स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (29 अप्रैल, 1898)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
दार्जिलिंग,
२९ अप्रैल, १८९८
प्रिय ‘जो-जो’
मैं कई बार ज्वराक्रान्त हुआ – अन्त में इन्फ्लुएंजा से पीड़ित होना पड़ा था। अब कोई शिकायत नहीं है; किन्तु अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ। भ्रमण लायक शक्ति आते ही मैं कलकत्ता रवाना होऊँगा।
रविवार के दिन मैं दार्जिलिंग छोड़ना चाहता हूँ; मार्ग में सम्भवतः दो-एक दिन कर्सियंग रुकना पड़ेगा, उसके बाद सीधे कलकत्ता पहुँचना है। इस समय कलकत्ते में निश्चित ही भयानक गर्मी होगी। इसके लिए तुम चिन्तित न होना – इन्फ्लुएंजा के लिए वह उपयुक्त ही सिद्ध होगा। कलकत्ते में यदि ‘प्लेग’ शुरू हो जाय तो मेरे लिए कहीं जाना सम्भव न होगा। तब तुम सदानन्द के साथ काश्मीर चले जाना। वयोवृद्ध श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में तुम्हारी क्या राय है? चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव के साथ श्री ‘हन्सबाबा’ जिस प्रकार सुसज्जित रहते हैं, ये उस प्रकार नहीं है। अँधेरी रात में जब अग्निदेव, सूर्यदेवजी , चन्द्रदेव तथा नक्षत्रसमूह निद्रित हो जाते हैं, उस समय तुम्हारे हृदय को कौन आलोकित करता है? मैंने तो यह आविष्कार किया है कि क्षुधा ही मेरे चैतन्य को जाग्रत रखती है! अहा, ‘आलोक का ऐक्य’ विषयक मतवाद कितना अपूर्व है! सोचो तो सही, इस मतवाद के अभाव में संसार युगों तक कितने अन्धकार में रहा होगा! जो कुछ ज्ञान, प्रेम तथा कर्म था; एवं बुद्ध, कृष्ण, ईसा आदि जो भी आए थे, सब कुछ व्यर्थ ही था। उनके जीवन तथा कार्य एकदम निरर्थक है; क्योंकि रात्रि में जब सूर्य एवं चन्द्र अन्धकार में डूब जाते हैं तब कौन हृदय को आलोकित करता रहता है, इस तत्त्व का आविष्कार उनसे न हो सका! कितनी मनमोहक चर्चा है – क्यों ठीक है न?
मैंने जिस शहर में जन्म लिया है, वहाँ पर यदि ‘प्लेग’ का प्रादुर्भाव हो तो उसके प्रतिकार के लिए मैंने आत्मोत्सर्ग करना निश्चित कर लिया है। जितने ज्योतिष्क आज तक प्रकट हुए है, उनके हेतु आत्माहुति देने की अपेक्षा मेरा यह उपाय निर्वाण प्राप्ति का श्रेष्ठतर उपाय है और ऐसे दृश्य भी अनेक हैं!
मद्रास के साथ अधिकाधिक पत्र-व्यवहार का फल यह हुआ है कि उनके लिए मुझे अभी कोई सहायता नहीं देनी होगी। प्रत्युत कलकत्ते से मैं एक पत्रिका प्रकाशित करूँगा। यदि तुम पत्रिका चालू करने में मेरी सहायता करो तो मैं तुम्हारा विशेष कृतज्ञ रहूँगा। सर्वदा की भाँति मेरा अनन्त स्नेह जानना।
सदा प्रभुपदाश्रित,
विवेकानन्द