स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी एस. फार्मर को लिखित (29 दिसम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी एस. फार्मर को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क,
२९ दिसम्बर, १८९५
प्रिय बहन,
इस जगत् में जहाँ कुछ भी नष्ट नहीं होता है, जहाँ पर जीवन नामक मृत्यु के अन्दर हम निवास करते हैं, वहाँ पर प्रत्येक विचार जीवित रहता है – चाहे वह प्रकट रूप में किया जाता हो अथवा अप्रकट रूप में, चाहे राजमार्गस्थित भीड़ के अंदर उसका उद्भव हो अथवा प्राचीन काल के सघन एकांत वन में। वे विचार सतत रूप से मूर्त होने के लिए यत्नशील हैं एवं जब तक उन्हें सफलता नहीं प्राप्त होती है, तब तक वे अभिव्यक्त होने के लिए सतत प्रयत्न करते रहेंगे; उन्हें दबाने के लिए चाहे जितनी भी चेष्टाएं क्यों न की जायँ, वे कभी विनष्ट नहीं होंगी। किसी भी वस्तु का विनाश नहीं है – जो विचार अतीत काल मेंं अनिष्टकारक थे, वे भी मूर्त रूप धारण करने के लिए यत्नशील हैंं, वे भी पुनःअभिव्यक्त तथा क्रमशः शुद्ध बनकर अंत में शुभ विचार में परिणत होने के लिए यत्नशील हैं।
अतः इस समय भी ऐसी कुछ भावनाएँ विद्यमान हैं, जो अपने को अभिव्यक्त करने के लिए सचेष्ट हैं। ये अभिनव भावनाएँ हमें बतलाती हैं कि हमारे अंदर जो द्वन्द्व-भाव,
जो शुभ एवं अशुभ की भावना हैं, किसी विचार को दबाने की जो भयानक प्रवृत्ति है, इन सबको दूर करना होगा। वे हमको यही शिक्षा देती हैं कि जगत् की उन्नति का रहस्य प्रवृत्तियों का उन्मूलन नहीं, अपितु महत्तर दिशा में उनको परिवर्तित करना है। वे हमें शिक्षा देती हैं कि यह जगत् शुभ एवं अशुभ का जगत् नहीं है, प्रत्युत् यह जगत् महत्, महत्तर एवं और भी महत्तर उपादानों से बना है। सबको अपनी गोद में आकृष्ट किये बिना इन अभिनव भावनाओं को तृप्ति नहीं मिलती। वे हमें शिक्षा देती हैं कि किसी भी दशा में हताश होने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार के नव्य दृष्टिकोणों को मानसिक, नैतिक तथा आत्मिक किन्हीं भी विचारों से कोई विरोध नहीं हैं, क्योंकि ऐसे नयें दृष्टिकोणों की अवस्थिति भी इन्हीं विचारों के मध्य है, वे उन पर बिन्दु मात्र भी दोषारोपण न कर यही कहती हैं कि उनसे अब तक भलाई ही हुई है तथा आगे चलकर उनसे भलाई ही होनेवाली है। प्राचीन काल में बुराई के परित्याग के रूप में जिसकी कल्पना की जाती थी, वर्तमान नवीन शिक्षा-पद्धति के अनुसार उसे बुराई का रूपान्तर माना जाता है अर्थात् भलाई से और अधिक भलाई करने की चेष्टा की जाती है। इन भावनाओं से सर्वोपरि हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमें स्वर्ग का साम्राज्य प्राप्त करने की अभिलाषा हो, तो अवश्य ही वह हमें इसी जीवन में पहले ही से विद्यमान मिलेगा, मनुष्य को यदि कुछ अनुभव की आकाँक्षा हो, तो उसे यह स्वीकार करना होगा कि पहले ही से वह पूर्ण है।
विगत ग्रीष्म ऋतु में ग्रीनेकर में जो सभाएँ हुई, वे इसलिए अत्यन्त सफल तथा सुन्दर हुईं कि तुमने स्वयं पूर्वोक्त भावनाओं के प्रकट करने के लिए उपयुक्त यन्त्र बनकर अपने को सदा उन्मुक्त रखा तथा ‘स्वर्ग-राज्य पहले ही से विद्यमान है’ – नवीन विचारधारा की इस सर्वोच्च शिक्षा की आधार-शिला पर तुम खड़ी रहीं।
इस भावना को अपने जीवन में परिणत कर दृष्टान्त उपस्थित करने के लिए प्रभु की ओर से तुम उपयुक्त आधार के रूप में मनोनीत तथा आदिष्ट हुई हो; जो कोई तुम्हें इस अद्भुत कार्य में सहायता प्रदान करेगा, वह प्रभु की ही सेवा करेगा।
हमारे यहाँ शास्त्र में कहा गया है – मदभक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः अर्थात् जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं। तुम प्रभु की सेविका हो; अतः मैं चाहे जहाँ कहीं भी क्यों न रहूँ, भगवत्प्रेरणा से तुमने जिस महान् व्रत की दीक्षा ली है, उसके उद्यापन में मुझसे जो कुछ भी सहायता हो सके, उससे श्री कृष्ण के दास के रूप में मैं अपने को कृतार्थ समझूँगा तथा वह मेरे लिए साक्षात् प्रभु की ही सेवा होगी।
तुम्हारा चिर स्नेहाबद्ध भाई,
विवेकानन्द