स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित (3 जनवरी, 1898)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखा गया पत्र)
देवधर, वैद्यनाथ,
३ जनवरी, १८९८
माँ,
तुम्हारे पत्र में कई एक अति कठिन प्रश्नों का जिक्र हुआ है। एक छोटे से पत्र में उन सब प्रश्नों का विस्तारपूर्वक उत्तर देना सम्भव नहीं, परन्तु बहुत संक्षेप में उत्तर लिख रहा हूँ।
१. ऋषि मुनि, या देवता, किसी का भी सामर्थ्य नहीं कि वे सामाजिक नियमों का प्रवर्तन करें। जब समाज के पीछे किसी समय की आवश्यकताओं का झोंका लगता है, तब वह आत्मरक्षा के लिए आप ही आप कुछ आचारों की शरण लेता है। ऋषियों ने केवल उन सभी आचारों को एकत्र कर दिया है, बस। जैसे आत्मरक्षा के लिए मनुष्य कभी-कभी बहुत से ऐसे उपायों का प्रयोग करता है, जो उस समय तो रक्षा पाने के लिए उपयोगी हों, परन्तु भविष्य के लिए बड़े ही अहितकर ठहरें, वैसे ही समाज भी बहुत अवसरों पर उस समय तो बच जाता है, पर जिस उपाय से वह बचता है, वही अन्त में भयंकर हो जाता है।
जैसे, हमारे देश में विधवा-विवाह का निषेध। ऐसा न सोचना कि ऋषियों या दुष्ट पुरुषों ने उन नियमों को बनाया है। यद्यपि पुरुष स्त्रियों को पूर्णतया अपने अधीन रखना चाहते हैं, तो भी बिना समाज की सामयिक आवश्यकता की सहायता लिये वे कभी कृतकार्य नहीं होते। इन आचारों में से दो विशेष ध्यान देने योग्य हैं –
(क) छोटी जातियों में विधवा-विवाह होता है।
(ख) उच्च जातियों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक है।
अब यदि हर एक लड़की का विवाह करना ही नियम हो, तो एक-एक लड़की के लिए एक-एक पति मिलना ही मुश्किल है, फिर दो-तीन कहाँ से आयें? इसीलिए समाज ने एक तरफ की हानि कर दी है, यानी जिसको एक बार पति मिल गया है, उसको वह फिर पति नहीं देता; अगर दे तो एक कुमारी को पति नहीं मिलेगा। दूसरी तरफ देखो कि जिन जातियों में स्त्रियों की कमी है, उनमें ऊपर लिखी बाधा न होने से विधवा-विवाह प्रचलित है।
यही बात जाति-भेद तथा अन्य सामाजिक आचारों के सम्बन्ध में है।
पाश्चात्य देशों में कुमारियों को पति मिलना दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है। यदि किसी सामाजिक आचार को बदलना हो, तो पहले यही ढँढ़ना चाहिए कि उस आचार की जड़ में क्या आवश्यकता है और केवल उसी के बदलने से वह आचार आप ही आप नष्ट हो जायेगा। ऐसा किये बिना केवल निन्दा या स्तुति से काम नहीं चलेगा।
२. अब प्रश्न यह है कि क्या समाज के बनाये हुए ये नियम, अथवा समाज का संगठन ही उस समाज के जनसाधारण के हितार्थ हैं? बहुत से लोग कहते हैं कि हाँ, पर कोई-कोई कहते हैं कि ऐसा नहीं, कुछ मनुष्य औरों की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त कर दूसरों को धीरे-धीरे अपने अधीन कर लेते हैं और कुछ छल-बल या कौशल से अपना मतलब हासिल कर लेते हैं। यदि यह सच है, तो इस बात का क्या अर्थ है कि अशिक्षित मनुष्यों को स्वाधीनता देने में डर रहता है और फिर स्वाधीनता का अर्थ ही क्या है?
मेरे तुम्हारे धन आदि छीन लेने से कोई बाधा न रहने का नाम तो स्वाधीनता है नहीं, बल्कि तन, मन या धन का, बिना दूसरों को हानि पहुँचाये, इच्छानुसार उपयोग करने ही का नाम स्वाधीनता है। यह तो मेरा स्वाभाविक अधिकार है और उस धन, विद्या या ज्ञान को प्राप्त करने में समाज के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को समान सुविधा रहनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि जो लोग कहते हैं कि अशिक्षित या गरीब मनुष्यों को स्वाधीनता देने से अर्थात् उनको अपने शरीर और धन आदि पर पूरा अधिकार देने तथा उनके वंशजों को धनी ऊँचे दर्जे के आदिमियों के वंशजों की भाँति ज्ञान प्राप्त करने एवं अपनी दशा सुधारने में समान सुविधा देने से वे उच्छृंखल बन जायेंगे, तो क्या वे समाज की भलाई के लिए ऐसा कहते हैं अथवा स्वार्थ से अन्धे होकर? इंग्लैण्ड में भी मैंने इस बात को सुना है कि अगर नीच लोग लिखना-पढ़ना सीख जायेंगे, तो फिर हमारी नौकरी कौन करेगा?
