स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखित (25 जुलाई, 1897)

(स्वामी विवेकानंद का मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखा गया पत्र)

अल्मोड़ा,
२५ जुलाई, १८९७

प्रिय मेरी,

अपना वादा पूरा कर देने के लिए अब मेरे पास अवकाश, इच्छा और अवसर है। इसलिए पत्र आरम्भ कर रहा हूँ। कुछ समय से मैं बहुत कमजोर हूँ और उसकी वजह से तथा अन्य कारणों से इस जयन्ती महोत्सव काल में मुझे अपनी इंग्लैण्ड की यात्रा स्थगित करनी पड़ी।

पहले तो मुझे अपने अच्छे तथा अत्यन्त प्रिय सुहृदों से एक बार फिर न मिलने की असमर्थता पर बड़ा दुःख हुआ, किन्तु कर्म का परिहार नहीं हो सकता और मुझे अपने हिमालय से ही सन्तोष करना पड़ा। किन्तु है तो यह दुःखद ही सौदा; क्योंकि जीवन्त आत्मा का जो सौन्दर्य मनुष्य के चेहरे पर चमकता है, वह जड़ पदार्थों के कितने ही सौन्दर्य की अपेक्षा अत्यधिक आह्लादकारी होता है।

क्या आत्मा संसार का आलोक नहीं है?

कई कारणों से लन्दन में कार्य को धीमी गति से चलना पड़ा, जिनमें अन्तिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है, रुपया है, मेरी दोस्त! जब मैं वहाँ रहता हूँ, रुपया येन केन प्रकारेण आ ही जाता है, जिससे कार्य चलता रहता है। अब हर आदमी अपना कन्धा झाड़ रहा है। मुझको फिर अवश्य आना है और कार्य को पुनरुज्जीवित करने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना है।

मैं काफी घुड़सवारी एवं व्यायाम कर रहा हूँ; किन्तु डॉक्टरों की सलाह से मुझे अधिक मात्रा में मखनिया दूध पीना पड़ा था, जिसका फल यह हुआ कि मैं पीछे की बजाय आगे की ओर अधिक झुक गया हूँ। यद्यपि मैं हमेशा से ही एक अग्रगामी मनुष्य हूँ, फिर भी मैं तत्काल ही बहुत अधिक मशहूर होना नहीं चाहता, और मैंने दूध पीना छोड़ दिया है।

मुझे यह पढ़कर खुशी हुई कि तुमको अपने भोजन के लिए अच्छी भूख लगने लगी है।

क्या तुम विम्बल्डन की कुमारी मार्गरेट नोबल को जानती हो? वह हमारे लिए परिश्रम के साथ कार्य कर रही है। अगर हो सके तो तुम उसके साथ पत्र-व्यवहार प्रारम्भ कर देना, और तुम मेरी वहाँ काफी सहायता कर सकती हो। उसका पता है, ब्राण्टवुड, वॉरप्ले रोड, विम्बल्डन।

तो, हाँ, तुमने मेरी छोटी-सी मित्र कुमारी आर्चर्ड से भेंट की और तुमने उसको पसन्द भी किया – यह अच्छी बात रही। उसके प्रति मेरी महान् आशाएँ हैं। जब मैं बहुत ही वृद्ध हो जाऊँगा तो जीवन के कर्मों से कैसे पूर्णतया विमुक्त होना चाहूँगा? तुम्हारे एवं कुमारी आर्चर्ड के सदृश अपने छोटे प्यारे मित्रों के नामों से संसार को प्रतिध्वनित होता हुआ सुनूँगा!

और हाँ, मुझे खुशी है कि मैं शीघ्रता से वृद्धत्व को प्राप्त हो रहा हूँ, मेरे बाल सफेद हो रहे हैं। ‘स्वर्ण के बीच रजत-सूत्र’ – मेरा तात्पर्य काले से है – शीघ्रता से चले आ रहे हैं।

एक उपदेष्टा के लिए युवक होना बुरा है, क्या तुम ऐसा नहीं सोचतीं? मैं तो ऐसा ही समझता हूँ, जैसा कि मैंने जीवन भर समझा। एक वृद्ध मनुष्य में लोगों की अधिक आस्था रहती है, और वह अधिक पूज्य नजर आता है। तथापि वृद्ध दुर्जन संसार में सबसे बुरे दुर्जन होते हैं। क्या ऐसी बात नहीं?

संसार के पास अपना न्याय-विधान है, जो दुर्भाग्य से सत्य से बहुत ही भिन्न है।

तो तुम्हारा ‘सार्वभौमिक धर्म’ ‘द मंडे रिव्यू’ के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है। इसकी कदापि चिन्ता न करना, किसी अन्य पत्र में प्रयत्न करो। एक बार कार्यारम्भ हो जाने पर तुम अधिक तेजी से बढ़ सकोगी, ऐसा मुझे विश्वास है। और मैं कितना प्रसन्न हूँ कि तुम कार्य से प्रेम करती हो; इससे मार्ग प्रशस्त होगा, इसके विषय में मुझे किंचित् भी संशय नहीं। हमारे विचारों के लिए एक भविष्य है, प्रिय मेरी – और यह शीघ्र ही कार्य रूप में परिणत होगा।

मैं सोचता हूँ कि यह पत्र तुम्हें पेरिस में मिलेगा – तुम्हारे मनोरम पेरिस में – और मैं आशा करता हूँ कि तुम मुझे बहुत कुछ लिखोगी, फ्रांसीसी पत्रकारिता एवं वहाँ होने वाले आगामी ‘विश्व-मेला’ के सम्बन्ध में।

मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि वेदान्त एवं योग के द्वारा तुम्हें सहायता मिली है। दुर्भाग्य से कभी-कभी मैं सरकस के उस विचित्र विदूषक के सदृश हो जाता हूँ, जो दूसरों को तो हँसाये किंतु स्वयं खिन्न हो।

स्वभावतः तुम प्रफुल्ल प्रवृत्ति की हो। कोई भी वस्तु तुम्हें स्पर्श करती नहीं लगती। साथ ही तुम एक दूरदर्शी लड़की हो, इस सीमा तक कि तुमने ‘प्यार’ एवं इसकी सम्पूर्ण मूर्खताओं से अपने को समझ-बूझकर अलग रखा है। अतः तुमने अपने शुभ कर्म का अनुष्ठान कर लिया है और अपने आजीवन मंगल का बीजवपन कर लिया है। जीवन में हमारी कठिनाई यह है कि हम भविष्य के द्वारा प्रेरित न होकर वर्तमान के द्वारा होते हैं। वर्तमान में जो वस्तु थोड़ा भी सुख देती हैं, हमें अपनी ओर खींच ले जाती है, और फलस्वरूप वर्तमान समय के थोड़े से सुख के लिए हम भविष्य के लिए एक बहुत बड़ी आपत्ति मोल ले लेते हैं।

मैं चाहता हूँ कि मुझे न कोई प्यार करने वाला होता, और बाल्यावस्था में अनाथ होता। मेरे जीवन की सबसे महान् विपत्ति मेरे अपने लोग रहे हैं – मेरे भाई-बहन एवं माँ आदि सम्बन्धी-जन व्यक्ति की प्रगति में भयावह अवरोध की तरह हैं, और क्या यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि लोग फिर भी वैवाहिक सम्बन्धों के द्वारा नये सम्बन्धियों की खोज करते रहेंगे!!!

जो एकाकी है, वह सुखी है। सबका समान मंगल करो, लेकिन किसी से ‘प्यार मत करो।’ यह एक बन्धन है, और बन्धन सदा दुःख की ही सृष्टि करता है। अपने मानस में एकाकी जीवन बिताओ – यही सुख है। देख-भाल करने के लिए किसी व्यक्ति का न होना और इस बात की चिन्ता न करना कि मेरी देखभाल कौन करेगा – मुक्त होने का यही मार्ग है।

तुम्हारी मानसिक रचना से मैं बड़ी ईर्ष्या करता हूँ – शान्त, सौम्य, विनोदी फिर भी गम्भीर एवं विमुक्त। मेरी, तुम मुक्त हो चुकी हो, पहले से ही मुक्त तुम जीवन्मुक्त हो। मैं नारी अधिक हूँ, पुरुष कम, तुम पुरुष अधिक हो एवं नारी कम। मैं सदा दूसरे के दुःख को अपने ऊपर ओढ़ता रहा हूँ – बिना किसी प्रयोजन के, किसी को कोई लाभ पहुँचाने में समर्थ हुए बिना – ठीक उन स्त्रियों की तरह जो सन्तान न होने पर अपने सम्पूर्ण स्नेह को किसी बिल्ली पर केन्द्रित कर देती हैं!!!

क्या तुम समझती हो कि इसमें कोई आध्यात्मिकता है? सब निरर्थक, ये सब भौतिक स्नायविक बन्धन हैं – यह बस इतना ही भर है। ओह, भौतिकता के साम्राज्य से कैसे मुक्त हुआ जाय!!

तुम्हारी मित्र श्रीमती मार्टिन हर महीने अपनी पत्रिका की प्रतियाँ मुझे भेजा करती हैं – परन्तु स्टर्डी का थर्मामीटर ऐसा लगता है, शून्य के नीचे हो गया है। इस गर्मी में मेरे इंग्लैण्ड न पहुँचने के कारण वह बहुत ही निराश हो गया लगता है। मैं कर ही क्या सकता था?

हम लोगों ने यहाँ दो मठों का कार्य प्रारम्भ कर दिया है – एक कलकत्ते में और एक मद्रास में। कलकत्ते का मठ (जो किराये में लिया गया एक जीर्ण मकान है) पिछले भूचाल में भीषण रूप से प्रकम्पित हो गया था।

हमें बालकों की अच्छी संख्या प्राप्त हो चुकी है; उन्हें अब प्रशिक्षित किया जा रहा है। अनेक स्थानों में हमने अकाल-सहायता का कार्य प्रारम्भ कर दिया है और कार्य अच्छी गति में आगे बढ़ रहा है। भारत के विभिन्न स्थानों में इस प्रकार के और भी केन्द्र स्थापित करने की चेष्टा हम लोग करेंगे।

कुछ दिनों बाद मैं नीचे मैदानों की ओर जाऊँगा, और वहाँ से पश्चिमी पर्वतों की ओर। जब मैदानों में ठण्डक पड़ने लगेगी, मैं सर्वत्र एक व्याख्यान-यात्रा करूँगा, और देखना है कि क्या काम हो सकता है।

अब यहाँ लिखने के लिए मैं अधिक समय न पा सकूँगा – कितने लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं – अतः मैं लिखना बन्द करता हूँ, प्यारी मेरी, तुम सब लोगों के सुख एवं प्रसन्नता की कामना करते हुए। भौतिकता तुम्हें कभी भी आकर्षित न करे, यही मेरी सतत प्रार्थना है –

भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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