स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (8 दिसम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
२२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क,
८ दिसम्बर, १८९५
प्रिय श्रीमती बुल,
अपने पत्र में आपने मुझे जो आमन्त्रण भेजा है, उसके लिए कोटिशः धन्यवाद। दस दिन की दीर्घ एवं कठिन समुद्र-यात्रा के उपरान्त गत शुक्रवार को मैं यहाँ आ पहुँचा। समुद्र भयानक रुप से विक्षुब्ध था और अपने जीवन में मुझे पहली बार ‘समुद्रपीड़ा’ (sea-sickness) से नितान्त कष्ट उठाना पड़ा। आपको एक पौत्र लाभ हुआ है, जानकर मुझे अत्यन्त खुशी हुई, आप मेरी शुभकामनाएँ ग्रहण करें ; शिशु का मंगल हो! कृपया श्रीमती एडम्स तथा कुमारी थर्सबी से मेरा हार्दिक स्नेह निवेदन करें।
मैंने इग्लैण्ड में कुछ एक अडिग मित्रों का संगठन किया है। आगामी गर्मी की ऋतु में पुनः वहाँ वापस जाऊँगा – इस आशा को लेकर वे वहाँ पर मेरी अनुपस्थिति में काम करते रहेंगे। यहाँ पर किस प्रणाली से मैं कार्य करूँगा, यह अभी तक मैं निश्चय नहीं कर पाया हूँ। इसी बीच मैं एक बार डिट्रॉएट तथा शिकागो हो आना चाहता हूँ – फिर न्यूयार्क लौटूँगा। जनता के समक्ष भाषण न देने का मैंने निश्चय कर लिया है; क्योंकि मैं यह देख रहा हूँ कि भाषण देने अथवा स्वतः कक्षा लेने में धन का सम्बन्ध न रखना ही मेरे लिए सर्वोत्कृष्ट कार्य है। भविष्य में उस कार्य से क्षति होने की सम्भावना है, साथ ही उसके द्वारा बुरा उदाहरण स्थापित होगा।
इंग्लैण्ड में भी मैंने उसी प्रणाली से कार्य किया है और यहाँ तक कि स्वतः प्रेरित होकर भी जो लोग मुझे धन देना चाहते थे, उनके धन को मैंने वापस कर दिया है। श्री स्टर्डी ही धनवान होने के कारण बड़े बड़े सभागृहों में भाषण देने का अधिकांश व्यय वहन करते थे तथा बाकी व्यय मैं स्वयं वहन करता था। इससे कार्य भी अच्छी तरह से चलता था। और यदि एक निकृष्ट दृष्टान्त देने से कोई दोष न हो, तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि धार्मिक क्षेत्र में भी माँग से अधिक वस्तु वितरित करना ठीक नहीं है। जितनी माँग हो, सिर्फ़ उतनी ही मात्रा में वस्तुओं का वितरण होना चाहिए। यदि लोग मुझे चाहते हैं, तो वे स्वयं ही भाषण का सारा प्रबन्ध करेंगे। इन विषयों को लेकर मुझे माथापच्ची करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप श्रीमती एडम्स तथा कुमारी लॉक के साथ परामर्श कर इस निर्णय पर पहुँचें कि शिकागो जाकर धारावाहिक रुप से भाषण देना मेरे लिए सम्भव होगा, तो मुझे सूचित करें; किन्तु निश्चय ही रुपये-पैसों की बातों का इसके साथ कोई सम्पर्क नहीं होना चाहिए।
मैं विभिन्न स्थानों में स्वतन्त्र तथा स्वावलम्बी संस्थाओं का पक्षपाती हूँ। वे अपना कार्य अपनी अभिरूचि के अनुसार करे, एवं जिस खूबी के साथ वे कर सकें, करें। अपने बारे में मेरा वक्तव्य इतना ही है कि मैं अपने को किसी संस्था के साथ जोड़ना नहीं चाहता हूँ। आशा है, आप शरीर और मन से स्वस्थ होंगी।
प्रभुपदाश्रीत,
विवेकानन्द