स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (30 अक्टूबर, 1899)

(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)

रिजले मॅनर,
३० अक्टूबर, १८९९

प्रिय आशावादिनी,

तुम्हारी चिट्ठी मिली और इसके लिए अनुग्रहीत हूँ कि किसी बात ने आशावादी एकान्तवाद को सक्रिय होने के लिए विवश किया है। यों तो तुम्हारे प्रश्नों ने नैराश्य के स्रोत को ही खोल दिया है। आधुनिक भारत में अंग्रेजी शासन का केवल एक ही सान्त्वनादायक पक्ष है कि एक बार फिर उसने अनजाने ही भारत को विश्व के रंगमंच पर लाकर खड़ा कर दिया है, उसने बाह्य जगत् के संपर्क को इस पर लाद दिया है। अगर जनता के मंगल के लिए यह किया गया होता, तो जिस तरह परिस्थितियों ने जापान की सहायता की, भारत के लिए इसका परिणाम और भी आश्चर्यजनक होता। जब मुख्य ध्येय खून चूसना हो, कोई कल्याण नहीं हो सकता। मोटे रूप से जनता के लिए पुराना शासन अधिक अच्छा था, क्योंकि जनता से वह सब कुछ नहीं छीनता था और उसमें कुछ न्याय था, कुछ स्वतन्त्रता थी।

कुछ सौ आधुनीकृत, अर्धशिक्षित एवं राष्ट्रीय चेतनाशून्य पुरुष ही वर्तमान अंग्रेजी भारत का दिखावा है – और कुछ नहीं। मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार १२वीं शताब्दी में ६० करोड़ हिन्दू थे – अब २० करोड़ से भी कम।

भारत को जीतने के लिए अंग्रेजों के संघर्ष के मध्य शताब्दियों की अराजकता, अंग्रेजों द्वारा १८५७-५८ में किये गये भयावह जनवधों और इससे भी अधिक भयावह अकालों, जो अंग्रेंजी शासन के अनिवार्य परिणाम बन गये हैं (देशी राज्यों में कभी अकाल नहीं पड़ता) और उनमें लाखों प्राणियों की मृत्यु के बावजूद भी जनसंख्या में काफी वृद्धि होती रही है; तब भी जनसंख्या उतनी नहीं है जब देश पूर्णतः स्वतन्त्र था – अर्थात् मुस्लिम शासन के पूर्व। भारतीय श्रम एवं उत्पादन से भारत की वर्तमान आबादी की पाँच गुनी आबादी का भी आसानी से निर्वाह हो सकता है, यदि भारतीयों की सारी वस्तुएँ उनसे छीन न ली जायें।

यह आज की स्थिति है – शिक्षा को भी अब अधिक नहीं फैलने दिया जायेगा; प्रेस की स्वतन्त्रता का गला पहले ही घोंट दिया गया है, (निरस्त्र तो हम पहले से ही कर दिये गये हैं) और स्व-शासन का जो थोड़ा अवसर हमको पहले दिया गया था, शीघ्रता से छीना जा रहा है। हम इन्तजार कर रहे हैं कि अब आगे क्या होगा! निर्दोष आलोचना में लिखे गये कुछ शब्दों के लिए लोगों को कालापानी की सजा दी जा रही है, अन्य लोग बिना कोई मुकद्दमा चलाये जेलों में ठूँसे जा रहे हैं और किसी को कुछ पता नहीं कि कब उनका सर धड़ से अलग हो जायेगा।

