स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (10 फरवरी, 1902)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
१० फरवरी, १९०२
प्रिय श्रीमती बुल,
आपका और पुत्री का एक बार पुनः भारतभूमि पर स्वागत है। मद्रास जर्नल की एक प्रति जो मुझे ‘जो’ की कृपा से प्राप्त हुई, उससे मैं अत्यत हर्षित हूँ। जो स्वागत निवेदिता का मद्रास में हुआ, वह निवेदिता और मद्रास दोनों ही के लिए हितकर था। उसका भाषण निश्चय ही बड़ा सुन्दर रहा।
मैं आशा करता हूँ कि आप और निवेदिता भी इतनी लम्बी यात्रा के पश्चात् पूरी तरह विश्राम कर रही होंगी। मेरी बड़ी इच्छा है कि आप कुछ घंटों के लिए पश्चिमी कलकत्ता के कुछ गाँवों में जायँ और वहाँ लकड़ी, बाँस, बेंत, अभ्रक तथा घास-फूस आदि से निर्मित पुराने किस्म के बंगाली मकानों को देखें। वास्तव में ये ही ‘बंगला’ कहलाये जाने के अधिकारी हैं, जो अत्यंत कलापूर्ण होते हैं। किन्तु आह! आजकल तो यह नाम, ‘बंगला’ हर किसी गंदे-संदे घृणित मकान को देकर उस नाम का मजाक बना दिया गया है। पुराने जमाने में जो कोई भी महल बनवाता, तो अतिथि-सत्कार के लिए इस प्रकार का एक ‘बंगला’ अवश्य बनवाता था। इसकी निर्माण-कला अब विनष्ट होती जा रही है। काश मैं निवेदिता की सारी पाठशाला ही इस शैली में बनवा सकता! फिर भी इस तरह के जो दो-एक नमूने शेष बचे हैं, उन्हें देखकर सुख होता है।
ब्रह्मानन्द सब प्रबन्ध कर देगा, आपको केवल कुछ घंटों की यात्रा भर करनी रहेगी।
श्री ओकाकुरा अपने अल्पकालीन दौरे पर निकल पड़े हैं वे आगरा, ग्वालियर, अजन्ता, एलोरा, चितोड़, उदयपूर, जयपुर और दिल्ली आदि जगहें जाना चाहते हैं।
बनारस का एक अत्यंत सुशिक्षित धनाढ्य युवक, जिसके पिता से हमारी पुरानी मित्रता थी, कल इस नगर में वापस आ गये हैं। उनकी कला में विशेष रूचि है और नष्टप्राय भारतीय कला के पुनरूत्थान के सदुद्देश्य से बहुत सा धन व्यय कर रहे हैं। वे श्री ओकाकुरा के जाने के पश्चात् ही मुझसे मिलने आये। भारत की कला जो कुछ भी शेष रह गयी है, उसका श्री ओकाकुरा को दर्शन कराने के लिए ये ही उपयुक्त व्यक्ति हैं, और मुझे विश्वास है, उनके सुझावों से श्री ओकाकुरा लाभान्वित होंगे। अभी ही श्री ओकाकुरा ने टेराकोटा की एक सुराही यहाँ से प्राप्त की है, जिसे नौकर इस्तेमाल कर रहे थे। उसकी गठन और उसकी मुद्रांकित डिजाइन पर वे मुग्ध रह गये। किन्तु चूंकि वह सुराही मिट्टी की थी और यात्रा में उसके टूट जाने का भय था, अतः उन्होंने मुझसे उसे पीतल में ढलवा लेने को कहा। मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ सा था कि क्या करूँ! कुछ घंटे बाद तभी यह युवक आये और न केवल उन्होंने इस कार्य को करने का जिम्मा ले लिया वरन् मुझे ऐसे सैकड़ों मुद्रांकित टेराकोटा भी दिखाये, जो श्री ओकाकुरावाले से असंख्यगुना श्रेष्ठ हैं।
उन्होंने उस अदभुत प्राचीन शैली के पुराने चित्रों को सिखाने का भी प्रस्ताव रखा। वाराणसी में केवल एक परिवार ऐसा बचा है, जो अब भी उस प्राचीन शैली में चित्र बना सकता है। उनमें से एक ने तो मटर के एक दाने पर आखेट का संपूर्ण दृश्य ही चित्रित कर डाला है, जो बारीकी और क्रियांकन में पूर्णतः निर्दोष है। मुझे आशा है कि लौटते समय ओकाकुरा इस नगर में आयेंगे और इन भद्रपुरूष के अतिथि बनकर भारत के कलावशेषों का दर्शन करेंगे।
निरंजन भी श्री ओकाकुरा के साथ गया है और एक जापानी होने से किसी मंदिर में आने-जाने से उसे कोई मना नहीं करता। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे तिब्बती और दूसरे उत्तर प्रान्तीय बौद्ध शिव की उपासना के लिए यहाँ बराबर आते रहे हैं। यहाँ वालों ने उसे शिवलिंग का स्पर्श करने तथा पूजा आदि करने की अनुमति दे दी थी। श्रीमती एनी बेसेंट ने भी ऐसी ही चेष्टा एक बार की थी, पर बेचारी! उन्हें मंदिर के प्रांगण तक में प्रवेश नहीं करने दिया गया, यद्यपि उन्होंने जूते उतार दिये थे और साड़ी पहनकर पुरोहितों के चरणों की धूलि भी माथे लगा चुकी थी। बौद्ध हमारे यहाँ के किसी भी बड़े मंदिर में अहिन्दू नहीं समझे जाते।
मेरा कार्यक्रम कोई निश्चित नहीं है, मैं बहुत शीघ्र ही यह स्थान बदल सकता हूँ।
शिवानन्द और लड़के आप सबको अपना स्नेह-आदर प्रेषित करते हैं।
चिरस्नेहाबद्ध
विवेकानन्द