स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (14 फरवरी, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)

५४ डब्ल्यू. ३३वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
१४ फरवरी, १८९५

प्रिय श्रीमती बुल,

माता की तरह सत्परामर्श देने के लिए आप मेरी आन्तरिक कृतज्ञता स्वीकार करें। आशा है कि मैं उसे अपने जीवन में परिणत कर सकूँगा।

मैंने जिन पुस्तकों के बारे में आपको लिखा था, उसका उद्देश्य आपके विभिन्न धर्मग्रन्थसमन्वित पुस्तकालय की कलेवर-वृद्धि करना था। किन्तु ऐसी दशा में जब कि आपके रहने के बारे में अभी तक निश्चित नहीं है, उनकी इस समय कोई आवश्यकता नहीं। मेरे गुरुभाइयों के लिए भी उनकी जरूरत नहीं हैं, क्योंकि वे भारत में भी उनको प्राप्त कर सकते हैं, और ऐसी स्थिति में जब कि मुझे भी बराबर इधर-उधर भ्रमण करना पड़ रहा है, उन ग्रन्थों को लेकर सर्वत्र घूमना मेरे लिए भी सम्भव नहीं है। आपके इस दान के प्रस्ताव के लिए आपको अनेक धन्यवाद।

आपने अब तक मेरे तथा मेरे कार्यों के लिए जो कुछ सहायता प्रदान की है, तदर्थ मैं आपके प्रति अपनी कृतज्ञता कैसे प्रकट करूँ, यह नहीं समझ पाता हूँ। इस वर्ष भी मुझे कुछ सहायता देने के सम्बन्ध में आपके प्रस्ताव के लिए आप मेरे असंख्य धन्यवाद स्वीकार करें। परन्तु मेरा यह हार्दिक विश्वास है कि इस वर्ष आपको कुमारी फार्मर के ग्रीनेकर के कार्य में पूरी सहायता करनी चाहिए। भारत अभी प्रतीक्षा कर सकता है, जैसा कि वह शताब्दियों से करता रहा है, और अपने समीप के अत्यावश्यकीय कार्य की ओर पहले ध्यान देना उचित है।

दूसरे, मनु के मतानुसार, किसी सत्कार्य के लिए भी अर्थ संग्रह करना संन्यासी के लिए ठीक नहीं है। अब मुझे यह अच्छी तरह से अनुभव होने लगा है कि उन प्राचीन महापुरुषों ने जो कुछ भी कहा है, वह ठीक है। आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्। – ‘आशा ही परम दुःख तथा निराशा ही परम सुख है।’ मुझे यह करना है, वह करना है, इस प्रकार की मेरी जो बालकों जैसी धारण थी, वह मुझे अब भ्रमात्मक प्रतीत होने लगी है। अब मेरी इस प्रकार की वासनाएँ दूर होती जा रही हैं।

‘सब वासनाओं को त्यागकर सुखी बनो।’ ‘कोई भी तुम्हारा शत्रु या मित्र न रहे – तुम अकेले रहो।’ ‘इस प्रकार से भगवन्नाम का प्रचार करते हुए शत्रु तथा मित्रों के प्रति समदृष्टि रखकर, सुख-दुःख से अतीत हो, वासना तथा ईर्ष्या को त्यागकर, किसी प्राणी की हिंसा न करते हुए, किसी प्राणी के किसी प्रकार के अनिष्ट एवं उद्वेग का कारण न बनकर, हम गाँव-गाँव तथा पर्वत-पर्वत भ्रमण करते रहेंगे।’

‘गरीब-अमीर, ऊँच-नीच किसीसे कुछ भी सहायता न माँगो। किसी भी वस्तु की आकांक्षा न करो। और इन नेत्रों के सामने से क्रमशः विलुप्त होते हुए दृश्य-जाल को द्रष्टारूप से जानो और उन्हें गुजर जाने दो।’

सम्भवतः इस देश में मुझे खींच लाने के लिए ऐसी उन्मत्त वासनाओं की आवश्यकता थी। इस प्रकार के अनुभव लाभ करने के लिए मैं प्रभु को धन्यवाद देता हूँ।

मैं यहाँ पर अत्यन्त सुखी हूँ। श्री लैण्ड्सवर्ग के साथ मिलकर मैं कुछ चावल, दाल या बार्ली पका लेता हूँ, चुपचाप भोजन करता हूँ, तदनन्तर कुछ लिखता-पढ़ता हूँ, या फिर उपदेश के इच्छुक जो गरीब लोग आ जाते हैं, उनसे बातचीत करता रहता हूँ। इस प्रकार रहकर

मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो मैं ठीक संन्यासी का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ, जिसका अनुभव अमेरिका आने के बाद अब तक मैंने नहीं किया था।

‘धन रहने से दारिद्र्य का भय है, ज्ञान रहने पर अज्ञान का भय है, रूप में बुढ़ापे का भय है, गुण रहने से खल का भय है, उन्नति में ईर्ष्या का भय है, यहाँ तक कि शरीर रहने पर मृत्यु का भय है। इस जगत् में सब कुछ भययुक्त है। एकमात्र वही पुरुष निर्भीक है, जिसने सब कुछ त्याग दिया है।’१

मैं उस दिन कुमारी कार्बिन से मिलने गया था। कुमारी फार्मर तथा कुमारी थर्सबी भी वहीं थीं। आधे घण्टे का समय अत्यन्त आनन्द से व्यतीत हुआ। उनकी ऐसी इच्छा है कि आगामी रविवार से मैं उनके मकान में अपना कोई कार्यक्रम रखूँ।

मैं अब इन विषयों के लिए व्यग्र नहीं हूँ। यदि अपने आप कुछ उपस्थित हो, तो प्रभु की जय मानता हूँ और यदि उपस्थित न हो, तो और उनकी जय मनाता हूँ।

आप पुनः मेरी अनन्त कृतज्ञता ग्रहण करने की कृपा करें।

आपका अनुगत पुत्र,
विवेकानन्द


  1. भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालादभयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम।
    शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं कामे कृतान्तादभयं सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणा वैराग्यमेवाभयम॥– वैराग्यशतकम॥३१॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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