स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (1 फरवरी, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
५४, पश्चिम, ३३वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
१ फरवरी, १८९५
प्रिय बहन,
तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे अभी मिला।… कभी-कभी काम के लिए काम करने को विवश हो जाना, यहाँ तक कि अपने परिश्रम के फल के भोग से वंचित भी रह जाना एक अच्छी साधना है।… तुम्हारे आक्षेप से मैं प्रसन्न हूँ और मुझे इसका जरा भी दुःख नहीं। अभी उसी दिन श्रीमती थर्सबी के यहाँ एक प्रेसबिटेरियन सज्जन के साथ गर्मागर्म बहस हो गयी थी। सामान्य रीति से उन सज्जन का पारा चढ़ गया और वे क्रोध में आकर दुर्वचन कहने लगे। परन्तु बाद में श्रीमती बुल ने मुझे बहुत झिड़का, क्योंकि इस प्रकार की बातें मेरे काम में बाधा डालती हैं। ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारा भी यही मत है।
मुझे प्रसन्नता है कि तुमने इसी समय इस प्रसंग को उठाया, क्योंकि मैं इस पर बहुत विचार करता रहा हूँ। पहली बात यह कि मुझे इन बातों का तनिक भी दुःख नहीं। कदाचित् तुम्हें इससे नाराजी होगी – होने की बात ही है। मैं जानता हूँ कि किसी की भी सांसारिक उन्नति के लिए मधुरता कितना मूल्य रखती है। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँ, परन्तु जब अन्तरस्थ सत्य के साथ विकट समझौता करने का अवसर आता है, तब मैं ठहर जाता हूँ। मैं दीनता में विश्वास नहीं रखता। मैं समदर्शित्व में विश्वास रखता हूँ – अर्थात् सबके लिए सम-भाव। अपने ‘ईश्वर’ स्वरूप समाज की आज्ञा पालन करना साधारण मनुष्यों का धर्म हैं, लेकिन जो ज्ञान के आलोक से सम्पन्न व्यक्ति हैं, वे ऐसा कभी नहीं करते। यह एक अटल नियम है। एक व्यक्ति अपनी बाह्य परिस्थितियों एवं सामाजिक विचारों के अनुकूल अपने आपको ढाल लेता है, और समाज से, जो कि उसका सब प्रकार के कल्याण करने वाला है, सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर लेता है। दूसरा एकाकी खड़ा रहता है और समाज को अपनी ओर खींच लेता है। समाज के अनुकूल रहने वाले मनुष्य का मार्ग फूलों से आच्छादित रहता है, और प्रतिकूल रहने वाले का काँटों से। परन्तु ‘लोकमत’ के उपासकों को एक क्षण में विनाश होता है और सत्य की सन्तान सदा जीवित रहती है।
सत्य की तुलना मैं एक अनन्त शक्तिवाले क्षयकर पदार्थ से करूँगा। वह जहाँ भी गिरता है, जलाकर अपना स्थान बना लेता है – यदि नरम वस्तु पर गिरे, तो तुरन्त, और अगर कठोर पाषाण हो, तो धीरे-धीरे; परन्तु जलता वह अवश्य है। जो लिख गया, सो लिख गया। मुझे दुःख है बहन, कि मैं प्रत्येक सफेद झूठ के प्रति मधुर और अनुकूल नहीं हो सकता। प्रयत्न करने पर भी मैं ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए मैंने आजीवन कष्ट उठाया है, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सकता। मैंने प्रयत्न-पर-प्रयत्न किया है, पर ऐसा नहीं कर सका। अन्त में मैंने उसे छोड़ दिया। ईश्वर महिमामय है। वह मुझे कपटी नहीं बनने देता। अब जो मन में है, उसे सामने आ जाने दो। मैं ऐसा कोई मार्ग नहीं निकाल पाया, जिससे मैं सबको प्रसन्न रख सकूँ। मैं वहीं रहूँगा, जो मैं प्रकृत रूप से हूँ – अपनी अन्तरात्मा के प्रति पूर्ण रूप से ईमानदार। ‘सौन्दर्य और यौवन का नाश हो जाता है, जीवन और धन का नाश हो जाता है, नाम और यश का भी नाश हो जाता है, पर्वत भी चूर-चूर होकर मिट्टी हो जाते हैं, मित्रता और प्रेम भी नश्वर हैं, एकमात्र सत्य ही चिरस्थायी है।’ हे सत्यरूपी प्रभु, तुम्हीं मेरे एकमात्र पथप्रदर्शक बनो। मेरी उम्र बीत रही हैं, अब मैं केवल मीठा और केवल मीठा नहीं बना रहा सकता। जैसा मैं हूँ, मुझे वैसा ही रहने दो। ‘हे संन्यासी, निर्भय होकर तुम दुकानदारी वृत्ति छोड़ दो, शत्रु-मित्र में भेद न रखकर सत्य में दृढ़प्रतिष्ठ रहो और इसी क्षण से इहलोक, परलोक और भविष्य के सब लोकों का, उनके भोग एवं उनकी असारता का त्याग कर दो। हे सत्य, तुम्हीं मेरे एकमात्र पथप्रदर्शक बनो।’ मुझे धन या नाम या यश या भोग की कोई कामना नहीं है। बहन, मेरे लिए वे धूलि के समान हैं। मैं अपने भाइयों की सहायता करना चाहता था। प्रभु की कृपा से मुझमें धनोपार्जन का चातुर्य नहीं है। हृदयस्थ सत्य की वाणी की आज्ञा पालन न कर मैं लोगों की सनक के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयत्न क्यों करूँ? मन अभी दुर्बल है बहन, और कभीकभी यंत्रवत् ही सांसारिक आधारों को पकड़ना चाहता है। परन्तु मैं डरता नहीं मेरा धर्म सिखाता है कि भय ही सबसे बड़ा पाप है।
प्रेसबिटेरियन पादरी से पिछली झपट के बाद और फिर श्रीमती बुल से लम्बे झगड़े के पश्चात्, जो मनु ने संन्यासियों के लिए कहा है, “अकेले रहो और अकेले चलो”, वह स्पष्ट हो गया। सब प्रकार की मित्रताएँ और प्रेम बन्धन हैं। ऐसी किसी प्रकार की भी मित्रता नहीं, विशेषतः स्रियों की, जिसमें ‘मुझे दो, मुझे दो’ का भाव न हो। हे महर्षियो! तुम ठीक ही कहते थे। जो किसी व्यक्तिविशेष के आसरे रहता है, वह उस सत्यरूपी प्रभु की सेवा नहीं कर सकता। शान्त हो मेरी आत्मा, निःसंग बनो! और परमात्मा तुम्हारे साथ रहेगा। जीवन मिथ्या है, मृत्यु भ्रम है! परमात्मा का ही अस्तित्व है, इन सबका नहीं! डरो नहीं मेरी आत्मा, निःसंग बनो। बहन, मार्ग लम्बा है, समय थोड़ा है, सन्ध्या हो रही है। मुझे शीघ्र ही घर जाना है। मुझे शिष्टाचार सीखने का समय नहीं है। मुझे अपना सन्देश देने का समय तो मिलता ही नहीं। तुम गुणवती हो, दयावती हो, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ ; परन्तु अप्रसन्न न हो, मैं तुम सबको नितान्त बच्ची ही समझता हूँ।
स्वप्न न देखो! आह, मेरी आत्मा! स्वप्न न देखो। संक्षेप में मुझे एक संदेश देना है। मुझे संसार के प्रति मधुर बनने का समय नहीं है : और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निम्नतम स्तर का असार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्र बार मरना अधिक अच्छा समझता हूँ। यदि तुम श्रीमती बुल की तरह समझती हो कि मुझे कुछ कार्य करना है, तब यह तुम्हारी भूल है, नितान्त भूल है। इस जगत में या अन्य किसी जगत् में मेरे लिए कोई कार्य नहीं