स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी हैरियेट हेल को लिखित (17 सितम्बर, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी हैरियेट हेल को लिखा गया पत्र)
एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स,
विम्बलडन, इंग्लैण्ड,
१७ सितम्बर, १८९६
प्रिय बहन,
स्विट्जरलैण्ड से यहाँ वापस आने पर अभी-अभी तुम्हारा अत्यन्त शुभ समाचार मिला। ‘चिरकुमारी आश्रम’ (Old Maids Home) में प्राप्य सुख के बारे में आखिर तुमने अपना मत परिवर्तन किया है, उससे मुझे बहुत ही खुशी हुई। अब तुम्हारा यह सिद्धान्त बिल्कुल ठीक है कि नब्बे प्रतिशत व्यक्तियों के लिए विवाह जीवन का सर्वोत्तम ध्येय है और जब वे इस चिरन्तन सत्य का अनुभव कर उसका अनुसरण करने को प्रस्तुत हो जायेगे, उन्हें सहनशीलता और क्षमाशीलता अपनानी पड़ेगी तथा जीवन-यात्रा में मिल-जुलकर चलना पड़ेगा, तभी उनका जीवन अत्यन्त सुखपूर्ण होगा।
प्रिय हैरियेट, तुम यह निश्चित जानना कि ‘सम्पन्न जीवन’ में अन्तर्विरोध है। अतः हमें सर्वदा इस बात की सम्भावना स्वीकार करनी चाहिए कि हमारे उच्चतम आदर्श से निम्न श्रेणी की ही वस्तुएँ हमें मिलेंगी, यह समझ लेने पर प्रत्येक वस्तु का हम अधिक से अधिक सदुपयोग करेंगे। मैं जहाँ तक तुमको जानता हूँ, उससे मेरी धारणा बनी है कि तुम्हारे अन्दर ऐसी प्रशांत शक्ति विद्यमान है, जो क्षमा तथा सहनशीलता से पर्याप्त पूर्ण है। अतः मैं निश्चित रूप से यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि तुम्हारा दाम्पत्य-जीवन अत्यन्त सुखमय होगा।
तुम तथा तुम्हारे वाग्दत्त पति को मेरा आशीर्वाद। प्रभु तुम्हारे पति के हृदय में सर्वदा यह बात जाग्रत रखें कि तुम जैसी पवित्र, सच्चरित्र, बुद्धिशालिनी, स्नेहमयी तथा सुन्दरी सहधर्मिणी को पाना उनका सौभाग्य था। इतने शीघ्र ‘अटलांटिक’ महासागर पार करने की मेरी कोई सम्भावना नहीं है, यद्यपि मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि तुम्हारे विवाह में उपस्थित रहूँ।
ऐसी दशा में हम लोगों की एक पुस्तक में से कुछ अंश उद्धृत करना ही मेरे लिए उत्तम है : ‘अपने पति को इहलोक की समस्त काम्य वस्तुओं की प्राप्ति करने में सहायता प्रदान कर, तुम सर्वदा उनके ऐकान्तिक प्रेम की अधिकारिणी बनो; अनन्तर पौत्र-पौत्रियों की प्राप्ति के बाद जब आयु समाप्त होने लगे, तब जिस सच्चिदानन्द सागर के जलस्पर्श से सब प्रकार के विभेद दूर हो जाते हैंं एवं हम सब एक में परिणत होते हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए तुम दोनों परस्पर सहायक बनो।’
‘उमा की तरह तुम जीवन भर पवित्र तथा निष्काम रहो तथा तुम्हारे पति का जीवन शिव जैसा उमागतप्राण हो!’
तुम्हारा स्नेहाधीन भाई,
विवेकानन्द