स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (24 जनवरी, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)

न्यूयार्क,
२४ जनवरी, १८९५

प्रिय श्रीमती बुल,

स्टर्डी के पते पर भेजा हुआ आपका कृपापूर्ण पत्र मुझे यहाँ भेज दिया गया है। मुझे भय है कि इस वर्ष अत्यधिक कार्य-भार से मैं थक गया हूँ। मुझे विश्राम की परम आवश्यकता है। इसलिए आपका यह कहना कि बोस्टन का काम मार्च के अन्त में आरम्भ किया जाय, बहुत अच्छा है। अप्रैल के अन्त तक मैं इंग्लैण्ड के लिए चल दूँगा।

कैटस्किल में जमीन के बड़े बड़े प्लॉट कम दाम में मिल सकते हैं। एक १०१ एकड़ का प्लॉट २०० डॉलर का है। रूपया मेरे पास तैयार है, पर जमीन मैं अपने नाम से नहीं ले सकता हूँ। इस देश में आप ही मेरी एक मित्र हैं, जिन पर मुझे पूरा विश्वास है। यदि आप स्वीकार करें, तो मैं आपके नाम से जमीन ख़रीद लूँ। गर्मी में विद्यार्थी वहाँ जायँगे और इच्छानुसार छोटे छोटे मकान या तम्बू डालेंगे और ध्यान का अभ्यास करेंगे। बाद में कुछ धन इकट्ठा कर सकने पर वे वहाँ पक्की इमारत आदि का निर्माण कर सकेंगे।

मुझे दुःख है कि आप तत्काल नहीं आ सकीं। इस महीने के रविवार वाले व्याखानों का कल अन्तिम दिवस है। आगामी मास के पहले रविवार को ब्रुकलिन में व्याख्यान होगा। शेष तीन न्यूयार्क में, उसके बाद मैं इस वर्ष के न्यूयार्क के व्याख्यानों को बन्द कर दूँगा।

मैंने अपनी शक्ति भर काम किया है। यदि उसमें सत्य का कोई बीज है, तो वह यथाकाल अकुंरित होगा। इसलिए मुझे कोई चिन्ता नहीं है। व्याख्यान देते देते और कक्षाएँ लेते लेते मैं अब थक भी गया हूँ। इंग्लैण्ड में कुछ महीने काम करके मैं भारत जाऊँगा और वहाँ कुछ वर्षों के लिए या सदा के लिए अपने आपको पूर्णतया गुप्त रखूँगा। मेरी अन्तरात्मा साक्षी है कि मैं आलसी संन्यासी नहीं रहा। मेरे पास एक नोटबुक है, जिसने सारे संसार में मेरे साथ यात्रा की है। सात वर्ष पहले उसमें मैं यह लिखा हुआ पाता हूँ – ‘अब एक ऐसा एकान्त स्थान मिले, जहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा में मैं पड़ा रह सकूँ।’ परन्तु यह सब कर्म-भोग शेष था। मैं आशा करता हूँ कि अब मेरा कर्म क्षय हो गया है। मैं आशा करता हूँ कि प्रभु मुझे इस प्रचार-कार्य से और सुकर्म के बन्धन को बढ़ाते रहने से छुटकारा देंगे।

‘यदि यह तुमने जान लिया है कि एकमात्र आत्मा की ही सत्ता है और उसके अतिरिक्त अन्य किसी का अस्तित्व नही, तब किसके लिए, किस वासना के वशीभूत होकर तुम अपने को कष्ट देते हो?’ माया द्वारा ही दूसरों का हित करने के ये सब विचार मेरे मस्तिष्क में आये थे, अब वे मुझे छोड़ रहे हैं। मेरा यह विश्वास अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है कि कर्म का ध्येय केवल चित्त की शुद्धि है, जिससे वह ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी हो सके। यह संसार अपने गुण-दोष सहित अनेक रूपों में चलता रहेगा। पुण्य और पाप केवल नये नाम और नये स्थान बना लेंगे। मेरी आत्मा निरवच्छिन्न एवं अनश्वर शान्ति और विश्राम के लिए लालायित है।

‘अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।’ आह! मैं तरसता हूँ – अपने चिथड़ों के लिए, अपने मुण्डित मस्तक के लिए, वृक्ष के नीचे सोने के लिए, और भिक्षा के भोजन के लिए! सारी बुराइयों के बावजूद भी भारत ही एकमात्र स्थान है, जहाँ आत्मा अपनी मुक्ति, अपने ईश्वर को पाती है। यह पश्चिमी चमक-दमक निस्सार है, केवल आत्मा का बन्धन है। संसार की निस्सारता का मैने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी दृढ़ता से अनुभव नहीं किया था। प्रभु सबको बन्धन से मुक्त करें – माया से सब लोग निकल सकें – यही मेरी नित्य प्रार्थना है।

विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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