स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (28 मार्च, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैन फ़्रांसिस्को,
२८ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
यह पत्र तुम्हें यह जताने के लिए लिख रहा हूँ कि ‘मैं बहुत ख़ुश हूँ।’ यह नहीं कि मैं किसी धूमिल आशावाद से ग्रस्त होता जा रहा हूँ, बल्कि दुःख झेलने की मेरी क्षमता बढ़ती जा रही है। मैं इस संसार के सुख-दुःख रूपी महामारी की दुर्गंध से ऊपर उठता जा रहा हूँ; उनका अर्थ मेरे लिए मिटता जा रहा है। यह संसार एक स्वप्न है। यहाँ किसीके हँसने-रोने का कोई मूल्य नहीं। वह केवल स्वप्न है, और देर या सबेर अवश्य टूटेगा। वहाँ तुम लोगों के क्या हाल-चाल हैं? हैरियट पेरिस आनन्द मनाने जा रही है! वहाँ मेरी उससे अवश्य भेंट होगी। मैं एक फ़्रेंच डिक्शनरी कंठाग्र कर रहा हूँ। मैं कुछ धन भी अर्जित कर रहा हूँ। सुबह-शाम कठिन परिश्रम करता हूँ, फिर भी अच्छा हूँ। नींद अच्छी आती है, हाजमा भी अच्छा है। पूर्ण अनियमितता है।
तुम पूर्व की ओर जा रही हो। आशा है, अप्रैल के अन्त में मैं शिकागो आऊँगा। यदि न आ सका, तो पूर्व में तुम्हारे जाने के पहले तुमसे जरूर मिलूँगा।
मैक्किंडली परिवार की लड़कियाँ क्या कर रही हैं? चकोतरों की पुष्टई खा रही हैं और मोटी हो रही हैं? चलते रहो, जिन्दगी तो एक स्वप्न है। क्या तुम इससे खुश नहीं हो? बाप रे! वे शाश्वत स्वर्ग चाहते हैं।ईश्वर को धन्यवाद है कि सिवा उसके और कुछ भी शाश्वत नहीं है। मुझे विश्वास है उसे केवल ईश्वर ही सहन कर सकता है। शाश्वतता की यह बकवाद!
सफलता धीरे धीरे मुझे मिलनी शुरू हो चुकी है, वह अभी और भी अधिक मिलेगी। फिर भी चुपचाप रहूँगा। अभी तुम्हें सफलता नहीं मिल रही है, इसका मुझे दुःख है, मतलब मैं दुःखित अनुभव करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, क्योंकि मै किसी भी वस्तु के लिए अब और दुःखी नही हो सकता। मैं उस शान्ति को प्राप्त कर रहा हूँ, जो बुद्धि के परे है, जो न सुख है न दुःख, बल्कि इन दोनों से ही उपर है। ‘मदर’ से यह कह देना। पिछले दो वर्षों में मैं जिस शारीरिक और मानसिक मृत्यु की घाटी से गुजरा हूँ, उसीने मुझे यह प्राप्त करने में सहायता दी है। अब मैं उस ‘शान्ति’, उस शाश्वत मौन के निकट आ रहा हूँ। अब मैं जो चीज जिस रूप में है, उसे उसी रूप में देखना चाहता हूँ, उस शान्ति के भीतर, अपने परम रूप में। ‘जो अपने भीतर ही आनन्द पाता है, जो अपने भीतर ही इच्छाओं को देखता है, वस्तुतः उसीने अपने जीवन का पाठ पढ़ा है।’ यही है वह महान् पाठ जिसे अनेक जन्मों, स्वर्गों-नरकों में से होकर हमें सीखना है – कि अपनी आत्मा के परे कुछ भी याचना करने, इच्छा करने के लिए नहीं है। ‘जो सबसे बड़ी वस्तु मैं प्राप्त कर सकता हूँ, वह आत्मा है।’ ‘मैं मुक्त हूँ’, अतः सुखी होने के लिए मुझे अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। ‘अनन्त काल से अकेला, चूँकि मैं मुक्त था,अतः मुक्त हूँ और सदा रहूँगा भी।’ यह वेदान्त मत है। इतने समय तक मैं सिद्धान्त का प्रचार करता रहा, लेकिन ओह! कितने आनन्द का विषय है प्यारी बहन मेरी, कि इसे मैं अब प्रत्येक दिन अनुभव कर रहा हूँ। हाँ, मैं अनुभव कर रहा हूँ। ‘मैं मुक्त हूँ।’ ‘एकम्, एकम्, एकमेवाद्वितीयम।’
सच्चिदानन्द स्वरूप,
विवेकानन्द
पुनश्च – अब मैं सच्चा विवेकानन्द बनने जा रहा हूँ। कभी तुमने बुराई का आनन्द लिया है? हा! हा! ओ भोली लड़की! तू क्या कहती है कि सब कुछ अच्छा है! बकवास! कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है। मैं अच्छे का भी आनन्द लेता हूँ और बुरे का भी। मैं ही जीसस था और मैं ही जूडास इस्केरियट। दोनों ही मेरी लीला है, दोनों ही मेरे विनोद। ‘जब तक द्वैतभाव है, भय से तुझे मुक्ति नहीं मिलेगी।’ शुतुरमुर्गवाला तरीका? – बालू में अपना सिर छिपा लेना और सोचना कि तुम्हें कोई देख नहीं रहा है! सब अच्छा ही अच्छा है! साहसी बनो और जो भी आये उसका सामना करो। अच्छा आये, बुरा आये, दोनों का स्वागत है, दोनों ही मेरे लिए खेल हैं। ऐसी कोई भलाई नहीं, जिसे मैं प्राप्त करना चाहूँ, ऐसा कोई आदर्श नहीं, जिसे पकड़ लेना चाहूँ, ऐसी कोई महत्त्वाकाँक्षा नहीं जिसे पूरा करना चाहूँ। मैं हीरों की खान हूँ, अच्छे और बुरे की कंकड़ियों से खेल रहा हूँ। बुराई, तुम्हारे लिए अच्छा है कि मेरे पास आओ; अच्छाई, तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि मेरे पास आओ। यदि ब्रह्माण्ड मेरे कान के पास भी भहराकर गिरता है, तो इससे मुझे क्या? मैं वह शान्ति हूँ, जो बुद्धि के परे है। बुद्धि तो केवल हमें अच्छे और बुरे का ज्ञान देता है। मैं उससे परे हूँ, मैं शान्ति हूँ।
वि.