स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (14 जून, 1901)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
मठ, बेलूड़, हावड़ा,
१४ जून, १९०१
प्रिय ‘जो’,
तुम जापान पहुँचकर, ख़ासकर जापानी ललितकला देखकर अत्यन्त आनन्दित हो रही हो, यह जानकर मुझे ख़ुशी हुई। तुम्हारा यह कहना यथार्थ में सत्य है कि हमें जापान से बहुत कुछ सीखना होगा। जापान हमें जो कुछ सहायता प्रदान करेगा, वह अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण तथा श्रद्धा से ओत-प्रोत होगी; परन्तु पाश्चात्य सहायता का रूप सहानुभूतिरहित तथा अभावात्मक होगा। जापान तथा भारत के बीच सम्बन्ध स्थापित होना नितान्त वांछनीय है।
अपने बारे में मुझे यह कहना पड़ेगा कि आसाम जाकर मुझे विपदग्रस्त होना पड़ा था। मठ की आबहवा में मैं कुछ स्वस्थ होता जा रहा हूँ। आसाम के शैलनिवास, शिलांग में मुझे ज्वर होने लगा था तथा श्वास की बीमारी एवं ‘एलबुमिन’ की शिकायत बढ़ गयी थी और मेरा शरीर फूलकर प्रायः दुगुना हो गया था। मठ में आते ही ये सारी शिकायतें घट चुकी हैं; इस वर्ष भयानक गर्मी है, किन्तु सामान्य रूप से वर्षा शुरू हुई है और हमें आशा है कि शीघ्र ही मौसमी वर्षा जोरों से प्रारम्भ होगी। इस समय मेरी कोई योजना नहीं है; किन्तु बम्बई प्रदेश से ऐसा आग्रहपूर्ण आमंत्रण मिल रहा है कि शीघ्र ही सम्भवतः एक बार मुझे वहाँ जाना पड़ेगा। ऐसा विचार है कि एक सप्ताह के अन्दर ही हम लोग बम्बई-भ्रमण प्रारम्भ कर देंगे।…
वह ग़रीब आदमी, अपनी पत्नी एवं बच्चों के यूरोप रवाना हो जाने के बाद आपदग्रस्त हो गया, और उसने मिलने के लिए मुझे आमन्त्रित किया था; परन्तु मैं इतना बीमार हूँ एवं शहर में जाने से इतना डरता हूँ कि मुझे तब तक प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक वर्षा न प्रारम्भ हो जाय।
प्रिय ‘जो’, यह तुम ही विचार करो कि यदि मुझे जापान जाना पड़े, तो कार्य संचालन के लिए अब की बार सारदानन्द को अपने साथ ले जाना आवश्यक है। इसके अलावा लि हूँ चंग के नाम श्रीमति मैक्सिन ने जो पत्र देने के लिए कहा था, मुझे उसकी आवश्यकता है। फिर भी माँ ही सब कुछ जानती हैं – मैंने अभी तक कुछ तय नहीं किया है।
तो क्या तुम भविष्यवक्ता से भेंट करने के लिए एलनक्विनन तक गयी थी? क्या अपनी शक्ति से उसने तुम्हें आश्वस्त कर दिया? उसने क्या कहा? अगर हो सके, तो पूरे तौर पर लिखना।
जुल बोया लाहौर तक पहुँचा, चूँकि नेपाल में जाने से वह रोक दिया गया। पत्रों से मुझे मालूम हुआ कि वह गर्मी नही बरदाश्त कर सका और बीमार पड़ गया; तब उसने समुद्र-यात्रा में जहाज का सहारा लिया। मठ में मिलने के बाद उसने मेरे पास एक पंक्ति भी नहीं लिखी। तुम भी श्रीमती बुल को जापान से नार्वे तक घसीटने के लिए आतुर हो – निश्चित ही तुम एक शक्तिशालिनी जादूगर हो। हाँ ‘जो’ अपने स्वास्थ्य को ठीक रखो एवं उत्साह बनाये रखो। एलनक्विनन के आदमी के शब्द अधिकतर सत्य होते हैं। गौरव एवं सम्मान तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं – एवं मुक्ति भी। महिलाएँ स्वभावतः ही विवाह के द्वारा अपने जीवन की सारी वासनाएँ पूर्ण करना चाहती हैं; वे किसी पुरूष को (लता की तरह) पकड़कर उठना चाहती हैं। किन्तु वे दिन समाप्त हो चुके हैं। तुम ठीक जिस प्रकार हो – सरल स्वभाव तथा स्नेहमयी ‘जो’, हमारी घनिष्ठ तथा सदा की ‘जो’ – ठीक उसी प्रकार रहकर ही तुम बढ़ती रहोगी और ‘महामहिमामयी श्रीमती’ आदि व्यर्थ की उपाधियाँ तुम्हारे लिए आवश्यक न होंगी, यहाँ तक कि रूसदेशीय स्वाभाविक उपाधियाँ भी नहीं।
हमें अपने जीवन में इतना अनुभव प्राप्त हुआ है कि अब हम लोग जल के बुद्बुद् के समान इन उपाधियों के द्वारा आकृष्ट नहीं होते – ‘जो’, क्या यह सच नहीं है? कुछ महीनों से मैं सारी भावुकताओं को दूर कर देने की साधना में मग्न हूँ; अतः यहाँ ही मैं रूक जाना चाहता हूँ। अब मैं बिदा चाहता हूँ। माँं का यही निर्देश है कि हम लोग एक साथ कार्य करेंगे। इससे अब तक बहुत लोग उपकृत हुए हैं एवं भविष्य में भी होंगे तथा और भी सभी लोग उपकृत होते रहें। अपने मतलब की ओर ध्यान रखकर कार्य करना व्यर्थ है, ऊँची कल्पनाएँ भी व्यर्थ ही हैं! माँ अपने मार्ग की व्यवस्था स्वयं कर लेंगी। फिर भी उन्होंने तुम्हें तथा मुझे एक साथ इस संसारसमुद्र में डाल दिया है, इसलिए एक साथ ही हमें तैरना अथवा डूबकर मरना होगा; और तुम यह निश्चित जानना कि उसमें कोई भी बाधा नहीं पहुँचा सकता।
मेरा आन्तरिक स्नेह तथा आशीर्वाद जानना।
सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च – अभी अभी ओकाकुरा से ३०० रूपये का एक ‘चेक’ तथा आमंत्रण-पत्र मिला। यह अत्यन्त लाभजनक है। किन्तु फिर भी माँ ही सब कुछ जानती है।
वि.