स्वामी विवेकानंद के पत्र – ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित (मई, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का ईसाबेल मैक्किंडली को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क
२ (वास्तव में पहली) मई, १८९४
प्रिय बहन,
मैं विवश हूँ, अभी तत्काल तुमको पुस्तिका नहीं भेज सकूँगा। अखबार की कुछ कतरनें भारत से आयी हैं, तुम्हें तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। पढ़ने के पश्चात् उन्हें श्रीमती बैग्ली के पास भेज देना। इस पत्र के सम्पादक मजूमदार के सम्बन्धी हैं। मैं बेचारे मजूमदार के लिए दुःखी हूँ!!
मुझे यहाँ अपने कोट के लिए अभीष्ट नारंगी रंग नहीं मिल सका, अतः जो सबसे अधिक उस जैसा मिला – पीलेपन की अधिकता लिये हुये गहरा लाल रंग – उसी से सन्तोष करना पड़ा।
कुछ दिनों में कोट तैयार हो जायेगा।
अभी उस दिन वाल्डोर्फ में व्याख्यान से मुझे ७० डालर प्राप्त हुए। कल के व्याख्यान से आशा है, कुछ अधिक ही प्राप्त होंगे।
७ ता. से १७ ता. तक बोस्टन में कार्यक्रम है, पर वे लोग बहुत कम देते हैं।
कल मैंने एक पाइप १३ डालर का खरीदा है – कृपया ‘फादर पोप’ से इसका जिक्र न करना। कोट में ३० डालर लगेंगे। मुझे खाना ठीक मिल रहा है… और पर्याप्त रुपये भी। आगामी लेक्चर के बाद बैंक में कुछ जमा करवा सकूँगा।
… शाम को मैं एक निरामिष भोज में बोलने जा रहा हूँ।
हाँ, मैं निरामिष हूँ…, क्योंकि जब वैसा खाना मिल जाता है, तो मैं उसे ही अधिक पसन्द करता हूँ। परसों लीमन एबॉट के यहाँ एक और मध्याह्न भोज का निमन्त्रण है। मेरा समय बहुत अच्छा बीत रहा है, बोस्टन में भी बहुत अच्छा बीतेगा – सिर्फ उस गर्हित लेक्चरबाजी को छोड़कर! जैसे ही १९ वीं तारीख बीतेगी – बोस्टन से शिकागो, एक छलांग… और फिर आराम और विश्राम की एक लम्बी साँस, दो-तीन हफ्ते तक विश्राम। बस, बैठा रहूँगा और बातें करूँगा, बातें और धूम्रपान।
हाँ, तुम्हारे न्यूयार्क के लोग बड़े भले हैं, सिर्फ बुद्धि की अपेक्षा उनके पास धन अधिक है।
मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच व्याख्यान देने जा रहा हूँ। श्रीमती ब्रीड ने बोस्टन और हार्वर्ड में तीन-तीन व्याख्यान आयोजित किये हैं। कुछ के आयोजन लोग यहाँ भी कर रहे हैं, जिससे शिकागो जाते समय मैं न्यूयार्क एक बार फिर जाऊँगा और उन्हें दो चार जोरदार बातें सुनाकर पैसे जेब में भर लूँगा और शिकागो उड़ जाऊँगा।
न्यूयार्क या बोस्टन से यदि तुम्हें कुछ ऐसा मँगाना हो, जो शिकागो में न मिलता हो, तो जल्दी ही लिख देना। अब मेरे पास ढेर से डालर हैं। तुम जो चाहोगी क्षण भर में भेज दूँगा। यह न सोचना कि इसमें कुछ अशोभन होगा – मेरे सम्बन्ध में कोई पाखण्ड नहीं। यदि मैं भाई हूँ, तो भाई हूँ – दुनिया में अगर किसी बात से मुझे नफरत करना है, तो पाखण्ड से।
तुम्हारा स्नेही भाई,
विवेकानन्द