स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (16 मार्च, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
मठ, बेलूड़,
हावड़ा जिला
१६ मार्च, १८९९
प्रिय मेरी,
श्रीमती ऐडम्स को धन्यवाद कि तुम शैतान लड़कियों को अंततः उन्होंने पत्र लिखने के लिए उकसाया ही; ‘आँखों से दूर, मन से दूर’ – यह जितना भारत में सत्य है, उतना ही अमेरिका में; और दूसरी युवती महिला जो भागते-भागते अपना प्यार छोड़ गयी, लगता है वह गोता खिलाने के योग्य है।
हाँ, मैं अपने शरीर के साथ हिंडोले का खेल खेलता रहा हूँ। वह कई महीने से मुझे विश्वास दिलाने का प्रयत्न कर रहा है कि उसका भी काफी अस्तित्व है।
फिर भी कोई भय नहीं, क्योंकि मानसिक चिकित्सा में पारंगत चार बहनें मेरे पास हैं, इस समय घबड़ाहट नहीं है। तुम लोग मुझे एक लंबा और जोर का झटका दो, तुम सब मिलकर; और फिर मैं उठ खड़ा हो जाऊँगा।
तुम अपने साल में एकवाले पत्र में मेरे विषय में इतना अधिक और उन चार चुड़ैलों के विषय में इतना कम क्यों लिखती हो, जो शिकागो के एक कोने में खौलती हुई देगची के ऊपर मन्त्र गुनगुनाती रहती है?
क्या तुमने मैक्समूलर की नयी पुस्तक, ‘रामकृष्ण : उनका जीवन एवं उपदेश’, (Ramkrishna : His Life and Teachings) देखी है?
अगर तुमने उसे अभी तक न पढ़ा हो, तो पढ़ो और माँ को भी पढ़ाओ। माँ कैसी हैं? सफेद हो रही हैं और फादर पोप? क्या तुम सोच सकती हो कि अमेरिका से हमारे यहाँ अन्तिम यात्री कौन थे? ‘ब्रदर, लव इज ए ड्राइंग कार्ड’ एवं ‘मिसेस मील’; वे आस्ट्रेलिया एवं अन्य स्थानों में बहुत ही शानदार कार्य कर रहे हैं; वे ही पुराने साथी (फ़ेलोज) – अगर बदले भी हैं, वे तो किंचित मात्र। मेरी इच्छा है कि तुम भारत की यात्रा करतीं, – वह भविष्य में ही कभी हो सकेगी। हाँ मेरी, कुछ महीने पहले जब मैं तुम्हारी लम्बी चुप्पी से घबड़ा रहा था, तो मैंने सुना कि तुम एक ‘विली’ फँसा रही थीं; अतः नृत्य एवं पार्टी आदि में व्यस्त थीं और इससे तुम्हारी लिखने में असमर्थता निश्चय ही समझ में आती है। परन्तु ‘विली’ हों तो, न हों तो, यह मत भूलना कि मुझे मेरे रुपये अवश्य मिलने चाहिए। हैरिएट को तो जब से अपना ‘लड़का’ मिल गया है, समझदारी के साथ चुप लगा गयी है; परन्तु मेरे रुपये कहाँ हैं? उसको तथा उसके पति को इसकी याद दिलाना। अगर वे ‘ऊली’ (Wooley) हैं, तो मैं चिपक जानेवाला बंगाली हूँ, जैसा कि अंग्रेज हमें यहाँ पर कहा करते हैं – हे ईश्वर मेरे रुपये कहाँ हैं?
अंततः गंगा-तट पर हमने एक मठ बना ही लिया; धन्यवाद है अमेरिकन एवं अंग्रेज मित्रों को। माँ से कहना कि वे सावधानी से देखती जायें। तुम्हारी यांकी भूमि को मैं मूर्तिपूजक मिशनरियों द्वारा आप्लावित करने जा रहा हूँ।
श्री ऊली से बताना कि वे बहन तो पा गये, लेकिन अभी तक उन्होंने भाई का मूल्य नहीं चुकाया। क्योंकि बैठकों में धूम्रपान-रत विचित्र वेष में यह भूत जैसा काला मोटा आदमी था, जिसकी वजह से भयभीत होकर कितने प्रलोभन दूर हो गये और अनेक कारणों में यह भी एक था, जिससे ऊली को हैरिएट मिल सकी। चूँकि इस कार्य में मेरा बहुत बड़ा योग है, अतः इसका मैं पारिश्रमिक चाहता हूँ आदि आदि। जोरों से मेरी वकालत करना, क्यों करोगी न?
मैं कितना चाहता तो हूँ कि कुमारी ‘जो’ के साथ इस गर्मी में मैं अमरीका आ सकूँ; किन्तु मनुष्य योजनाएँ बनाता है और उन्हें विघटित कौन कर देता है? विघटित करने वाला सदैव ईश्वर नहीं होता है। अच्छा, जैसा चल रहा है चलने दो। यहाँ पर अभयानन्द, मेरी लुई को तुम जानती हो, आयी है, और उसका मुम्बई एवं मद्रास में अच्छा स्वागत हुआ। कल वह कलकत्ते आ रही है, और हम भी उसका शानदार स्वागत करेंगे।
मेरा स्नेह कुमारी ‘हो’, श्रीमती ऐडम्स, मदर चर्च, फादर पोप तथा सात सागर पार के मेरे अन्य सभी मित्रों को। हम सात सागरों में विश्वास करते हैं – क्षीर-सागर, मधु-सागर, दधि-सागर, सुरा-सागर, रस-सागर, लवण-सागर और एक नाम भूल रहा हूँ कि वह क्या है। तुम चारों बहनों के लिए मैं अपना प्यार मधु-सागर के माध्यम से थोड़ा मद्य मिलाकर ताकि वह सुस्वादु बन जाय, प्रेषित कर रहा हूँ।
सदा शुभेच्छु तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
पुनश्च – नृत्यों के मध्य जब समय मिले तो उत्तर देना।
वि.