कुछ वर्षों से भारत में आतंकपूर्ण शासन का दौर है। अंग्रेज सिपाही हमारे देशवासियों का खून कर रहे हैं, हमारी बहनों को अपमानित कर रहे हैं – हमारे खर्च से ही यात्रा का किराया और पेन्शन देकर स्वदेश भेजे जाने के लिए! हम लोग घोर अंधकार में हैं – ईश्वर कहाँ है? मेरी, तुम आशावादिनी हो सकती हो, लेकिन क्या मेरे लिए यह सम्भव है? मान लो तुम इस पत्र को केवल प्रकाशित भर कर दो – तो उस कानून का सहारा लेकर जो अभी-अभी भारत में पारित हुआ है, अंग्रेजी सरकार मुझे यहाँ से भारत घसीट ले जायेगी और बिना किसी कानूनी कार्यवाही के मुझे मार डालेगी और मुझे यह मालूम है कि तुम्हारी सभी ईसाई सरकारें इस पर खुशियाँ मनायेंगी, क्योंकि हम गैर ईसाई हैं। क्या मैं भी सोने चला जा सकता हूँ और आशावादी हो सकता हूँ? नीरो सबसे बड़ा आशावादी मनुष्य था! समाचार के रूप में भी वे इन भीषण बातों को प्रकाशित करना नहीं चाहते, अगर कुछ समाचार देना आवश्यक भी हो तो ‘रॉयटर’ के संवाददाता ठीक उलटा झूठा समाचार गढ़ कर देते हैं! एक ईसाई के लिए गैर ईसाई की हत्या भी वैधानिक मनोरंजन है! तुम्हारे मिशनरी ईश्वर का उपदेश करने जाते हैं, लेकिन अंग्रेजों के भय से एक शब्द भी सत्य कह पाने का साहस नहीं कर पाते, क्योंकि अंग्रेज उन्हें दूसरे दिन ही लात मारकर निकाल बाहर कर देंगे।

शिक्षा-संचालन के लिए पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा अनुदत्त सम्पत्ति एवं जमीन को गले के नीचे उतार लिया गया है और वर्तमान सरकार रूस से भी कम शिक्षा पर व्यय करती है। और शिक्षा भी कैसी?

मौलिकता की किंचित् अभिव्यक्ति भी दबा दी जाती है। मेरी, अगर कोई वास्तव में ऐसा ईश्वर नहीं है, जो सबका पिता है, जो निर्बल की रक्षा करने में सबल से भयभीत नहीं है और जिसे रिश्वत नहीं दिया जा सकता, तो सब कुछ हमारे लिए निराशा ही है। क्या कोई इसी प्रकार का ईश्वर है? समय बतायेगा।

हाँ तो, मैं ऐसा सोच रहा हूँ कि कुछ सप्ताह में शिकागो आ रहा हूँ और इन विषयों पर पूर्ण रूप से बात करूँगा। इस समाचार के सूत्र को प्रकट न करना।

प्यार के साथ सतत् तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द

पुनश्च – जहाँ तक धार्मिक सम्प्रदायों का प्रश्न है ब्राह्मसमाज, आर्यसमाज तथा अन्य व्यर्थ की खिचड़ी पकाते हैं। वे मात्र अंग्रेज मालिकों के प्रति कृतज्ञता की ध्वनियाँ हैं, जिससे कि वे हमें साँस लेने की आज्ञा दे सकें। हम लोगों ने एक नये भारत का श्री गणेश किया है – एक विकास – इस बात की प्रतीक्षा में कि आगे क्या घटित होता है। हम तभी नये विचारों में आस्था रखते हैं, जब राष्ट्र उनकी माँग करता है और जो हमारे लिए सत्य हैं। ब्रह्मसमाजी के लिए सत्य की यह कसौटी है, ‘जिसका हमारे मालिक अनुमोदन करें ; किन्तु हमारे लिए वह सत्य है, जो भारतीय बुद्धि एवं अनुभूति द्वारा मण्डित है। संघर्ष आरम्भ हो गया है – हमारे एवं ब्रह्मसमाज के बीच नहीं, क्योंकि वे पहले से ही निष्प्राण हो गये हैं, बल्कि इससे भी अधिक एक कठिन, गम्भीर एवं भीषण संघर्ष।

वि.

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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