स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (5 जुलाई, 1901)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
मठ,
५ जुलाई, १९०१
प्रिय मेरी,
मैं तुम्हारे लम्बे प्यारे पत्र के लिए अत्यंत कृतज्ञ हूँ, क्योंकि इस समय मुझे किसी ऐसे ही पत्र की जरूरत थी, जो मेरे मन को थोड़ा प्रोत्साहन दे सके। मेरा स्वास्थ्य बहुत ख़राब रहा है और अभी है भी। मैं केवल कुछ दिनों के लिए सँभल जाता हूँ, इसके बाद फिर ढह पड़ना जैसे अनिवार्य हो जाता है। ख़ैर, इस रोग की प्रकृति ही ऐसी है।
काफी पहले मैं पूर्वी बंगाल और आसाम में भ्रमण करता रहा हूँ। आसाम काश्मीर के बाद भारत का सबसे सुन्दर प्रदेश है, लेकिन साथ ही बहुत अस्वास्थ्यकर भी है। पर्वतों और गिरि शृंखलाओं में चक्कर काटती हुई विशाल ब्रह्मपुत्र – जिसके बीच बीच में अनेक द्वीप हैं, बस देखने ही लायक है।
तुम तो जानती ही हो कि मेरा देश नद-नदियों का देश है। किन्तु इसके पूर्व इसका वास्तविक अर्थ मैं नहीं जानता था। पूर्वी बंगाल की नदियाँ नदियाँ नहीं, मीठे पानी के घुमड़ते हुए सागर हैं, ओर वे इतनी लम्बी हैं कि स्टीमर उनमें हफ़्तों तक लगातार चलते रहते हैं। कुमारी मैक्लिऑड जापान में हैं। वे उस देश पर मुग्ध हैं और मुझसे वहाँ आने को कहा है, लेकिन मेरा स्वास्थ्य इतनी लम्बी समुद्रयात्रा गवारा नहीं कर सकता, अतः मैंने इंकार कर दिया है। इसके पहले मैं जापान देख भी चुका हूँ।
तो तुम वेनिस का आनन्द ले रही हो! यह वृद्ध पुरूष (नगर) अवश्य ही मजेदार होगा – क्योंकि शाइलॉक केवल वेनिस में ही हो सकता था, है न?
मुझे अत्यंत ख़ुशी है कि सैम इस वर्ष तुम्हारे साथ ही है। उत्तर के अपने नीरस अनुभव के बाद युरोप में उसे आनन्द आ रहा होगा। इधर मैंने कोई रोचक मित्र नहीं बनाया और जिन पुराने मित्रों को तुम जानती हो, वे प्रायः सबके सब मर चुके हैं – खेतड़ी के राजा भी। उनकी मृत्यु सिकन्दरा में सम्राट् अकबर की समाधि के एक ऊँचे मीनार से गिर पड़ने से हुई। वे अपने ख़र्चें से आगरे में इस महान् प्राचीन वास्तु-शिल्प के नमूने की मरम्मत करवा रहे थे, कि एक दिन उसका निरीक्षण करते समय उनका पैर फिसला और वे सैकड़ों फुट नीचे गिर गये। इस प्रकार तुम देखती हो न कि प्राचीन के प्रति हमारा उत्साह ही कभी कभी हमारे दुःख का कारण बनता है। इसलिए मेरी, ध्यान रहे, कहीं तुम अपनी भारतीय प्राचीन वस्तुओं के प्रति अत्यधिक उत्साहशील न हो जाना!
मिशन के प्रतीक-चिह्न में सर्प रहस्यवाद (योग) का प्रतीक है, सूर्य ज्ञान का, उद्वेलित सागर कर्म का, कमल भक्ति का, और हंस परमात्मा का, जो इस सबके मध्य में स्थित है।
सैम और माँ को प्यार कहना।
सस्नेह,
विवेकानन्द
पुनश्च – हर समय शरीर से अस्वस्थ रहने के कारण ही यह छोटा पत्र लिखना पड़ रहा है।