है। मेरे पास एक संदेश हैं, वह मैं अपने ढंग से ही दूँगा। मैं अपने संदेश को न हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस। मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा। मुक्ति ही मेरा एकमात्र धर्म है और जो भी उसमें रुकावट डालेगा, उससे मैं लड़कर या भागकर बचूँगा। छिः! मैं और पादरियों को प्रसन्न करूँ! बहन, बुरा न मानना। तुम बच्ची हो और बच्चियों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। तुम लोगों को उस स्रोत का आस्वाद नहीं मिला, जो ‘तर्क को तर्कशून्य, मर्त्य को अमर, संसार को शून्य और मनुष्य को ईश्वर बना देता है।’ यदि तुम निकल सकती हो, तो इस मूर्खता के जाल से निकलो, जिसे दुनिया कहा जाता है। तभी मैं तुम्हें वास्तव में साहसी और मुक्त कह सकूँगा। यदि नहीं, तो जो इस झूठे ईश्वर अर्थात् समाज से भिड़ने का और उसके उद्दण्ड कपट को पैरों के नीचे कुचलने का साहस रखते हैं, उनको उत्साहित करो। यदि तुम उत्साह नहीं दिला सकतीं, तो चाहे मौन रहो, किन्तु उन्हें संसार से समझौता करने के, और मधुर और कोमल बनने की झूठे मिथ्यावाद के कीचड़ में फँसाने का प्रयत्न न करो।
यह संसार – यह स्वप्न – यह अति भयानक दुःस्वप्न – इसके देवालय और छल-कपट, इसके ग्रन्थ और लुच्चापन, इसके सुन्दर चेहरे और झूठे हृदय, इसके धर्म का बाहरी ढोंग और भीतर का अत्यन्त खोखलापन, और सबसे अधिक इसकी धर्म के नाम पर दूकानदार की सी वृत्ति – मुझे इससे सख्त नफरत है। क्या? संसार के हाथ बिके हुए दासों की कही-सुनी बातों से मेरी आत्मा का तोल होगा? छिः! बहन, तुम संन्यासी को नहीं जानतीं। मेरे वेद कहते हैं कि ‘वह (संन्यासी) वेदशीर्ष है’, क्योंकि वह देवालय, सम्प्रदाय, धर्ममत, पैगम्बर, ग्रन्थ और इनके समान सब वस्तुओं से मुक्त है। धर्मोपदेशक हों या और कोई, उन्हें चिल्लाने दो, मेरे ऊपर जिस प्रकार भी आक्रमण कर सकें, करने दो। मैं उन्हें वैसा ही समझता हूँ, जैसा भर्तृहरि ने कहा है, ‘हे संन्यासी! अपने रास्ते जाओ! कोई कहेगा, यह कौन पागल है? कोई कहेगा, यह कौन चाण्डाल है? कोई तुम्हें साधु जानेगा। संसारियों की बकवाद से योगी न तो रुष्ट होता है, न तुष्ट, वह सीधा अपने मार्ग से जाता है।’1 परन्तु जब वे आक्रमण करें, तब यह जानो कि ‘बाजार में हाथी के पीछे कुत्ते अवश्य लगते हैं, परन्तु वह उनकी चिन्ता नहीं करता। वह सीधा अपनी राह पर जाता है। इसी तरह से जब कोई महात्मा प्रकट होता है, तब उसके पीछे बकने वाले बहुत लग जाते हैं।’2
मैं लैण्डसबर्ग के साथ ५४ पश्चिम, ३३वीं स्ट्रीट में रहता हूँ। यह वीर और उदार आत्मा है परमात्मा उसका भला करे। कभी-कभी मैं गर्नसी परिवार के घर सोने के लिए चला जाता हूँ। परमात्मा की तुम पर सदैव कृपा रहे और वह तुम्हें इस महा पाखंड अर्थात् संसार से शीघ्र निकाले! यह संसाररूपी वृद्ध राक्षसी कभी तुम्हें मोहित न कर सके! शंकर तुम्हारे सहायक हों! उमा तुम्हारे लिए सत्य का द्वार खोल दें और तुम्हारे मोह को नष्ट कर दें!
प्रेम और आशीर्वादपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
- वैराग्यशतकम् ॥९६॥
- तुलसीदास।