उसे तुरन्त निकाल दो, चाहे वह कोई भी हो। हमें दुष्ट गाय की जरूरत नहीं। प्रभु अनेक भले व्यक्तियों को लायेंगे।
४. कोई भी स्त्री पढ़ने के कमरे में (या उपदेशवाले स्थान में) कक्षा के समय या उपदेश के समय में आ सकती है, परन्तु नियत काल के पश्चात् उसे तुरन्त वह स्थान त्याग देना चाहिए।
५. कभी क्रोध प्रकट न करो, ईर्ष्या को मन में आश्रय न दो, और चुपके चुपके किसीकी चुग़ली न करो। अपने दोषों को दूर करने की जगह दूसरों के दोष देखना, यह निर्दयता और कठोर हृदय की पराकाष्ठा है।
६. भोजन का नियत समय होना चाहिए। सबके लिए एक आसन और एक नीची चौकी होना चाहिए, जिसमें वह आसन पर बैठ सके और चौकी पर थाली रख सके, जैसा कि राजपूताने में चलन है।
कार्यकारिणी समिति
सब पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त रूप से होना चाहिए, यह भगवान् बुद्ध का आदेश था, अर्थात् एक मनुष्य यह प्रस्ताव करे कि अमुक साधु इस वर्ष का अध्यक्ष हो, और सबको काग़ज के टुकड़ों पर ‘हाँ’ या ‘नही’ लिखकर उन्हें एक घड़े में डाल देना चाहिए। यदि अधिकांश ‘हाँ’ निकले, तो वह अध्यक्ष चुना जाना चहिए, इत्यादि। यद्यपि पदाधिकारियों का चुनाव इस प्रकार होना चाहिए, तथापि मेरा यह प्रस्ताव है कि इस वर्ष राखाल अध्यक्ष, तुलसी (स्वामी निर्मलानन्द) मंत्री और कोषाध्यक्ष; गुप्त (स्वामी सदानन्द) पुस्तकालयाध्यक्ष बनाये जायँ, और शशि (स्वामी रामकृष्णानन्द), काली (स्वामी अभेदानन्द), हरि (स्वामी तुरीयानन्द) और सारदा (स्वामी त्रिगुणातीतानन्द) शिक्षा और प्रचार के काम का बारी बारी से भार उठायें, इत्यादि। निःसन्देह ही एक पत्रिका आरम्भ करने का सारदा का विचार उत्तम है। परन्तु मैं उसे स्वीकार तब करूँगा, जब तुम सब लोग मिलकर उसे चला सको।
मतों आदि के बारे में मुझे यही कहना है कि यदि कोई श्रीरामकृष्ण देव को अवतार आदि स्वीकार करे, तो अच्छा है, यदि न करे, तो भी ठीक ही है। परन्तु सच बात तो यह है कि चरित्र के विषय में श्रीरामकृष्ण देव सबसे आगे बढ़े हुए हैं। उनके पहले जो अवतारी महापुरुष हुए है, उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक प्रगतिशील थे। अर्थात् प्राचीन आचार्य एकदेशीय थे, परन्तु इस नये अवतार या आचार्य की शिक्षा यह है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों का सम्मिलन होना चाहिए, जिससे एक नये समाज का निर्माण हो सके।… प्राचीन आचार्य निःसन्देह अच्छे थे, परन्तु यह इस युग का नया धर्म है – अर्थात् योग, ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय – आयु और लिंग-भेद के बिना, पतित से पतित तक में ज्ञान और भक्ति का प्रचार। पहले के अवतार ठीक थे, परन्तु श्रीरामकृष्ण के व्यक्तित्व में उनका समन्वय हो गया है। साधारण मनुष्य और नौसिखिये के लिए आदर्श में निष्ठा रखना विशेष महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् उन्हें यह सिखाओ कि यद्यपि सब महापुरुषों का यथोचित आदर करना चाहिए, तथापि अब श्रीरामकृष्ण की उपासना होनी चाहिए। दृढ़ निष्ठा के बिना पौरूष नहीं हो सकता। उसके बिना हनुमान जैसी शक्ति से कोई उपदेश नहीं कर सकता। फिर, पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है, जिसमें नवीन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद है। हे भगवन्, भूतकाल पर निरन्तर ध्यान लगाये रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा? अच्छा, अपने मत में थोड़ी कट्टरता भी आवश्यक है। परन्तु दूसरों की ओर हमें विरोध-भाव नहीं रखना चाहिए।
यदि तुम मेरे विचारों पर चलना विवेकयुक्त समझो, और यदि तुम इन नियमों का पालन करो, तो मैं तुम्हें पर्याप्त धन देता रहूँगा। अन्यथा तुम लोगों का संग एकदम त्याग दूँगा। कृपया यह पत्र गौरी माँ, योगेन माँ आदि को दिखा देना और उनके द्वारा स्त्रियों का मठ स्थापित करवाना। एक वर्ष के लिए गौरी माँ को उसका अध्यक्ष बनने दो। परन्तु तुममें से किसीको वहाँ नहीं जाना चाहिए। वे अपना कार्य स्वयँ सँभालें। तुम्हारे आदेश पर उन्हें काम नहीं करना है। मैं उस काम के लिए भी आवश्यक धन दूँगा।
भगवान् तुम्हें उचित राह पर चलाये! दो व्यक्ति भगवान् जगन्नाथ के दर्शन को गये। एक ने तो वहाँ जाकर भगवान् को ही देखा, परन्तु दूसरे ने देखा, वही गंदगी, जो उसके स्वयं के मन में व्याप्त थी!!!
मेरे मित्रों, निःसंदेह ही गुरुदेव की सेवा अनेकों ने की, परन्तु जब किसीके मन में अपने को असाधारण समझने का भाव जाग्रत हो, तब उसे यह समझना चाहिए कि यद्यपि उसने श्रीरामकृष्ण का सत्संग किया है, तथापि सच बात तो यह है कि उसने अपने मन की वाहियात बातें ही देखीं। यदि ऐसा न होता, तो वह कुछ अच्छे परिणाम दिखाता। गुरुदेव स्वयं हमेशा कहते थे, “वे भगवान् के नाम में नाचते और गाते थे, परन्तु अन्त उनका दुःखदायी होता था।” इस अधोगति के मूल में अहंकार है – यह सोचना कि हम दूसरों के समान महापुरुष हैं। कोई कहेगा, “वे (गुरुदेव) मुझसे भी प्रेम करते थे। हाय, घसीटा राम, तब क्या तुम्हारा ऐसा रुपान्तर होता? क्या ऐसा मनुष्य दूसरे से डाह करता या लड़ता हुआ अपने आपको गिरा देगा? यह याद रखो कि उनकी कृपा से बहुत से आदमी देवताओं की महिमा प्राप्त करेंगे – जहाँ कहीं उनकी कृपादृष्टि पड़ेगी, वहाँ यही परिणाम दिखायी देगा।… आज्ञा-पालन पहला धर्म है। अब जो मैं तुमसे कहता हूँ, उसे उत्साहपूर्वक करो। मैं देखूँ कि यह छोटे छोटे काम तुम कैसे करते हो। फिर धीरे धीरे बड़े काम होंगे।
तुम्हारा,
नरेन्द्र
पुनश्च – कृपया यह पत्र सबको पढ़कर सुनाओ और मुझे लिखो कि यह प्रस्ताव व्यवहार में लाना तुम उचित समझते हो या नहीं। कृपया राखाल से कहना कि जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच-नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच-नीच सोचने के लिए कभी नहीं रूकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है।
नरेन्द्र