स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (10 अप्रैल, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैन फ़्रांसिस्को,
१० अप्रैल, १९००
प्रिय ‘जो’,
मुझे ऐसा दिखायी दे रहा है कि न्यूयार्क में एक शोरगुल मचा हुआ है। अभेदानन्द ने मुझे एक पत्र लिखकर यह सूचित किया है कि वह न्यूयार्क छोड़कर चला जायगा। उसने ऐसा सोचा है कि श्रीमती बुल एवं तुमने उसके विरूद्ध मुझे बहुत कुछ लिखा है। उसके उत्तर में मैंने उसे धैर्य बनाये रखने के लिए लिखा है और यह सूचित किया है कि श्रीमती बुल तथा कुमारी मैक्लिऑड उसके बारे में मुझे केवल अच्छी बातें ही लिखती हैं।
देखो ‘जो-जो’, इन सब बातों के बारे में मेरी नीति तो तुम्हें विदित ही है, अर्थात् सारे झंझटों से अलग रहना। ‘माँ’ ही इन विषयों की व्यवस्था करती हैं। मेरा कार्य समाप्त हो चुका है। ‘जो’, मैं तो अवकाश ले चुका हूँ। ‘माँ’ अब स्वयं ही अपना कार्य संचालित करती रहेंगी। मैं तो इतना ही जानता हूँ।
जैसा कि तुमने परामर्श दिया है, यहाँ पर जो कुछ धन मैंने एकत्र किया है, उसे अब भेज दूँगा। आज ही मैं भेज सकता था; किन्तु हजार की संख्या पूरी करने की प्रतीक्षा में हूँ। इस सप्ताह के समाप्त होने से पूर्व ही सैन फ़्रांसिस्को में एक हजार की पूर्ति की आशा है। न्यूयार्क के नाम मैं एक ड्राफ़्ट ख़रीद कर भेजूँगा अथवा बैंक को ही समुचित व्यवस्था करने के लिए कहूँगा।
मठ तथा हिमालय से अनेक पत्र आये हैं। आज सुबह स्वरूपानन्द का एक पत्र मिला है; कल श्रीमती सेवियर का भी एक पत्र आया था।
कुमारी हैन्सबॉरो से मैंने फोटो के बारे में कहा था। श्री लेगेट से मेरा नाम लेकर वेदान्त सोसाईटी के संचालन की समुचित व्यवस्था करने के लिए कहना।
मैंने इतना ही समझा है कि प्रत्येक देश में उसीकी निजी प्रणाली अपनाकर हमें चलना होगा। अतः यदि तुम्हारे कार्य का सम्पादन कदाचित् मुझे करना पड़ता, तो मैं समस्त सहानुभूति रखनेवाले सज्जनों की एक सभा बुलाकर उनसे यह पूछता कि वे आपस में सहयोग स्थापन करना चाहते हैं अथवा नहीं, और यदि चाहते हों, तो उसका रूप क्या होना चाहिए, आदि। किन्तु तुम बुद्धिमती हो, स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर लेना। मैं इससे मुक्ति चाहता हूँ। यदि तुम यही समझो कि मेरी उपस्थिति से सहायता मिल सकती है, तो मैं लगभग पन्द्रह दिन के अन्दर आ सकता हूँ। मेरा यहाँ का कार्य समाप्त हो चुका है। सैन फ़्रांसिस्को के बाहर ‘स्टाक्टन’ नाम का एक छोटा शहर है – मैं कुछ दिन वहाँ पर कार्य करना चाहता हूँ। उसके उपरान्त पूर्व की ओर जाना है। मैं समझता हूँ कि अब मुझे विश्राम लेना आवश्यक है – यद्यपि इस शहर में मैं प्रति सप्ताह १०० डालर पा सकता हूँ। अब मैं न्यूयार्क पर ‘लाईट ब्रिगेड का आक्रमण’१ चाहता हूँ। मेरा हार्दिक स्नेह जानना।
तुम्हारा चिरस्नेहशील,
विवेकानन्द
पुनश्च – कार्य करनेवाले सभी लोग यदि आपस में सहयोग-स्थापन के विरोधी हों, तो क्या उससे कोई फल मिलने की तुम्हें आशा है? तुम्ही यह अच्छी तरह से समझ सकती हो। जैसा उचित प्रतीत हो, करना। निवेदिता ने शिकागो से मुझे एक पत्र लिखा है। उसने कुछ प्रश्न किये हैं – मैं उनका उत्तर दूँगा।
वि.

