स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (20 फरवरी, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
पॅसाडेना,
२० फरवरी, १९००
प्रिय मेरी,
श्री हेल की मृत्यु के दुःखद समाचार के साथ तुम्हारा पत्र मुझे कल मिला। मैं दुःखित हूँ, क्योंकि मठ-जीवन की शिक्षाओं के बावजूद भी हृदय की भावनाएँ बनी रहती है; और फिर जिन अच्छे लोगों से मैं जीवन में मिला उनमें श्री हेल एक उत्कृष्ट व्यक्ति थे। निस्सन्देह तुम्हारी स्थिति दुःखपूर्ण तथा दयनीय है; और यही हाल ‘मदर चर्च’ का और हैरियट तथा बाकी लोगों का भी है, खासकर जब कि अपने तरह का यह पहला दुःख तुम लोगों को मिला है, ठीक है न? मैं तो कई को खो चुका हूँ, बहुत दुःख झेल चुका हूँ और विचित्र बात है कि किसी के गुजर जाने के बाद दुःख यह सोचकर होता है कि हम उस व्यक्ति के प्रति काफी भले नहीं रहे। जब मेरे पिता मरे, तब मुझे महीनों तक कसक बनी रही, जब कि मैं उनके प्रति अवज्ञाकारी भी था।
तुम बहुत आज्ञाकारी रही हो और यदि तुम्हारे मन में इस प्रकार की बातें आती हैं, तो वह शोक के कारण ही।
मुझे लगता है मेरी कि जीवन का वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए अभी ही खुला है। हम लाख अध्ययन करें, व्याख्यान सुनें और लम्बी-चौड़ी बातें करें, पर यथार्थ शिक्षक और आँख खोलने वाला तो अनुभव ही है। यह जैसा है, उसी रूप में उत्तम है। सुख और दुःख से हम सीखते हैं। हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों है, पर हम देखते हैं कि ऐसा है और यही पर्याप्त है। ‘मदर चर्च’ को तो अपने धर्म से आश्वासन मिलता है। काश, हम सभी निर्विध्न रूप से सुस्वप्न देख सकते। तुम अभी तक जीवन में छाँह पाती रही हो। मैं तो सारे समय तेज घाम में जलता और हाँफता रहा हूँ। अब एक क्षण को तुम्हें जीवन के इस दूसरे पक्ष की झलक मिली है। पर मेरा जीवन इस तरह के लगातार आघातों से बना हैं, सैकड़ों गुने गहरे आघातों से और वह भी निर्धनता, छल और मेरी अपनी मूर्खता के कारण! निराशावाद! तुम समझोगी कि कैसे यह आ दबोचता है। खैर, मैं तुमसे क्या कहूँ मेरी? तुम इस तरह की सब बातें जानती हो। मैं केवल इतना ही कहता हूँ – और सत्य है – कि यदि दुःख का विनिमय संभव हो और मेरा मन हर्ष से परिपूर्ण हो तो मैं अपना मन तुमसे हमेशा के लिए बदल लूँ। जगन्माता इसे अच्छी तरह जानती हैं।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द