मुट्ठी भर अमीरों के विलास के लिए लाखों स्त्री-पुरुष अज्ञता के अन्धकार और अभाव के नरक में पड़े रहें! क्योंकि उन्हें धन मिलने पर या उनके विद्या सीखने पर समाज उच्छृंखल हो जायेगा!!
समाज है कौन? वे लोग जिनकी संख्या लाखों है? या तुम और मुझ जैसे दस-पाँच उच्च श्रेणीवाले?
यदि यह सच भी हो, तो भी तुममें और मुझमें ऐसा घमंड किस बात का है कि हम और सब लोगों को मार्ग बतायें? क्या हम लोग सर्वज्ञ हैं?
उद्वरेदात्मनात्मानम् – आप ही अपना उद्धार करना होगा। सब कोई अपने आपको उबारे। सभी विषयों में स्वाधीनता, यानी मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही पुरुषार्थ है। जिससे और लोग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर अग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना और स्वयं उसी तरफ बढ़ना ही परम पुरुषार्थ है। जो सामाजिक नियम इस स्वाधीनता के स्फुरण में बाधा डालते हैं, वे ही अहितकर हैं और ऐसा करना चाहिए जिससे वे शीघ्र नष्ट हो जायें। जिन नियमों के द्वारा सब जीव स्वाधीनता की ओर बढ़ सकें, उन्हीं की पुष्टि करनी चाहिए।
इस जन्म में दर्शन होते ही किसी व्यक्तिविशेष पर – चाहे वह वैसा गुणवान भले ही न हो – हमारा जो हार्दिक प्रेम हो जाता है, उसे हमारे यहाँ के पंडितों ने पूर्व जन्म का ही फल बतलाया है।
इच्छा-शक्ति के बारे में तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है और यही समझने योग्य विषय है। वासनाओं का नाश ही सभी धर्मों का सार है, पर इसके साथ इच्छा का भी निश्चय नाश हो जाता है, क्योंकि वासना तो इच्छाविशेष ही का नाम है। अच्छा, तो यह जगत् क्यों हुआ? और इन इच्छाओं का विकास ही क्यों हुआ? कई एक धर्मों का कहना है – बुरी इच्छाओं का ही नाश होना चाहिए, न कि सदिच्छाओं का। इस लोक में वासना का त्याग परलोक में भोगों के द्वारा पूर्ण हो जायेगा। अवश्य पंडित लोग इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हैं। दूसरी तरफ बौद्ध लोग कहते हैं कि वासना दुःख की जड़ है और उसका नाश ही श्रेय है। परन्तु मच्छर मारते हुए आदमी ही को मार डालने की तरह, बौद्ध आदि मतों के अनुसार दुःख का नाश करने के प्रयत्न में हमने अपनी आत्मा को भी मार डाला है।
सिद्धान्त यह है कि हम जिसे इच्छा कहते हैं, वह उससे भी बढ़कर किसी अवस्था का निम्न परिणाम है। ‘निष्काम’ का अर्थ है इच्छा शक्तिरूप निम्न परिणाम का त्याग और उच्च परिणाम का आविर्भाव। यह उच्च परिणाम मन और बुद्धि के गोचर नहीं; परन्तु जैसे देखने में मुहर रुपये और पैसे से अत्यन्त भिन्न होने पर भी हम निश्चित जानते हैं कि मुहर दोनों ही से श्रेष्ठ है, वैसे ही वह उच्चतम अवस्था – उसे मुक्ति कहो या निर्वाण या और कुछ – मन, बुद्धि के गोचर न होने पर भी इच्छा आदि सब शक्तियों से बढ़कर है। यद्धपि वह ‘शक्ति’ नहीं, तो भी शक्ति उसी का परिणाम है, इसीलिए वह बढ़कर है; यद्यपि वह इच्छा नहीं, पर इच्छा उसी का निम्न परिणाम है, अतः वह उत्कृष्टतर है। अब समझ लो, पहले सकाम और आगे चलकर निष्काम रीति से ठीक इच्छा-शक्ति के उपयोग का फल यह होगा कि इच्छा-शक्ति पहले से बहुत उन्नत दशा को पहुँच जायेगी।
गुरु-मूर्ति का पहले ध्यान करना पड़ता है, बाद में उसे लय कर इष्ट-मूर्ति की स्थापना करनी पड़ती है। जिस पर भक्ति एवं प्रेम हो वही इष्ट के रूप में ग्राह्य है।…
मनुष्य में ईश्वर-बुद्धि का आरोप करना बड़ा ही कठिन है, पर सतत प्रयत्न करने से अवश्य सफलता मिलती है। ईश्वर हर एक मनुष्य में विराजता है, चाहे वह इसे जाने या न जाने; तुम्हारी भक्ति से उस ईश्वर का उसमें अवश्य ही उदय होगा।
तुम्हारा सदैव शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द