स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – डॉ. नंजुन्दा राव को लिखित (14 जुलाई, 1896)

(स्वामी विवेकानंद का डॉ. नंजुन्दा राव को लिखा गया पत्र)

इंग्लैण्ड,
१४ जुलाई, १८९६

प्रिय नंजुन्दा राव,

‘प्रबुद्ध भारत’ की प्रतियाँ मिलीं तथा उनका कक्षा में वितरण भी कर दिया गया है। यह अत्यन्त सन्तोषजनक है; इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारत में इसकी बहुत बिक्री होगी। कुछ ग्राहक तो अमेरिका में ही बन जाने की आशा है। अमेरिका में इसका विज्ञापन देने की व्यवस्था मैंने पहले ही कर दी है एवं ‘गुड इयर’ ने उसे कार्य में भी परिणत कर दिया है। किन्तु यहाँ इंग्लैण्ड में कार्य अपेक्षाकृत कुछ धीरे-धीरे अग्रसर होगा। यहाँ पर बड़ी मुश्किल यह है कि सब कोई अपना-अपना पत्र निकालना चाहते हैं। ऐसा ठीक भी है, क्योंकि कोई भी विदेशी व्यक्ति असली अंग्रेजों की तरह अच्छी अंग्रेजी कभी नहीं लिख सकता तथा अच्छी अंग्रेजी में लिखने से विचारों का सुदूर तक जितना विस्तार हो सकेगा उतना हिन्दू-अंग्रेजी के द्वारा नहीं। साथ ही विदेशी भाषा में लेख लिखने की अपेक्षा कहानी लिखना और भी कठिन है।

मैं आपके लिए यहाँ ग्राहक बनाने की पूरी चेष्टा कर रहा हूँ; किन्तु आप विदेशी सहायता पर कतई निर्भर न रहें। व्यक्ति की तरह जाति को भी अपनी सहायता आप ही करनी चाहिए। यही यथार्थ स्वदेश-प्रेम है। यदि कोई जाति ऐसा करने में असमर्थ हो तो यह कहना पड़ेगा कि उसका अभी समय नहीं आया, उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मद्रास से ही यह नवीन आलोक भारत के चारों ओर फैलना चाहिए – इसी उद्देश्य को लेकर आपको कार्य-क्षेत्र में अग्रसर होना पड़ेगा। एक बात पर मुझे अपना मत व्यक्त करना है, वह यह कि पत्र का मुखपृष्ठ एकदम गँवारू, देखने में नितान्त रद्दी तथा भद्दा है। यदि सम्भव हो तो इसे बदल दें। इसे भावव्यंजक तथा साथ ही सरल बनायें – इसमें मानव-चित्र बिल्कुल नहीं होने चाहिए। ‘वटवृक्ष’ कतई प्रबुद्ध होने का चिन्ह नहीं है और न पहाड़, न सन्त ही, यूरोपीय दम्पत्ति भी नहीं। ‘कमल’ ही पुनरभ्युत्थान का प्रतीक है। ‘ललित कला’ में हम लोग बहुत ही पिछड़े हुए हैं, खासकर ‘चित्रकला’ में। उदाहरणस्वरूप, वन में वसन्त के पुनरागमन का एक छोटा सा दृश्य बनाइए – नवपल्लव तथा कलिकाएँ प्रस्फुटित हो रही हों। धीरे-धीरे आगे बढ़िए, सैकड़ों भाव हैं जिन्हें प्रकाश में लाया जा सकता है।

मैंने ‘राजयोग’ के लिए जो प्रतीक बनाया था, उसे देखिए। ‘लांगमैन ग्रीन एण्ड कम्पनी’ ने यह पुस्तक प्रकाशित की है। आपको यह बम्बई में मिल सकती है। राजयोग पर न्यूयार्क में जो व्याख्यान दिये थे, वही इसमें हैं।

आगामी रविवार को मैं स्विट्जरलैण्ड जा रहा हूँ और शरत्काल में इंग्लैण्ड वापस आकर पुनः कार्य प्रारम्भ करूँगा। यदि सम्भव हो सका तो स्विट्जरलैण्ड से मैं धारावाहिक रूप से आपको कुछ लेख भेजूँगा। आपको मालूम ही होगा कि मेरे लिए विश्राम अत्यन्त आवश्यक हो उठा है।

शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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