स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (25 अप्रैल, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
न्यूयार्क,
५४ पश्चिम ३३वीं स्ट्रीट,
२५ अप्रैल, १८९५
प्रिय श्रीमती बुल,
परसों मुझे कुमारी फार्मर का कृपा-पत्र मिला, उसके साथ बार्बर-हाउस के भाषणों के लिए सौ डॉलर का एक ‘चेक’ भी प्राप्त हुआ। आगामी शनिवार को वे न्यूयार्क आ रही हैं। अवश्य ही मैं उनसे उनकी भाषण-विज्ञप्ति में अपना नाम न रखने के लिए कहूंगा। इस समय मेरे लिए ग्रीनेकर जाना असम्भव है। सहस्रद्वीपोद्यान (Thousand Islands) जाने की मैं व्यवस्था कर चुका हूँ – चाहे वह स्थान कहीं भी क्यों न हो। वहाँ पर मेरी एक छात्रा कुमारी डचर का एक ‘कॉटेज’ है। अपने कुछ साथियों तथा कुछ शिष्यों के साथ वहाँ एकान्त में रहकर मैं शान्तिपूर्वक विश्राम लेना चाहता हूँ। मेरे क्लास में जो लोग शामिल होते हैं उनमें से कुछ व्यक्तियों को मैं योगी बनाना चाहता हूँ। ग्रीनेकर जैसा कर्मव्यस्त मेला सा स्थान उसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं, जब कि दूसरा स्थान (सहस्रद्वीपोद्यान) बस्ती से बिल्कुल दूर है, कोई केवल मात्र कौतुक एवं आनन्दप्रिय व्यक्ति वहाँ पहुँचने का साहस न करेगा।
मैं इसलिए बेहद प्रसन्न हूँ कि कुमारी हैमलिन ने, ज्ञानयोग के क्लास में जो लोग शामिल होते थे, ऐसे १३० व्यक्तियों के नाम लिख रखे हैं। इसके अलावा ५० व्यक्ति बुधवार के दिन योग के क्लास में तथा प्रायः ५० व्यक्ति सोमवार के क्लास में भी आते हैं। श्री लैण्ड्सबर्ग ने सब नाम लिख रखे थे – चाहे नाम हो या न हो – वे सभी शामिल होंगे। श्री लैण्ड्सवर्ग मुझसे अलग हो गये हैं, किन्तु उन नामों को यहीं मेरे पास छोड़ गये हैं, वे लोग सभी शामिल होंगे – और यदि वे शामिल न भी हों, तो और लोग आयेंगे, अतः कार्य इस प्रकार चलता रहेगा – प्रभु, सब कुछ तुम्हारी ही महिमा है!!
इसमें कोई सन्देह नहीं कि नाम लिख रखना तथा सूचना देना एक बड़ा भारी कार्य है और इस कार्य को करने के लिए मैं उन दोनों का अत्यन्त आभारी हूँ। किन्तु मैं यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि दूसरों पर निर्भर रहना एकमात्र मेरे निजी आलस्य का फल है, इसलिए वह अधर्म है एवं आलस्य के द्वारा ही सदा अनिष्ट हुआ करता है। अतः अब मैं उन सभी कार्यों को स्वयं कर रहा हूँ तथा आगे भी सब कुछ स्वयं ही करता रहूँगा, जिससे भविष्य में दूसरों को अथवा मुझे स्वयं उद्विग्न न होना पड़े।
अस्तु, कुमारी हैमलिन के ‘उपयुक्त व्यक्तियों’ में से किसी भी एक को अपने साथ शामिल करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी, किन्तु दुर्भाग्य है कि अभी तक ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं आया। अत्यन्त ‘अनुपयुक्त’ व्यक्तियों में से ‘उपयुक्त’ का निर्माण करना ही आचार्य का सदा से कर्तव्य रहा है। अन्ततोगत्वा यद्यपि मैं उस सम्भ्रान्त युवती कुमारी हैमलिन का अत्यन्त ही आभारी हूँ, क्योंकि उन्होंने न्यूयार्क के ‘उपयुक्त’ व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय करा देने की आशा दिलायी थी तथा उत्साह प्रदान किया था तथा यथार्थ रूप से मेरे कार्यों में सहायता भी की थी, फिर भी मैं यह उचित समझता हूँ कि मेरा जो भी कुछ थोड़ा-बहुत कार्य है, उसे अपने ही हाथों करूँ। दूसरों की सहायता लेने का समय अभी उपस्थित नहीं हुआ है – क्योंकि कार्य अभी स्वल्प है।
उक्त कुमारी हैमलिन के बारे में आपकी धारणा बहुत ऊँची है – इससे मैं आनन्दित ही हूँ। आप उसकी सहायता करना चाहती हैं, यह जानकर चाहे और लोगों को प्रसन्नता हुई हो या नहीं, मुझे तो विशेष प्रसन्नता हुई, क्योंकि उसके लिए सहायता की आवश्यकता है। किन्तु माँ, श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने सहज ज्ञान से तत्काल ही यह भाँप लेता हूँ कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। उसका परिणाम यह हुआ है कि आप अपनी इच्छानुसार मेरे विषय में जो चाहें, कर सकती हैं, मैं भुन्नाऊँगा भी नहीं; – मैं केवल कुमारी फार्मर की सलाह लेने में प्रसन्न ही हूँगा, चाहे भूत-प्रेत की ही बात हो। इन भूत-प्रेतों के पीछे मैं पाता हूँ एक प्रेमगम्भीर हृदय, जिस पर प्रशंसनीय उच्चाभिलाष का एक सूक्ष्म परदा पड़ा हुआ है – कुछ वर्षों में उसका भी नाश अवश्यम्भावी है। यहाँ तक कि लैण्ड्सबर्ग भी यदि मेरे कार्यों में बीच में हस्तक्षेप करे, तो भी मैं उससे किसी प्रकार की आपत्ति न करूँगा, किन्तु इस विषय को मैं यहाँ तक ही सीमित रखना चाहता हूँ। इनके अलावा मेरी सहायता के लिए और किसी व्यक्ति के अग्रसर होने पर मैं बहुत डर जाता हूँ – सिर्फ़ मैं इतना ही कह सकता हूँ। इसलिए नहीं कि आप मेरी सहायता कर रही हैं, किन्तु मैं अपने सहज ज्ञान से (अथवा जिसे मैं अपने गुरु महाराज की अन्तःप्रेरणा कहा करता हूँ) आपकी अपनी माता की तरह श्रद्धा करता हूँ। अतः जहां तक मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध है, आप मुझे जो भी कुछ सलाह देंगी, मैं सदा उसका पालन करूँगा। यदि आप किसीको माध्यम बनाना चाहें तो मैं प्रार्थना करता हूँ कि चुनाव करने के लिए मुझे स्वेच्छा से छोड़ दें। इत्यलम्।
उस अंग्रेज सज्जन का पत्र भी इसके साथ मैं भेज रहा हूँ। हिन्दुस्तानी शब्दों को समझाने के लिए पत्र के हाशिये पर मैं ने कुछ टिप्पणियाँ दे दी हैं।
आपका आज्ञाकारी पुत्र,
विवेकानन्द
पु. – कुमारी हैमलिन अभी तक नहीं पहुँची हैं। उनके आने पर मैं संस्कृत की पुस्तकें भेज दूँगा। क्या उन्होंने भारत के बारे में श्री नौरोजीकृत कोई ग्रन्थ आपको भेजा है? यदि आप अपने भाई साहब को उसे आद्योपान्त पढ़ने के लिए कहें, तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता होगी। गाँधी अब कहाँ हैं?
वि.