स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (20 जनवरी, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र1)
ब्रुकलिन,
२० जनवरी, १८९५
प्रिय धीरा माता,
… आपके पिता के जीर्ण शरीर छोड़ने से पहले ही मुझे पूर्वाभास हुआ था, परन्तु मेरा यह नियम नहीं है कि जब किसी से भावी माया की प्रतिकूल लहर टकराने वाली हो, तो मैं उसे पहले से ही लिख दूँ। यह जीवन को मोड़ देने वाले अवसर होते हैं, और मैं जानता हूँ कि आप विचलित नहीं हुई हैं। समुद्र के ऊपरी भाग का बारीबारी से उत्थान एवं पतन होता है, परन्तु विवेकी आत्मा को – जो ज्योति की सन्तान है – उसके पतन में गम्भीरता, और समुद्र के तल में मोती और मूँगों की परतें ही प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं। आना और जाना केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जाएगी, जब कि सम्पूर्ण ‘देश’ आत्मा में ही स्थित है? प्रवेश करने और प्रस्थान करने का कौन समय होगा, जब समस्त काल आत्मा के भीतर ही है?
पृथ्वी घूमती है और सूर्य के घूमने का भ्रम उत्पन्न होता है, किन्तु सूर्य नहीं घूमता। इसी प्रकार प्रकृति या माया चंचल और परिवर्तनशील है। पर्दे-पर-पर्दे हटाती जाती है, इस विशाल पुस्तक के पन्ने-पर-पन्ने बदलती जाती है, जब कि साक्षी आत्मा अविचल और अपरिणामी रहकर ज्ञान का पान करती है। जितनी जीवात्माएँ हो चुकी हैं या होंगी, सभी वर्तमान काल में हैं – और जड़ जगत् की एक उपमा की सहायता लेकर कहें, तो वे सब रेखागणित के एक बिन्दु पर स्थित क हैं। चूँकि आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिए जो ख” क” हमारे थे, वे हमारे हैं, सर्वदा हमारे रहेंगे और सर्वदा हमारे ख” क” साथ हैं। वे सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। क’ ख’ हम उनमें हैं, वे हममें। इन कोष्ठों को देखें। यद्यपि इनमें से प्रत्येक पृथक है, फिर भी वे सब क, ख (देह और प्राण), ख इन दो बिन्दुओं में अभिन्न भाव से संयुक्त हैं। वहाँ सब एक हैं। प्रत्येक का अलग अलग एक व्यक्तित्व है, परन्तु वे सब क ख बिन्दुओं पर एक हैं। कोई भी उस क, ख अक्षरेखा से निकलकर भाग नहीं सकता, और परिधि चाहे कितनी टूटी या फूटी हो, परन्तु अक्षरेखा में खड़े होने से हम किसी भी कोष्ठ में प्रवेश कर सकते हैं। यह अक्षरेखा ईश्वर है। वहाँ उससे हम अभिन्न हैं, सब सबमें हैं, और सब ईश्वर में हैं। चन्द्रमा के मुख पर चलते हुए बादल यह भ्रम उत्पन्न करते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। इसी प्रकार प्रकृति, शरीर और जड़ पदार्थ गतिशील हैं और उनकी गति ही यह भ्रम उत्पन्न करती है कि आत्मा गतिशील है। इस प्रकार अन्त में हमें यह पता चलता है कि जिस जन्मजात-प्रवृत्ति (अथवा अंतःस्फुरण) से सब जातियाँ – उच्च या निम्न – मृत व्यक्तियों की उपस्थिति अपने समीप अनुभव करती आ रही हैं, वह युक्त की दृष्टि से भी सत्य है।
प्रत्येक जीवात्मा एक नक्षत्र है, और ये सब नक्षत्र ईश्वररूपी उस अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है, वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरूप और वही प्रत्येक और सबका प्रकृत व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप नक्षत्रों में से कुछ के, जो हमारी दृष्टि-सीमा से परे चले गए हैं, अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति परमात्मा में ही है और हम भी उसी में हैं। अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और वे वहीं अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। इस लोक में या किसी और लोक में क्या वे फिर ऐसा ही कोई एक वस्त्र पहनेंगे? मैं सच्चे दिल से भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे ऐसा पूरे ज्ञान के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाए। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त हो जाएँ अर्थात् वे यह जानें कि वे मुक्त हैं। और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना चाहें, तो वे सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों।…
आपका
विवेकानन्द
- उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर लिखित। स्वामी जी ने उन्हें धीरा माता कहकर संबोधित किया था।