स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (22 जून, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
२२ जून, १८९५
प्रिय बहन,
भारत से भेजे गये पत्र और पुस्तकों का पार्सल मुझे सुरक्षित मिल गया। श्री सैम के पहुँचने की ख़बर जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मैं आश्वस्त हूँ कि वे विडर्स (vidders) से अच्छी तरह सचेत हैं।
एक दिन रास्ते में सैम के एक मित्र से मेरी मुलाकात हुई। वह एक अंग्रेज है, जिसके नाम का अंत ‘नी’ से होता है। वह बहुत भद्र आदमी था। उसने कहा कि वह ओहियों में कहीं सैम के साथ उसी घर में रह रहा है।
मैं अच्छी दशा में करीब करीब उसी पुराने ढ़ंग से रह रहा हूँ। कभी इच्छा होने पर जब बोल सकता हूँ, बोलता हूँ और जब कि मौन रहने के लिए कहा जाता है, तो बलपूर्वक मौन रहता हूँ। मैं नहीं जानता कि क्या इस ग्रीष्म में ग्रीनेकर जा सकूँगा? किसी अन्य दिन कुमारी फार्मर से मुलाकात हुई थी। वह जाने की जल्दी में थीं, इसलिए बहुत थोड़ी बात उनसे हो सकी। वह बड़ी ही भद्र और कुलीन महिला हैं।
तुम्हारा ईसाई विज्ञान का पाठ कैसा चल रहा है? आशा करता हूँ, तुम ग्रीनेकर जाओगी। वहाँ वैसे लोगों की एक बड़ी संख्या तथा साथ में प्रेतवादी, मेज आदि घुमाने की क्रिया, हस्तरेखा-पण्डित, ज्योतिषी आदि तुम्हें मिलेंगे। वहाँ तुम्हें सभी उपचार मिल जायँगे। तथा कुमारी फार्मर की अध्यक्षता में सभी ‘वादों’ का भी परिचय मिल जायगा।
लैण्ड्सबर्ग किसी दूसरी जगह रहने के लिए चला गया है। इसलिए मैं अकेला हो गया हूँ। मैं अधिकतर बादाम, फल और दूध पर ही रह रहा हूँ और यह मुझे बहुत अच्छा और स्वास्थ्य़कर भी लगता है। आशा करता हूँ कि इस ग्रीष्म में मेरा वजन तीस या चालीस पौंड कम हो जायगा। मेरे आकार के लिए वह बिल्कुल ठीक होगा। श्रीमती एडम्स द्वारा दिये गये टहलने से सम्बन्धित पाठों को एकदम भूल गया हूँ।
जब वह न्यूयार्क दुबारा आयेंगी, मुझे उन्हें पुनः सीखना होगा। मैं समझता हूँ, गाँधी बोस्टन से भारत के रास्ते इंग्लैण्ड गये हैं।
मैं उनकी ‘अभिभाविका’ श्रीमती हावर्ड तथा उसकी असहाय अवस्था के बारे में जानना चाहूँगा। मुझे यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि वह लँगोटीवाला अटलांतिक में डूबा नहीं, बल्कि अन्ततः पहुँच रहा है।
इस वर्ष मैं मुश्किल से अपना मस्तिष्क स्वस्थ रख सका और व्याख्यान देते नहीं फिरा। भारतवर्ष से वेदांत दर्शन के तीन महान् भाष्य द्वैत, विशिष्टाद्वैत, एवं अद्वैत, इन तीन महान् सम्प्रदायों से जिनका सम्बन्ध है, मेरे पास भेजे जा रहे हैं। आशा करता हूँ, वे सुरक्षित पहुँचेंगे। तब सचमुच मुझे एक बौद्धिक तृप्ति मिलेगी। इस ग्रीष्म में वेदंात दर्शन पर एक पुस्तक लिखने की सोचता हूँ। यह संसार सदा सुख और दुःख, शुभ और अशुभ का मिश्रण रहेगा; यह चक्र सदा नीचे-ऊपर चलता रहेगा, विनाश और प्रतिस्थापन अनिवार्य विधान हैं। वे धन्य हैं, जो इनसे परे जाने के लिए संघर्षरत हैं। हाँ, मुझे प्रसन्नता है कि सभी बच्चियाँ अच्छी तरह काम कर रही हैं, किन्तु दुःख है कि इस शरद् में भी कोई ‘पकड़’ में नही आया, और प्रत्येक शरद् में अवसर क्षीण होता जायगा। यहाँ मेरे आवास के निकट ‘वाल्डोर्फ होटल’ है, जो बहुत पदवीधारी किन्तु दरिद्र यूरोपियनों की प्रदर्शनी का अड्डा है, जहाँ ‘यांकी’ धनाधिकारिणियाँ उन्हें खरीद सकती हैं। तुम यहाँ कोई भी चुनाव कर सकती हो, स्टाक बहुत है और विविध है। यहाँ वैसा आदमी भी होता है, जो अंग्रेजी में बात नहीं करता, कुछ दूसरे ऐसे हैं, जो तुतलाते हुए बोलते हैं, जिसे कोई नहीं समझ सकता और अन्य अच्छी अंग्रेजी में बातें करते हैं, किन्तु उनका संयोग उतना बड़ा नहीं होता है, जितना गूँगे लोगों का – लड़कियाँ उन्हें पूरा विदेशी नहीं समझती, जो साधारण अंग्रेजी बोलते हैं।
एक अजीब पुस्तक में मैने कहीं पढ़ा है कि एक अमेरिकन जहाज पानी भरने के कारण डूब रहा था, लोग हताश हो चुके थे और अंतिम सान्त्वना के रूप में वे चाहते थे कि धार्मिक उपासना की जाय। जहाज पर एक ‘अंकल जौश’ थे, जो प्रेसबिटेरियन चर्च के गुरूजन थे। वे सभी अनुनय-विनय करने लगे, “अंकल जौश! कुछ धार्मिक उपचार करो। हम सभी लोग मरनेवाले हैं।” अंकल जोश ने अपना हैट अपने हाथ में लिया और शीघ्र ही उसने देर सा चंदा इकट्ठा कर लिया!
उतना ही वह धर्म के विषय में जानता था। ऐसे अधिकांश लोगों का करीब करीब यही लक्षण है। वे जानते हैं और सदा यही जानेंगे कि सभी धर्मों में चंदा ही इकट्ठा किया जाता है। प्रभु उन्हें सुखी रखे। अभी विदा-नमस्कार। मैं भोजन करने जा रहा हूँ; मुझे बहुत भूख लगी है।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द