स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित (26 अप्रैल, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क,
२६ अप्रैल, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा पत्र कल मिला। तुम पूर्णतः ठीक थी – मुझे उस पागल इण्टीरियर (‘शिकागो इण्टीरियर’ – एक प्रेसबिटेयियन अखबार, जो स्वामी जी के विरुद्ध लिखता था) का मजाक पसन्द आया। किन्तु भारत से आयी डाक, जो मुझे तुमने कल भेजी है, सचमुच ही जैसा ‘मदर चर्च’ ने अपने पत्र में लिखा है, दीर्घ काल के बाद मिला एक शुभ संवाद है। दीवान जी का एक बहुत सुन्दर पत्र आया है। उस वयोवृद्ध सज्जन ने हमेशा की तरह मदद का प्रस्ताव किया है। प्रभु उनका भला करे। फिर कलकत्ता में प्रकाशित मेरे बारे में एक पुस्तिका है – स्पष्ट है कि मेरे जीवन काल में ही कम से कम एक बार इस पैग़म्बर को अपने देश में ही सम्मान प्राप्त हुआ। भारतीय एवं अमेरिकन अखबारों और पत्रों में मेरे बारे में प्रकाशित सामग्री के उद्धरण हैं। कलकत्ते के पत्रों में प्रकाशित उद्धरण तो विशेषकर सन्तोषप्रद हैं, पर इनकी अतिशयोक्तिपूर्ण लेखन शैली के कारण मैं इन्हें तुम्हारे पास न भेजूँगा। उनमें मुझे विशिष्ट, अद्भुत और इसी ढंग की बेकार की बातों से विभूषित किया गया है, परन्तु उन्होंने मुझे समग्र जाति की कृतज्ञता भी भेजी है। अब सिर्फ एक बात के सिवा मुझे कोई चिन्ता नहीं है कि मेरे देशवासी या अन्य लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं। मेरी बूढ़ी माँ हैं। वे जिन्दगी भर यातना सहती रहीं और इन कष्टों के बीच भी मुझे ईश्वर और मानव के सेवार्थ अर्पण कर सकीं। किन्तु यह संवाद कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे का, अपनी आशा का त्याग किया – दूर देश में घोर पाशविक जीवन बिताने के लिए – जैसा कि मजूमदार कलकत्ते में प्रचारित कर रहे हैं, उनका प्राण हर लो। पर प्रभु महान् हैं; उनकी सन्तान को कोई चोट नहीं पहुँचा सकता।
मेरे किसी प्रयास के बिना ही भेद खुल गया। क्या तुम जानती हो कि हमारे अन्यतम प्रधान पत्र का, जो मेरी इतनी प्रशंसा करता है, सम्पादक कौन है? और ईश्वर को धन्यवाद देता है कि हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने अमेरिका आया? वह मजूमदार का चचेरा भाई है!! बेचारा मजूमदार! ईर्ष्यावश उसने झूठ बोलकर अपना ही अहित किया है। ईश्वर जानता है, मैंने अपनी सफाई देने का कोई प्रयास नहीं किया।
‘फोरम’ में मैने श्री गाँधी का लेख इसके पूर्व ही पढ़ लिया था।
अगर तुम्हारे पास गत मास का ‘रिव्यू ऑफ रिव्यूज’ हो, तो उसमें से भारत की अफीम समस्या पर भारत के एक सर्वोच्च अंग्रेज अधिकारी का दिया हुआ हिन्दुओं के सम्बन्ध में विवरण माँ को पढ़कर सुना देना। उसने हिन्दुओं की तुलना अंग्रेजों से की है और हिन्दुओं को आसमान पर चढ़ा दिया है। सर् लेपेल ग्रिफिन हमारी जाति के कट्टर शत्रु थे, पता नहीं, मोचें में यह परिवर्तन कैसे हुआ?
बोस्टन में श्रीमती ब्रीड के यहाँ समय बहुत अच्छा बीता और प्रोफेरस राइट से मुलाकात हुई। मैं बोस्टन फिर जा रहा हूँ। दर्जी मेरा नया गाउन बना रहा है – केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (हार्वर्ड) में मेरा व्याख्यान होगा और मैं वहाँ प्रो. राइट का मेहमान रहूँगा। बोस्टन के पत्रों में मेरे स्वागत में वे लोग खूब लिख रहे हैं।
अब इन वाहियात कामों से मैं थक गया हूँ। मई के उत्तरार्द्ध में शिकागो जाऊँगा। और कुछ दिन ठहरने के बाद मैं पुनः पूर्व की ओर वापस चला आऊँगा।
मैंने पिछली रात को वाल्डोर्फ़ होटल में व्याख्यान दिया था। श्रीमती स्मिथ ने दो डालर प्रति टिकट बेचे। यद्यपि हॉल पूरा भरा हुआ था, लेकिन था छोटा ही। अभी तक रकम मुझे नहीं मिली है। आशा है, आज दिनभर में मिल जायेगी।
लिन में मुझे सौ डालर प्राप्त हुए। उनको मैं भेज नहीं रहा हूँ, क्योंकि मुझे नया गाउन तथा दूसरी ऊटपटाँग चीजें लेनी हैं।
बोस्टन में मैं रुपये कमाने की आशा नहीं करता। फिर भी अमेरिका के मस्तिष्क को स्पर्श तो मुझे करना ही है और मुझसे अगर हो सका, तो उसे और उद्वेलित भी करना है।
तुम्हारा प्यारा भाई,
विवेकानन्द